निर्माण-कार्य की सेवा करते समय डॉ. भोसले को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से सीखने के लिए मिले अनमोल सूत्र !

मैंने वर्ष २००७ में तीन महीने सनातन के रामनाथी स्थित आश्रम में निर्माण-कार्य सेवा की थी । तब सनातन आश्रम के तीसरे तल का निर्माण हो रहा था । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी प्रतिदिन सवेरे ७ बजे निर्माण-कार्य का निरीक्षण करने आते थे । उस समय उनके बताए हुए सुधार, निर्देश और चूकें मैंने लिख ली थीं । जब मैं निर्माण-कार्य सेवा कर रहा था, तब तब मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से जो सीखने को मिला, वह बता रहा हूं ।

निर्माण-कार्य स्थल पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी

 

१. छोटे-छोटे प्रसंगों में साधकों के हित का विचार करना

परम पूज्य (प.पू.) गुरुदेव के मन में प्रत्येक छोटे-छोटे प्रसंगों में साधकों के हित का विचार निरंतर चलता रहता है । जब निवासी कक्ष बनाए जा रहे थे, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा, ‘‘सब कक्षों का निर्माण एक साथ न करें । पहले किनारे का कक्ष पूरा बनाएं । ऐसा करने से, निवास के लिए उनका उपयोग हो पाएगा । उसमें रहनेवाले साधक खिडकी से बाहर का दृश्य देख पाएंगे ।’’ इस प्रसंग से प्रतीत हुआ कि ‘साधकों को रहने के लिए कक्ष शीघ्रातिशीघ्र मिलें और वे खिडकी से बाहर का प्राकृतिक दृश्य देखकर आनंदित हों’, यह विचार गुरुदेव के मन में था ।

 

२. आश्रम का परिसर स्वच्छ रखने के लिए
 बताकर, मन पर स्वच्छता का महत्त्व अंकित करना

निर्माण-कार्य के स्थान पर कागद, प्लास्टिक और पुट्ठों के टुकडे यहां-वहां बिखरे रहते थे । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी निर्माण परिसर में फैला कूडा इकट्ठा कर, कूडापेटी में डालने के लिए कहते रहते थे । वे कहते, ‘‘कूडे से कष्टदायक स्पंदन निकलते हैं । इससे साधकों की कार्यक्षमता घटती है । कार्यक्षमता घटने से सेवा की फलोत्पत्ति घटती है ।’’

 

३. परात्पर गुरु का प्रत्येक कार्य अचूक होना

जिस प्रकार ईश्वर प्रत्येक कार्य अचूक करता है, उसी प्रकार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी प्रत्येक कार्य अचूक करते हैं । इससे हमें भी वैसा करना चाहिए, यह सीखने के लिए मिला । प.पू. गुरुदेव सदैव कहते थे कि ‘द्वार को पट्टी, सिटकनी, और खटका लगाना, उन्हें रंग से पोतना, स्नानघर में पटिया बैठाना इत्यादि कार्य अचूक होने चाहिए । सेवा उत्तम होने के लिए जो-जो आवश्यक है, वह करना ही चाहिए, वहां समझौता नहीं करना चाहिए । क्योंकि सेवा यदि अचूक और उत्तम नहीं होगी, तब घर कितना भी अच्छा दिखाई दे, उसके स्पंदन अच्छे नहीं होंगे ।’’ इस प्रसंग में मुझे सीखने को मिला कि जिस प्रकार ईश्वर एक वृक्ष के सभी फूलों में पंखुडियों की संख्या और उनका रंग समान रखता है, उसी प्रकार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी प्रत्येक कार्य अचूक करते हैं ।

 

४. कक्ष में रहनेवाले साधकों को सब सुविधा मिले, किसी प्रकार की असुविधा
न हो, इस बात का परात्पर गुरु. डॉ. आठवलेजी द्वारा सदैव ध्यान रखना

साधकों के लिए जब निवास-कक्षों का निर्माण हो रहा था, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने हमें निम्नांकित बातें बताईं –

अ. स्नानघर में कपडे सुखाने के लिए रस्सी बांधनी चाहिए । निवासकक्ष में तौलिया और बडे कपडे सुखाने के लिए तीन रस्सियां बांधनी चाहिए ।

आ. हैंगर पर कपडे टांगने हेतु लोहे की कपाटिका में डंडा (रॉड) होना चाहिए ।

 

५. प.पू. गुरुदेवजी की ‘मितव्ययता’

अ. द्वार की ध्वनि से नींद न टूटे, इसके लिए उसे महंगी सिटकनी लगाने
के स्थान पर, ‘कृपया द्वार न खोलें’, यह लिखा कागद द्वार पर चिपकाने के लिए कहना

प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष के द्वार को लोहचुंबक लगा होने से द्वार बंद करते समय ध्वनि होती थी । इससे उनकी नींद टूट जाती थी । उनकी नींद न टूटे, इसके लिए द्वार धीरे से बंद करनेवाली विशेष व्यवस्था करने की बात मैं सोच रहा था । तब प.पू. गुरुदेव ने कहा, ‘‘ऐसी व्यवस्था बहुत महंगी होती है । इसके स्थान पर, ‘प.पू. डॉक्टरजी भीतर विश्राम कर रहे हैं’, यह लिखा कागज द्वार पर चिपका दीजिए ।’’

आ. कबाड में पडे सीमेंट की खाली बोरियां एकत्र कर और
भंगार में बेचने के लिए उन्हें ठीक से तह कर रखने के लिए बताना

निर्माण-कार्य में सीमेंट का उपयोग होने के पश्चात उसकी खाली बोरियां श्रमिक इधर-उधर फेंक देते थे । इससे वे खराब हो जाते थे । सवेरे जब प.पू. गुरुदेव निर्माण-कार्य का निरीक्षण करने आए, तब उन्हें ये बोरियां इधर-उधर पडी दिखाई दीं । उन्होंने इन बोरियों को ठीक से तह कर रखने के लिए कहा और यह भी कहा कि ‘प्रत्येक खाली बोरी का मूल्य भंगार में १ रुपया है । हम इन्हें भंगार में बेच सकते हैं ।’’ उपर्युक्त प्रसंग में मुझे उनसे सीखने के लिए मिला कि ‘पैसे अनावश्यक नहीं व्यय करने चाहिए ।’

 

६. बिखरी हुई वस्तुएं देखकर गुरुदेव का यह कहना,
 ‘साधकों को आश्रम अपने घर जैसा लगना चाहिए !’

सवेरे निर्माण-कार्य का निरीक्षण करते समय प.पू. गुरुदेव को निर्माण-कार्य की वस्तुएं – लकडी के पटरे, द्वार की चौखटें, सीमेंट की खाली बोरियां आदि बिखरी दिखाई दीं । तब उन्होंने कहा, ‘‘साधकों को जैसे घर अपना लगता है, उसी प्रकार आश्रम अपना लगना चाहिए । तभी साधक प्रत्येक वस्तु की देखभाल ठीक से करेंगे और ‘जो दिखाई दे, वह कर्तव्य’ इस उक्ति के अनुसार आचरण करेंगे ।’’

 

७. प.पू. गुरुदेव का प्रत्येक बात की ओर ध्यान रहना 

कुछ लकडी की वस्तुएं, उदा. द्वार, चौखटा, खिडकियां, बाहर की ओसारे में रखे गए थे । ठंड के दिनों में रात में ओस पडती है । इससे लकडी की ये वस्तुएं खराब हो सकती हैं, यह बात हमारे ध्यान में नहीं आई । सवेरे जब निर्माण-कार्य देखने प.पू. गुरुदेव वहां आए, तब उन्होंने हमारी यह चूक मेरे ध्यानमें लाई और कहा, ‘‘लकडी की वस्तुएं ओस से खराब न हों, इसके लिए उन्हें फ्लेक्स से ढंककर रखिए ।’’ इस प्रसंग में मैंने प.पू. गुरुदेव से सीखा कि प्रत्येक बात का पूरा विचार करना चाहिए ।

 

८. निर्माण-कार्य में हुई चूकों के लिए दायित्वशील
साधक ही उत्तरदायी है, यह प.पू. गुरुदेव ने साधक को बताना

आश्रम में जब निवासकक्षों का निर्माण-कार्य हो रहा था, तब कुछ चूकें भी हो रही थीं । उदा. द्वार की कडी व्यवस्थित न लगाना, स्नानघर की पटिया ठीक से न बैठाना, कक्ष की रंग-पोताई अच्छी न होना इत्यादि । इस विषय में बताने पर उन्होंने कहा, ‘निर्माण-कार्य का दायित्व जिस साधक का है, उसे इसमें होनेवाली चूकों का दायित्व भी लेना चाहिए ।’ इससे मेरा अहं घटा और मुझे सीखने को मिला कि ‘प्रत्येक सेवा उचित ढंग से होने के लिए उस ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है ।’

 

९. प.पू. गुरुदेव का निर्माण-कार्य की छोटी-छोटी बातें सिखाना

मैं जब निर्माण-कार्य की सेवा में था, तब इस क्षेत्र की कुछ बातें मुझे परम पूज्य गुरुदेव ने सिखाईं । इसके कुछ उदाहरण आगे दे रहा हूं ।

अ. स्नानघर की भीत की सबसे ऊपर की पटिया से ६ इंच नीचे तौलिया टांगने के लिए लोहे का डंडा (रॉड) लगाना चाहिए ।

आ. भूमि पर बैठाई जानेवाली पूरी पटिया पॉलिश करने के पश्चात ही स्कर्टिंग’(दीवार पर भूमि से ६ इंच ऊपर तक बैठाई जानेवाली पटरियां)लगानी चाहिए।क्योंकि ‘स्कर्टिंग’ पहले करने पर,भूमि की पटिया को पॉलिश करते समय पॉलिश का पत्थर स्कर्टिंग को लगता है,जिससे उसपर खरोंचें आती हैं ।

इ. स्नानघर और शौचालय में पटिया बैठाते समय भूमि और भीत की पटिया की खडी-आडी रेखाआें का एक-दूसरे से मिलान होना चाहिए ।

ई. स्नानघर में चार पटिया के कोने जहां मिलते हैं और जहां जोड ‘+’ चिन्ह-जैसा आकार होता है, वहां पानी का नल लगाना चाहिए ।

‘हे गुरुदेव ! आप ही ने मुझे साधक बनाने के लिए निर्माण-कार्य की सेवा के माध्यम से साधना की विविध बातें सिखाईं ।’ इसके लिए मैं आपके चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता अर्पित करता हूं !

– डॉ. भिकाजी भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

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