देवी का महत्त्व !

भारत में प्राचीन काल से देवी उपासना करने की परंपरा है । यद्यपि देवी का मूल रूप निर्गुण है, तथापि उनके सगुण रूप की उपासना करने की परंपरा भारत में प्रचलित है । कुलदेवी, ग्रामदेवी, शक्तिपीठ आदि रूपों में देवी के विविध सगुण रूपों की उपासना की जाती है । हिन्दू संस्कृति में जितना महत्त्व देवता का है उतना ही महत्त्व देवी को भी दिया जाता है, यह विशेषता है । भारत में अन्य संप्रदायों के समान ही शाक्त संप्रदाय भी कार्यरत है । पंचायतन की पूजा में शिव, विष्णु, गणपति और सूर्य के साथ ही देवी की पूजा का भी विशेष महत्त्व है । उपासकों के हृदय में देवी का विशेष स्थान होने के कारण ही भारतभर में प्रतिवर्ष नवरात्रि उत्सव उत्साह के साथ मनाया जाता है ।

१. शाक्त संप्रदाय

भारत में विविध संप्रदाय कार्यरत हैं । इन संप्रदायों के अनुुसार संबंधित देवता की उपासना प्रचलित है । गाणपत्य, शैव, वैष्णव, सौर्य, दत्त आदि संप्रदायों के समान ही शाक्त संप्रदाय का अस्तित्व भी भारत में प्राचीन काल से है । शाक्त संप्रदाय द्वारा बताए अनुसार शक्ति की उपासना करनेवाले अनेक शाक्त भारत में सर्वत्र दिखाई देते हैं ।

 

२. पंचायतन पूजा के प्रमुख देवता

आदि शंकराचार्यजी ने भारत में पंचायतन पूजा की प्रथा प्रारंभ की । उसमें देवी का स्थान महत्त्वपूर्ण है । भारत में जिन उपास्य देवताआें की उपासना होती है, उन पांच प्रमुख देवताआें में से एक शक्ति अर्थात देवी है ।

 

३. तंत्रशास्त्र की आराध्य देवता

तंत्रशास्त्र का पालन करनेवाले तांत्रिक तंत्रशास्त्र के जनक सदाशिव की उपासना करते हैं । उसके अनुसार त्रिपुरसुंदरी, मातंगी, उग्रतारा आदि तांत्रिक शक्तियों की भी उपासना करते हैं । शिव के समान ही शक्ति भी तंत्रशास्त्र की आराध्य देवता होना स्पष्ट होता है ।

४. पुराण की कथाआें के अनुसार देवी के विविध गुण और विशेषताएं

अ. जिज्ञासु और मुमुक्षु की प्रतीक पार्वतीदेवी

यद्यपि पार्वतीमाता शिवजी की अर्धांगिनी हैं, तथापि शिवजी से गूढ ज्ञान प्राप्त करते समय पार्वती की भूमिका किसी जिज्ञासु के समान प्रतीत होती है । तीव्र जिज्ञासावश उन्हें भूख-प्यास और निद्रा का भी भान नहीं रहता । ज्ञानप्राप्ति की लालसा में वे शिवजी से अनेक प्रश्‍न करती हैं । इसलिए पुराणों में शिव-पार्वती का वार्तालाप अथवा उनके मध्य हुए संभाषण का उेख है । पार्वतीजी स्वयं आदिशक्ति हैं; परंतु गुरुसमान शिवजी से ज्ञानार्जन करने के लिए वे जिज्ञासु और मुमुक्षु का साक्षात स्वरूप बन जाती हैं । इसलिए शिवजी ने पार्वती देवी को तंत्रशास्त्र का गूढ ज्ञान प्रदान किया है ।

आ. कठोर तपस्या करनेवाली पार्वतीजी महान तपस्विनी होने
के कारण उन्हें अपर्णा और ब्रह्मचारिणी के नाम से संबोधित किया जाता है ।

ऋषिमुनि जिस प्रकार कठोर तपस्या कर ईश्‍वर को प्रसन्न करते हैं, वैसी ही कठोर तपस्या पार्वतीजी ने शंकरजी को प्रसन्न करने के लिए की थी । पार्वतीजी हिमालय राजा की कन्या और राजकुमारी थीं । वे सुंदर और सुकोमल थीं । शिवजी को प्रसन्न करने का उनका दृढ निश्‍चय था । इसलिए उन्होंने देह की चिंता न करते हुए बर्फ से ढंके हुए प्रांत में विशिष्ट मुद्रा धारण कर दीर्घ काल तक तपस्या की । उनकी तपस्या इतनी उग्र थी कि उससे उत्पन्न ज्वालाएं संपूर्ण ब्रह्मांड में फैल रही थीं और स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त किए हुए तारकासुर को भी भयभीत करनेवाली थीं । पार्वतीजी का वध करने के लिए निकट आए तारकासुर के सैनिकों को उनकी शक्ति सहन नहीं हुई तथा वे भस्मसात हो गए । नवदुर्गा में ब्रह्मचारिणी का रूप हाथ में जपमाला लेकर तापसी वेश धारण किए हुए तपस्यारत पार्वती का ही प्रतीक है । पार्वतीजी को अपर्णा और ब्रह्मचारिणी के नाम से भी संबोधित किया जाता है ।

इ. समस्याआें पर स्वयं ही उपाय ढूंढनेवाली स्वयंपूर्ण पार्वतीदेवी

कैलास पर्वत पर निवासरत पार्वतीदेवी ने स्नान के समय कक्ष पर पहरा देने की सेवा करने के लिए अंतःप्रेरणा से स्वयं के मैल से गणपति की निर्मिति की । यद्यपि सुरक्षा के व्यक्तिगत कारणों से गणपतिजी की निर्मिति की गई थी, तथापि पार्वतीजी के कारण जगत को आराध्य देवता श्री गणेश मिले हैं । देवी कौशिकी की निर्मिति भी ऐसे भाव से ही हुई है । समुद्रमंथन के समय मंदराचल पर्वत ने स्वयं में विष शोषित कर लिया था, उस समय विष के प्रभाव से उसे मुक्त करने के लिए शिवजी के साथ पहुंची पार्वतीजी ने उस पर करुणामय दृष्टि से कृपा की । मंदराचल पर्वत से बाहर निकलनेवाली विषैली वायु शिवशंकर स्वयं शोषित कर रहे थे, तब उसके कुछ अंश का परिणाम पार्वतीजी पर हुआ और वे काली हो गईं । उमा को अपना गौरवर्ण अत्यधिक प्रिय था । पुनः गौर वर्ण प्राप्त करने के लिए उमादेवी ने कठोर तपस्या प्रारंभ की तथा ब्रह्मदेव को प्रसन्न किया । प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें पुनः गौर वर्ण प्रदान किया तथा उसी समय उसके श्यामवर्ण से कौशिकी नामक एक देवी की निर्मिति की । कौशिकी देवी ने आगे शुंभ-निशुंभ नामक दैत्यों का वध किया । इस प्रकार स्वयं के श्यामवर्ण के निमित्त से पार्वतीजी ने संपूर्ण संसार को त्रस्त करनेवाले शुंभ-निशुंभ दैत्यों का संहार करनेवाली देवी की निर्मिति की ।

ई. अधिक संदवेनशीलता और अधिक कठोरता ये विरुद्ध गुण धारण करनेवाली पार्वतीदेवी

जब पार्वतीजी को ज्ञात हुआ कि श्री गणेशजी का शिरच्छेद कर दिया है, तब वे विव्हल होकर रुदन करने लगती हैं और अगले ही क्षण नवदुर्गा का उग्र रूप धारण कर देवताआें को कठोर वचन सुनाती हैं । गणपतिजी को हाथी का मस्तक लगाने के उपरांत पार्वतीजी का उग्र रूप शांत होकर वे उमा का रूप धारण करती हैं । देवी कौशिकी पर प्रहार करने के लिए आए हुए असुरों को दंड देने के लिए पार्वतीजी चंडी, चामुंडा आदि उग्र रूप धारण कर असुरों का संहार करती हैं तथा दूसरे ही क्षण पुत्रीसमान कौशिकीदेवी के प्रेम में चिंतित होकर व्याकुल होती हैं । पार्वतीजी में अधिक संवेदनशीलता तथा अधिक कठोरता ये विरुद्ध गुण एक ही समय प्रबल प्रतीत होते हैं ।

उ. आदिशक्ति का स्वरूप प्रकट कर सभी को प्रताडित करनेवाले दुर्गमासुर और महिषासुर दैत्यों का संहार किया ।

सदैव तपस्वी जीवन व्यतीत करनेवाली और सौम्य रूप धारण करनेवाली पार्वतीदेवी ने आवश्यकतानुसार देवता और ब्रह्मांड को अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से सुरक्षा करने के लिए उग्र रूप धारण किया । ऐसे अनेक उदाहरण पुराणों में मिलते हैं । ब्रह्मदेव से अजेय होने के साथ चारों वेद प्राप्त करनेवाले दुर्गमासुर के कारण धर्म को ग्लानि प्राप्त हो गई थी और सर्वत्र अधर्म प्रबल हो गया था । ऐसी परिस्थिति में देवताआें का बल क्षीण हो गया था । तब दुर्गमासुर को केवल स्त्री शक्ति नष्ट कर सकती थी; क्योंकि अन्य देवताआें से वध न होने का वरदान दुर्गमासुर को प्राप्त था । तब पार्वतीजी ने आदिशक्ति का स्वरूप प्रगट करते हुए श्री दुर्गादेवी का रूप धारण किया और दुर्गमासुर से घनघोर युद्ध कर उसका वध किया । इसी प्रकार अपराजित योद्धा और बलवान आसुरी शक्ति से युक्त महिषासुर का वध करने के लिए पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती इन तीनों देवियों की शक्ति एकत्र होकर महिषासुरमर्दिनी देवी की उत्पत्ति हुई । मायावी शक्ति की सहायता से युद्ध करनेवाले महिषासुर को पराजित कर देवी ने उसका शिरच्छेद किया । उसी प्रकार पार्वती ने चामुंडा रूप धारण कर चंड-मुंड इन दैत्यों का संहार किया और काली का रूप धारण कर असंख्य असुरों का वध कर देवताआें को अभयदान दिया ।

ऊ. करुणामय देवी ने पृथ्वी के जीवों के लिए शताक्षी और शाकंभरी रूप धारण कर कृपा की ।

दुर्गमासुर वेदों को पाताल में ले गया तथा उसने उन्हें बंदी बनाया, जिससे धर्म लुप्त हो गया । यज्ञयाग और उपासना खंडित होने के कारण देवताआें को उनका हविर्भाग मिलना रुक गया । इसलिए देवताआें की शक्ति भी क्षीण हो गई । देवताआें की पृथ्वी पर कृपावर्षा रुक गई, जिससे पृथ्वी पर भीषण अकाल पड गया । नदी, झरने, जल स्रोत सूख गए । पृथ्वी के जीवों की दुर्दशा देखकर महिषासुरमर्दिनी माता की आंखों में पानी आ गया और उससे शताक्षी देवी की उत्पत्ति हुई । सौ लोचन अर्थात सौ आंखे धारण किए हुए इस देवी की आंखों से बहनेवाली अश्रुधारा पृथ्वी पर पहुंची और उन्होंने नदियों का रूप धारण किया । इस प्रकार सर्वत्र जल उपलब्ध हुआ । तत्पश्‍चात देवी के अंश से शाकंभरी देवी की उत्पत्ति हुई, जिनकी कृपा से पृथ्वी पर सर्वत्र शाक अर्थात हरी सब्जियां तथा अन्य सब्जियां उत्पन्न की गईं । इस प्रकार पृथ्वी के जीवों के लिए पानी और शाक उपलब्ध होकर पृथ्वी को अकाल के संकट से मुक्ति मिली ।

 

५. माता सरस्वती ने देवताआें की सहायता की

अ. ब्रह्मदेव से वरदान प्राप्त करते समय कुंभकर्ण को इंद्रासन मांगना था; परंतु देवताआें की प्रार्थना से महासरस्वती कुंभकर्ण की जीभ पर विराजमान हुई थीं । इसलिए कुंभकर्ण ने इंद्रासन के स्थान पर निद्रासन का वरदान मांग लिया ।

आ. तारकासुर के तीन तारक पुत्रों को पराजित कैसे करें ?, ऐसा प्रश्‍न समस्त देवताआें के सामने खडा हो गया, तब श्रीहरि विष्णु ने उन्हें धर्मविमुख होने हेतु प्रवृत्त करने का उपाय बताया । माता सरस्वती ने नारदजी को उन्हें धर्मविमुख करने हेतु मार्गदर्शन किया एवं देवताआें की सहायता की ।

 

६. माता लक्ष्मी ने देवताआें की सहायता की

शिवजी के अंश से और समुद्र से उत्पन्न हुआ जालंधर दैत्य देवताआें को त्रस्त करने लगा । माता लक्ष्मी का जन्म भी समुद्रमंथन से हुआ था, इस नाते से जालंधर लक्ष्मीदेवी का छोटा भाई था; परंतु वह देवताआें को त्रस्त कर रहा था तथा उसके मन में पार्वतीजी के संबंध में कामवासना के अधर्मी विचार थे । इसलिए लक्ष्मी माता ने श्रीहरी विष्णु से उसका नाश होने की कामना व्यक्त की थी । इससे यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्मीदेवी तत्त्वनिष्ठ हैं तथा उन्होंने स्वयं के अधर्मी भाई का पक्ष न लेते हुए देवताआें के पक्ष में निर्णय करते हुए स्वयं का धर्मकर्तव्य पूर्ण किया एवं संसार के सामने आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया ।

 

७. दुर्गामाता द्वारा देवताआें को की गई सहायता

त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम ने नवरात्रि की अवधि में देवी की उपासना की और देवी के कृपाशीर्वाद से ही विजयादशमी को रावण का वध किया । द्वापार युग में भी भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने महाभारत युद्ध आरंभ होने से पूर्व श्री दुर्गादेवी की शरण में जाकर प्रार्थना की । श्री दुर्गादेवी ने प्रसन्न होकर अर्जुन को विजयश्री का आशीर्वाद दिया । श्री दुर्गादेवी की कृपा से कवच धारण कर अर्जुन ने महाभारत का युद्ध किया तथा विजय प्राप्त की ।
देवी से संबंधित ऋषि और राजा : त्वष्टा ऋषि, मार्कंडेय ऋषि देवी के उपासक ऋषि थे तथा भक्त सुदर्शन शक्ति उपासक राजा था । सामान्य जनों में त्र्यंबकराज, नवीनचंद्र ये देवी के परम भक्त थे । – (संदर्भ : भक्तमाल)

 

८. कलियुग में विविध संतों द्वारा की गई देवी की उपासना

अ. आदिशंकराचार्य द्वारा की गई देवी की उपासना

आदि शंकराचार्यजी ने त्रिपुरसुंदरी देवी की उपासना की थी तथा उन पर मुकांबिका देवी और सरस्वती देवी का वरदहस्त था । उन्होंने तीन वर्ष की आयु में देवी भुजंगस्तोत्र की रचना की तथा विविध प्रकार से देवी का वर्णन किया । उन्होंने ब्रह्मसूत्रादि विपुल लेखन किया तथा देवी की उपासना पर आधारित सौंदर्यलहरी नामक ग्रंथ की रचना की । माता सरस्वती ने आदि शंकराचार्यजी को कश्मीर स्थित शारदा पीठ पर स्थानापन्न होने का आदेश दिया था । संपूर्ण भारतभ्रमण करते समय अन्नपूर्णा देवी आदि शंकराचार्यजी की क्षुधा पूर्ति करती थीं । इस प्रकार आदि शंकराचार्यजी पर देवी की कृपा थी, ऐसे प्रमाण उनके चरित्र से मिलते हैं ।

आ. शत्रु के नियंत्रण से सकुशल बाहर निकलने के
लिए छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री बगलामुखी देवी का याग किया

हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज की कुलदेवी तुलजापुर की श्री भवानीदेवी थीं । जय भवानी और हर हर महादेव के नारे लगाते हुए छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके मावले शत्रु से युद्ध कर रहे थे । शत्रु से युद्ध करने के लिए ही श्री भवानीमाता ने प्रसन्न होकर शिवाजी महाराज को भवानी तलवार प्रदान की थी । इसी तलवार के बल पर उन्होंने शाहिस्तेखान की उंगलियां काटी थीं और अनेक शत्रुआें को मराठी तलवार का बल दिखाया था । छत्रपति शिवाजी महाराज जीर्ण देवालयों का जीर्णोद्धार करते थे और मंदिरों की सुव्यवस्था हेतु निधि देते थे । देवताआें की उपासना के अंतर्गत उन्होंने समय-समय पर विविध प्रकार के यज्ञयाग भी किए थे । मिर्जा राजा जयसिंह ने शिवाजी महाराज को पराजित कर उन्हें बंदी बनाने के लिए सहस्र चंडी याग किए । इसका उद्देश्य था शिवाजी महाराज को बंदी बनाने के लिए न्यूनतम इतना पुण्य तो उनके पास होना चाहिए । बहिरजी नाईक नामक गुप्तचर प्रमुख से शिवाजी महाराज को यह जानकारी मिली, तब उसकी काट करने के लिए छत्रपति ने तुरंत श्री बगलामुखीदेवी का याग किया । तत्पश्‍चात शिवाजी महाराज और मिर्जा राजा की प्रत्यक्ष भेंट हुई और समझौता हुआ । तत्पश्‍चात औरंगजेब से मिलने जाने पर उसने उन्हें फंसाकर आगरा में बंदी बनाया । तब फल और मिठाई की टोकरी में छिपकर शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज किले से बाहर शत्रु के नियंत्रण से बाहर निकल गए । श्री बगलामुखीदेवी की कृपा से छत्रपति कारागृह से सकुशल मुक्त हो सके । (यह कथा सनातन के संत पू. विनय भावेजी ने बताई है ।)

इ. सनातन संस्था द्वारा कालानुसार आवश्यक बताई गई शक्ति उपासना

सनातन संस्था कालानुसार आवश्यक देवी की उपासना करना सिखाती है । यहां श्री दुर्गादेवी का नामजप करने हेतु कहा जाता है । इस उपासना में श्री दुर्गादेवी और श्री लक्ष्मीदेवी का बनाया हुआ सात्त्विक चित्र और नामजप पट्टियों का उपयोग करने हेतु कहा जाता है । देवीतत्त्व से युक्त कुमकुम भी उत्पादनों में उपलब्ध करवाया गया है । देवीतत्त्व की अधिक जानकारी के लिए देवी की उपासना से संबंधित ‘शक्ति का परिचयात्मक विवेचन’, ‘शक्ति की उपासना’ ये ग्रंथ तथा ‘शक्ति’ और ‘देवीपूजनका अध्यात्मशास्त्र’ ये दो लघुग्रंथ भी उपलब्ध है । कालानुसार आवश्यक श्री दुर्गादेवी की मूर्ति भी बनाई जा रही है । सनातन के आश्रमों में दिन में दो बार महर्षि के बताए अनुसार देवीकवच लगाया जाता है ।

ई. प.पू. डॉक्टरजी का भी कालानुसार देवी की उपासना करना

प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष में एक महान संत द्वारा दिया गया देवी का श्रीयंत्र और महर्षि द्वारा भेजा हुआ श्री वाराहीदेवी का चित्र स्थापित किया गया है । प.पू. डॉक्टरजी उनकी नियमित पूजा करते हैं ।

उ. संत और महर्षि द्वारा बताई गई शक्ति उपासना

सनातन के रामनाथी आश्रम के ध्यानमंदिर में श्री भवानीदेवी की पाषाण से बनी हुई मूर्ति स्थापित की गई है । एक संत द्वारा भेजी गई पंचधातु की सिंहवाहिनी श्री दुर्गादेवी की मूर्ति और देवी के यंत्रों की स्थापना ध्यानमंदिर में की गई है तथा उनकी नियमित पूजा की जाती है । आश्रम के प्रवेश द्वार पर श्री बगलामुखीदेवी की प्रतिमा स्थापित की गई है तथा महर्षि के बताए अनुसार आश्रम में अभी तक तीन बार श्री बगलामुखी याग संपन्न हुआ है ।

– कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२६.९.२०१६)

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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