साधकों को कभी विनोद की भाषा में, तो कभी गंभीरता से अध्यात्म सिखानेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी !

प.पू. भक्तराज महाराज (प.पू. बाबा) भक्तों को विनोद की भाषा में अध्यात्म से संबंधित कुछ न कुछ सिखाते थे । उसी प्रकार प.पू. डॉक्टरजी भी साधकों को विनोद की भाषा में सिखाते हैं । संत और गुरु का वाक्य ब्रह्मवाक्य होता है और वह समष्टि को कुछ सिखाता है । ऐसे ही कुछ विनोद सेवा करते समय शीव आश्रम में भी होते थे । वे प्रसंग नीचे दिए हैं । उनकी ओर विनोद स्वरूप न देखें । उनमें से प्रत्येक सीख सकता है और उसका उपयोग साधना के लिए कर सकता है ।

१. व्यावहारिक व्यक्ति के भी कल्याण का विचार करनेवाले जगद्गुरू प.पू. डॉक्टर !

 

१ अ. भीत (दीवार)पर लकडी का फट्टा ठोंकने के लिए
बाहर से बढई आना और उसने फट्टा ठोंकते समय प.पू. डॉक्टरजी की सूचनाआें की अनदेखी करना

एक बार शीव आश्रम में सामग्री रखने के लिए भीत पर (दीवार पर) लकडी का फट्टा ठोंकना था । उसके लिए एक साधक के बढई मित्र को बुलाया गया था । वह जब फट्टा ठोंक रहा था, तब प.पू. डॉक्टरजी बीच-बीच में आकर उसे कुछ सूचनाएं दे रहे थे, भीत पर बडी कील ठोंके जिससे फट्टा सामग्री का भार सह सके । उसने सूचना का विचार न करते हुए अंग्रेजी में प.पू. डॉक्टरजी से डोन्ट वरी, बी हैप्पी ऐसे कहा । उस समय हमने उसके कान में धीरे से कहा, उनसे ऐसे मत बोलो, वे जैसा कह रहे हैं, वैसा करो । तब भी उसका बोलना चालू ही था ।

१ आ. फट्टा ठोंकने के पश्‍चात उस पर सामग्री रखने पर वह फट्टा कील सहित उखडना

प.पू. डॉक्टर रुष्ट न होते हुए उसकी ओर देखकर स्मितहास्य कर रहे थे । जैसे उन्हें आगे घटनेवाली घटना की जानकारी थी । फट्टा ठोंकने के पश्‍चात प.पू. डॉक्टरजी ने साधकों को उस पर सामग्री रखने हेतु कहा । दो साधक सामग्री रखने लगे । अन्य साधक अपनी सेवा करने चले गए । फट्टे पर दो, तीन बक्से रखते ही कर्रर्रऽऽ ऐसी ध्वनि हुई और कुछ पता चलने से पहले ही धडाम की आवाज के साथ वह फट्टा कील सहित उखडकर नीचे सेवा कर रहे साधक पर गिर पडा था ।

१ इ. प.पू. डॉक्टरजी का बढई की ओर देखकर हंसना और उसे उसके ही शब्दों में बताना

हमने उस साधक के ऊपर गिरा हुआ सामान हटाया तथा उसे बाहर निकाला । आवाज सुनकर प.पू. डॉक्टरजी भी वहां पहुंचे और बोले क्या हुआ ? कैसी आवाज आई ? हमने कहा फट्टे पर सामग्री रखी, तब वह कील सहित उखडकर साधक पर गिर पडा । उन्होंने पूछा लगा तो नहीं ? हमारे मना करने पर वे उस बढई की ओर देखकर बोले डोन्ट वरी. बी हैप्पी और हंसने लगे । उस बढई का मुख देखने योग्य हो गया था ।

१ ई. बढई को भी साधना का दृष्टिकोन देना

तत्पश्‍चात बढई ने प.पू. डॉक्टरजी की सूचना का सटीक पालन करते हुए लकडी का फट्टा लगाया और हमने वह सर्व सामग्री उस पर रखी । सेवा पूर्ण होने के उपरांत बढई को प्रसाद देते समय प.पू. डॉक्टरजी बोले, कोई कुछ बताए, तो सुनना चाहिए अन्यथा क्या होता है, देखा न ! हमारे यहां (अध्यात्म में) पूछ-पूछ कर करने की पद्धति है । आपके यहां मन से करने की पद्धति है । कोई बताए, तो सुना कीजिए, जिससे भविष्य में कभी साधना प्रारंभ करेंगे, तब उसका लाभ होगा । इससे यह पता चला कि प.पू. डॉक्टरजी को गुरुदेव क्यों कहते हैं ? उनके सहवास में साधक आए अथवा सिद्ध पुरुष अथवा सामान्य मनुष्य, वे उसके उद्धार के लिए उसे मार्गदर्शन अवश्य करते हैं और उसके जन्म का कल्याण करते हैं । संत अथवा गुरु जो कुछ बताते हैं, वह सुनकर उनका आज्ञापालन करना महत्त्वपूर्ण होता है । उनके बताए अनुसार कृत्य न करने से बढई के समान स्थिति हो जाती है ।

 

२. साधक वास्तविकता छिपा रहा है, यह ध्यान दिलाकर साधकों को सतर्कता सिखाना

२ अ. नौकरी कर सेवा हेतु आनेवाले साधक ने
बाहर से खाकर आना; परंतु वह न बताना और उस साधक
को बिना कुछ खाए सेवा करते हुए देखकर प.पू. डॉक्टरजी ने प्रशंसा करना

एक साधक नौकरी कर सायंकाल सेवा करता था । आने पर वह प.पू. डॉक्टरजी के पास सेवा मांगने जाता था, उस समय प.पू. डॉक्टरजी उसे पहले कुछ खाने को देते थे । दिनभर काम करके आया है । थका होगा और भूख भी लगी होगी, ऐसा उनका विचार होता था । वह साधक कुछ नहीं कहता था और उनका दिया हुआ खा लेता था । कभी-कभी पहले ही पेट भरा होने के कारण वह बिना कुछ खाए सेवा करने बैठ जाता था । उस समय प.पू. डॉक्टरजी उसकी प्रशंसा करते हुए सभी से कहते थे, देखिए काम पर से आकर कुछ न खाते हुए सेवा करता है । उसमें कितनी लगन है ।

२ आ. साधक को सेवा करने हेतु आने से पहले पानीपुरी खाते हुए
प.पू. डॉक्टरजी ने छत से देखना और अन्य साधकों को भी वह देखने के लिए छत पर बुलाना

एक बार प.पू. डॉक्टरजी उनके कक्ष के सामने की छत पर खडे थे । सायंकाल का समय था । वे सहज ही आसपास का परिसर देख रहे थे, तब उन्हें वह साधक आता हुआ दिखाई दिया । वे उसे देख रहे थे; परंतु उसे यह पता नहीं था कि प.पू. डॉक्टरजी उसे देख रहे हैं । वह आया और पानीपुरी की दुकान के पास रुककर पानीपुरी खाने लगा । तब तक यहां प.पू. डॉक्टरजी ने सर्व साधकों को बुलाकर एकत्रित किया और उसकी ओर उंगली दिखाकर बोले देखिए वह कैसे पानीपुरी खा रहा है, और अपने को लगता था कि बिना कुछ खाए सेवा करता है । अब पता चला ! तत्पश्‍चात वह साधक सेवा के लिए आया । उस दिन प.पू. डॉक्टरजी ने उसे कुछ नहीं कहा । वह सेवा करने बैठा और सेवा पूर्ण की । दूसरे दिन पुनः वह सेवा करने आया और प.पू. डॉक्टरजी के पास सेवा मांगने गया । उन्होंने उसे सेवा दी और बोले, खाकर आए होगे । सेवा करो । संत और गुरु त्रिकालदर्शी होते हैं । उन्हें निर्मल मन और सत्य बोलनेवाला अच्छा लगता है । यदि छिपकर कुछ करें, तो उनसे कभी छिपकर नहीं रह सकता । इसलिए जो है, उसे निर्मल मन से उन्हें बता देना चाहिए, अन्यथा हम ही अपनी साधना की हानि कर लेंगे ।

 

३. विश्राम नहीं करता है, ऐसा लगकर प.पू. डॉक्टरजी ने साधक की प्रशंसा करना

जब प.पू. डॉक्टरजी दोपहर के समय विश्राम करने हेतु जाते थे, तब एक साधक उसके पश्‍चात ही सोने के लिए जाता था और उनके आने से पूर्व आकर सेवा करने बैठ जाता था । प.पू. डॉक्टरजी को लगता था, यह रात को भी जागकर सेवा करता है और दोपहर को भी विश्राम नहीं करता । इसलिए वे अन्यों को उसके संबंध में बताकर उसकी प्रशंसा करते थे । एक बार वे दोपहर के समय विश्राम करने हेतु गए और वह साधक भी सोने के लिए चला गया । १० मिनट उपरांत प.पू. डॉक्टरजी को ग्रंथ का एक सूत्र सूझा; इसलिए वे उसे बताने के लिए बाहर आए । उस समय उन्हें पता चला कि वह साधक सोने के लिए गया है । उन्होंने पूछा ये सदैव मेरे जाने के पश्‍चात सोने के लिए जाता है क्या ? हमने हां कहा । तत्पश्‍चात वे कुछ नहीं बोले ।

दूसरे दिन आवश्यक सेवा होने के कारण प.पू. डॉक्टरजी का दोपहर का विश्राम करने का समय निकल गया । वह साधक उनके जाने की प्रतीक्षा कर रहा था । वह उबासियां लेने लगा । यह देखकर प.पू. डॉक्टरजी उसे बोले, मैं आज विश्राम नहीं करूंगा । मेरे जाने की प्रतीक्षा मत करो । तुम सो जाओ । यह सुनकर वह साधक लज्जित हो गया और विश्राम करने चला गया ।

संत और गुरु के पास दिखावटीपन नहीं चलता । एक न एक दिन चालाकी पकडी जाकर उक्त साधक के समान लज्जित होकर संत और गुरु की सेवा हेतु अपात्र सिद्ध हो सकता है ।

 

४. साधक को उसकी चूक का भान करवा देना

४ अ. सुबह शीघ्र उठकर जाने के लिए साधक ने
घडी में अलार्म लगाना और अन्य साधकों को उठकर
अलार्म बंद करना पडना, जिससे अन्य साधकों की नींद में बाधा आना

एक साधक सुबह ६ बजे उठकर नौकरी करने जाता था । शीघ्र उठने के लिए वह घडी में अलार्म लगाकर सोता था । अलार्म बजने पर वह स्वयं कभी नहीं उठता था । इसलिए अलार्म बजते रहता था । हममें से कोई एक उठकर अलार्म बंद कर उसे उठाते और पुनः सोते । ऐसा प्रतिदिन होने लगा । अन्य साधक देर रात तक सेवा करते थे, इससे उनकी नींद भी खंडित होती थी । यह अडचन प.पू. डॉक्टरजी को बताने पर वे बोले, मेरे पास के कक्ष में उसे सोने के लिए कहिए; जिससे आपको कष्ट नहीं होगा । हमने वैसा उस साधक को बताया । उस रात वह उस कक्ष में सोया ।

४ आ. प.पू. डॉक्टरजी ने उनके बाजू के कक्ष में साधक को सोने
हेतु कहना, अलार्म निरंतर बजता रहा । प.पू. डॉक्टरजी ने उठकर वह बंद करना

सुबह ६ बजे अलार्म बजने लगा । ५ मिनट अलार्म बज रहा था, तब भी वह साधक नहीं उठा । अंत में प.पू. डॉक्टरजी अपने कक्ष से उठकर आए और अलार्म बंद कर उसे उठाया । तत्पश्‍चात वह काम पर गया । रात को पुनः वह साधक कक्ष में सोने आया, तब प.पू. डॉक्टरजी ने उसे पूछा, तुम अलार्म किसके लिए लगाते हो ? अपने लिए कि अन्यों के लिए ? या वह सुनकर अन्य तुम्हें उठाएं इसलिए ? तुम ऐसा करो, दूसरे कक्ष में सो जाओ ।

४ इ. अपने कारण अन्य साधकों को कष्ट होता है,
यह भान न होने के कारण चूकों के प्रति गंभीरता न होने के संबंध में प.पू. डॉक्टरजी ने बताना

वह अकेला सो सके, ऐसा कक्ष प.पू. डॉक्टरजी ने उसे दिया और अलार्म की आवाज अन्यों को कष्ट नहीं हो इतनी कम रखने के लिए कहा । प्रेमभाव बढाने के लिए अन्यों का विचार करना साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । अपने कारण अन्य साधकों को कष्ट होता है, यह भान न होने के कारण होनेवाली चूकों के प्रति गंभीरता न होने से बार-बार वही चूक होती है और साधना की हानि होती है, ऐसा प.पू. डॉक्टरजी ने बताया तथा ऐसा पुनः न हो, इसकी सावधानी बरतने को कहा । साधक सोए हों, तब दरवाजे की आवाज करना, प्लास्टिक की थैली का सामान आवाज करते हुए निकालना आदि कृत्यों के कारण साधकों की नींद में बाधा उत्पन्न होती है । उक्त कृत्य से साधक में प्रेमभाव का अभाव और दूसरों का विचार करने की वृत्ति न होना, ये दोष दिखाई देते हैं । अपने से भी ऐसे कृत्य न हों, इसलिए हमें सतर्क रहना चाहिए । ऐसा करने से हममें प्रेमभाव उत्पन्न होने में सहायता होगी और दूसरों का विचार करने की वृत्ति उत्पन्न होगी । अन्यथा उक्त साधक के समान अपनी स्थिति होकर साधना की हानि हो सकती है ।

– श्री. दिनेश शिंदे, रामनाथी आश्रम, फोंडा, गोवा.

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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