चंडीविधान (पाठ एवं हवन)

 

श्री दुर्गादेवी

नवरात्रि की कालावधि में श्री सप्तशती का पाठ किया जाता है एवं उसकी समाप्ति पर हवन किया जाता है । इसे ‘चंडीविधान’ कहते है । इस विषय में इस लेख में जानकारी लेेंगे ।

१. चंडीविधान का अर्थ

श्री दुर्गादेवी का एक नाम है चंडी । मार्कडेय पुराण में चंडी देवी का माहात्म्य बताया गया है, जिसमें उसके अवतारों का एवं पराक्रमों का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसमें से लगभग सात सौ श्लोकों को एकत्र कर श्री सप्तशती नामक एक ग्रंथ देवी की उपासना के लिए अलग से बनाया गया है । ऐसा कहा गया है कि सुख, लाभ, जय इत्यादि अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए इस सप्तशती का पाठ करना चाहिए । यह पाठ विशेषतः आश्विन मास की नवरात्रिमें करते हैं । कुछ घरानों में ऐसा कुलाचार भी होता है । पाठ करने के उपरांत हवन करना भी आवश्यक है । इन सबको मिलाकर ‘चंडीविधान’ कहते हैं ।

 

२. चंडीविधान के प्रकार

अ. नवचंडी

नौ दिन प्रतिदिन सप्तशती का पाठ और उसके दशांश से हवन करते हैं, जिसे नवचंडी कहते हैं । अनुष्ठान के एक भाग के रूप में नौ दिन एक कुमारी की पूजा करते हैं अथवा पहले दिन एक, अगले दिन दो, ऐसे बढते क्रम में कुमारियों की पूजा करते हैं ।

आ. शतचंडी

इस विधान में सप्तशती के सौ पाठ करते हैं । पाठ के आद्यंत नवार्णव मंत्र का सौ-सौ बार जप करते हैं । इस प्रकार किए गए पाठ को ‘संपुटित पाठ’ कहते हैं । पहले दिन एक, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन एवं चौथे दिन चार, इस प्रकार बढते क्रम में दस ब्राह्मणोें द्वारा पाठ किए जाने पर सौ चंडीपाठ पूर्ण होते हैं । यह पूर्ण हो जाने पर पांचवें दिन दशांश हवन करते हैं ।

इ. सहस्रचंडी

राज्यनाश, महाउत्पात, महाभय, महामारी, शत्रुभय, रोगभय इत्यादि संकटों के निवारण हेतु सहस्रचंडी का पूजन करते हैं । इसमें सौ ब्राह्मणों को बुलाकर सप्तशती के एक सहस्र पाठ करते हैं ।

ई. लक्षचंडी

सप्तशती के एक लाख पाठ एवं उसके साथ की जानेवाली अन्य विधियों को लक्षचंडी कहते हैं ।

३. विविध पद्धति

श्री दुर्गासप्तशती के उपासक इसका पाठ उलटे, सीधे, सपल्लव, संपुट पद्धतियों से करते हैं । विशिष्ट कामना हेतु विशिष्ट पाठ करते हैं ।

४. इच्छानुसार प्रार्थना

श्री दुर्गासप्तशती में, आगे दिए अनुसार कुछ विशिष्ट कामनाओं की पूर्ति के लिए विशिष्ट श्लोकों की रचना की गई है ।

अ. सुलक्षिणी पत्नी की प्राप्ति के लिए

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारात् सागरस्य कुलोद्भवाम् ।।

अर्थ : मुझे मनोरमा, मेरी इच्छा के अनुसार व्यवहार करनेवाली, कठिन संसार सागर से पार करानेवाली एवं श्रेष्ठ कुल की सुलक्षिणी पत्नी प्राप्त हो ।

आ. सर्वांगीण कल्याण के लिए

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।

अर्थ : सर्व मंगलकारी वस्तुओं में विद्यमान मांगल्यरूप देवी, कल्याणदायिनी देवी, सर्व पुरुषार्थों को साध्य करानेवाली देवी, शरणागतों की रक्षा करनेवाली देवी, त्रिनयना, गौरी, नारायणी ! आपको मेरा प्रणाम ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शक्ति की उपासना’

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