श्राद्ध के भोजन का अध्यात्मशास्त्र

इस लेख में हम कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर तथा उनका आधारभूत शास्त्र समझने का प्रयत्न करेंगे; जैसे ‘ब्राह्मणों को परोसा गया अन्न पितरों तक कैसे पहुंचता है ?’ ‘श्राद्ध में पितरों को अर्पित अन्न उन्हें कितने समय तक पर्याप्त होता है ?’ इत्यादि ।

 

१. ब्राह्मणभोज

१ अ. ब्राह्मण द्वारा ग्रहण किया गया अन्न पितरों को कैसे पहुंचता है ?

१. ‘श्राद्धादि कर्मों में मंत्रोच्चारण से ब्राह्मण (पुरोहित) की देह में स्थित ब्राह्मतेज जागृत होता है । ऐसे पुरोहित जब पितरों का आवाहन और विश्वेदेवों से प्रार्थना कर उनके अन्नोदक (पिंड) पर अभिमंत्रित जल छोडते हैं; तब उस पिंड से सूक्ष्म-वायु मुक्त होती है, जो पितरों को मिलती है ।

२. जिसका ब्राह्मतेज जागृत हो, ऐसा पुरोहित जब पितरों का नाम लेकर उन्हें भोजन अर्पित करता है, तब उसे, श्राद्धकर्ता व्यक्ति और पितरों को पुण्य मिलता है । इसके अतिरिक्त, पुरोहितों का आशीर्वाद भी पितरों को मिलता है, जिससे उनकी गति और बढ जाती है । 

३. अधिकतर लोग समझते हैं कि पितरों के नाम से ब्राह्मण-भोजन कराना हमारा कर्तव्य है । परंतु, ऐसा विचार न कर, यह मानना चाहिए कि ‘ब्राह्मणों के माध्यम से प्रत्यक्ष पितर ही भोजन कर रहे हैं ।’ ऐसा सोचने पर, ब्रह्मभोज से संतुष्ट ब्राह्मणों की देह से आशीर्वाद की जो तरंगें निकलती हैं, उससे पितरों को शक्ति मिलती है ।

ब्राह्मणभोज का चलचित्र – भाग ३

 

ब्राह्मणभोज का चलचित्र -भाग ४

 

२. श्राद्ध करते समय पितरों के नाम एवं
गोत्र का केवल उच्चारण करने से श्राद्ध का हव्य (भोजन) उन्हें कैसे मिलता है ?

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, ‘जहां शब्द है, वहां उसकी  शक्ति, स्पर्श, रूप, रस और गंध भी रहती है ।’ कोई भी वस्तु, सूक्ष्म पंचतत्त्व-तरंगों का घनीभूत रूप है । प्रत्येक वस्तु शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से युक्त तथा पंचतत्त्वों की सहायता से बनी होती है । श्राद्धकर्म में पितरों के नाम एवं गोत्र का उच्चारण करने से वायुमंडल में जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे मंत्रों की सहायता से गतिमान होती हैं और वायुमंडल में भटकनेवाली उन लिंगदेहों के वासनामय कोष में प्रवेशकर उन्हें श्राद्धस्थल पर लाती हैं, जिनका नाम मंत्रोच्चार में लिया गया होता है । इस प्रकार, विशिष्ट नाम और गोत्र के पितर श्राद्धस्थल पर विशिष्ट मंत्रशक्ति से आकर्षित होकर आते हैं और श्राद्ध का भोजन कर, तृप्त होते हैं । पितरों की नामध्वनियों से वायुमंडल में जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, उन्हें श्राद्ध में बोले जानेवाले मंत्रों से ऊर्जा मिलती है । तब, इन ऊर्जायुक्त तरंगों का सूक्ष्म प्रभाव वायुमंडल पर पडता है, जिससे पितर वायुरूप अथवा स्पर्शरूप में हव्य ग्रहण करने के लिए बाध्य होते हैं ।’

– एक विद्वान श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १२.८.२००५, सायं. ५.४६़

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, ‘जहां शब्द है, वहां उसकी शक्ति, स्पर्श, रूप, रस और गंध भी रहती है ।’ कोई भी वस्तु, सूक्ष्म पंचतत्त्व-तरंगों का घनीभूत रूप है । प्रत्येक वस्तु शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से युक्त तथा पंचतत्त्वों की सहायता से बनी होती है । श्राद्धकर्म में पितरों के नाम एवं गोत्र का उच्चारण करने से वायुमंडल में जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे मंत्रों की सहायता से गतिमान होती हैं और वायुमंडल में भटकनेवाली उन लिंगदेहों के वासनामय कोष में प्रवेशकर उन्हें श्राद्धस्थल पर लाती हैं, जिनका नाम मंत्रोच्चार में लिया गया होता है । इस प्रकार, विशिष्ट नाम और गोत्र के पितर श्राद्धस्थल पर विशिष्ट मंत्रशक्ति से आकर्षित होकर आते हैं और श्राद्ध का भोजन कर, तृप्त होते हैं । पितरों की नामध्वनियों से वायुमंडल में जो तरंगें उत्पन्न होती हैं, उन्हें श्राद्ध में बोले जानेवाले मंत्रों से ऊर्जा मिलती है । तब, इन ऊर्जायुक्त तरंगों का सूक्ष्म प्रभाव वायुमंडल पर पडता है, जिससे पितर वायुरूप अथवा स्पर्शरूप में हव्य ग्रहण करने के लिए बाध्य होते हैं ।’

– एक विद्वान श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १२.८.२००५, सायं. ५.४६़

 

३. श्राद्ध में अर्पित अन्न पितरों के लिए कितने काल तक पर्याप्त होता है ? 

श्राद्ध के भोजन का संपर्क जब मंत्रोच्चार से उत्पन्न तेजतत्त्व की तरंगों से होता है, तब उस भोजन से तेजस्वी सूक्ष्म-वायु प्रक्षेपित होती है, जिसके स्पर्श से पितरों के लिंगदेह के वासनामयकोष में स्थित रज-तम कणों का कुछ मात्रा में उच्चाटन होता है । इससे उन लिंगदेहों का भार कुछ घट जाता है और उन्हें हलकापन अनुभव होता है । इससे, उन्हें आगे जाने के लिए गति मिल जाती है । यह महत्त्वपूर्ण उद्देश्य अन्न से साध्य होता है । इसलिए, इस यह पूछना निरर्थक है कि ‘श्राद्ध मेंदिया गया अन्न पितरों को कितने काल तक पर्याप्त होता है ?’ इससे यह ज्ञात होता है कि जब पितर श्राद्ध में अन्नग्रहण करते हैं, तब उनके सूक्ष्म शरीर (लिंगदेह) में सूक्ष्म-प्रक्रिया होती है । इस प्रक्रिया में श्राद्ध की तेजोमय तरंगों से अन्न-संबंधी संस्कारों का, जो रज-तम कणों से बने होते हैं, विघटन होता है ।’

– एक विद्वान श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १३.८.२००६, दोपहर १२.२१़

 

४. श्राद्ध का भोजन करनेवाला स्वाध्याय कलह आदि कृत्य क्यों न करें ?

‘श्राद्ध का भोजन अशुभ माना गया है । श्राद्ध का भोजन पितरों के नाम से किए गए आवाहनात्मक मंत्रों से प्रभारित होता है । इसलिए, वह वासनामय, अर्थात रज-तम से युक्त होता है । इसके अतिरिक्त, लिंगदेहों के आगमन से वातावरण भी दूषित हो जाता है । इसलिए, श्राद्ध का भोजन ग्रहण करनेवाले जीव को कष्ट होने की संभावना अधिक रहती है । धर्मशास्त्र में श्राद्ध का भोजन करने के विषय में कुछ नियम बताए गए हैं । इन नियमों का पालन कर, इस कष्ट से बचा जा सकता है अथवा उसका प्रभाव घटाया जा सकता है । कितनी अच्छी और अद्भुत व्यवस्था हिन्दू धर्म में की गई है !

४ अ. स्वाध्याय (माया का विचार)

स्वाध्याय, अर्थात अपने कर्मों का चिंतन करना । मनन की तुलना में चिंतन अधिक सूक्ष्म होता है । अतः, चिंतन से जीव की देह पर विशिष्ट गुण का संस्कार दृढ होता है । सामान्य जीव रज-तमात्मक माया-संबंधी कार्यों का ही अधिक चिंतन करता है । इससे, उसके सर्व ओर रज-तमात्मक तरंगों का वायुमंडल निर्मित होता है । यदि ऐसे संस्कारों के साथ हम भोजन करने श्राद्धस्थल पर जाएंगे, तो वहां के रज-तमात्मक वातावरण का अधिक प्रभाव हमारे शरीर पर होगा, जिससे हमें अधिक कष्ट हो सकता है ।  यदि कोई व्यक्ति साधना करता है, तो श्राद्ध का भोजन करने से उसके शरीर में सत्त्वगुण की मात्रा घट सकती है । इसलिए, आध्यात्मिक  दृष्टी से श्राद्ध का भोजन लाभदायक नहीं होता है ।

 ४ आ. कलह

कलह से मनोमयकोष में रज-तम की मात्रा बढ जाती है ।

४ इ. दिन में सोना

नींद तमप्रधान होती है । इससे हमारी थकान अवश्य मिटती है, पर शरीर में तमोगुण भी बढता है ।

४ ई. श्राद्ध का भोजन करने पर उस दिन पुनः भोजन करना

श्राद्ध का रज-तमात्मक भोजन ग्रहण करने पर, उसकी सूक्ष्म-वायु हमारी देह में घूमती रहती है । ऐसी अवस्था में जब हम पुनः भोजन करते हैं, तब उसमें यह सूक्ष्म-वायु मिल जाती है । इससे, इस भोजन से हानि हो सकती है । इसीलिए, हिन्दू धर्म में बताया गया है कि उपरोक्त कृत्य टालकर ही श्राद्ध का भोजन करना चाहिए ।’ 

– एक विद्वान श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळ के माध्यम से, ४.८.२००५, दोपहर ३.५४़

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग २) श्राद्धविधि का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’

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