आश्रम के रसोईघर का रूपांतर आदर्श अन्नपूर्णा कक्ष में करते समय परम पूज्य डॉक्टरजी का अथक परिश्रम और सब स्तरों पर सुनियोजन तथा फलोत्पत्ति बढाने हेतु मार्गदर्शन !

परात्पर गुरु डॉक्टरजी प्रीतिस्वरूप और ज्ञानोत्तर कर्मयोगी हैं । वे ब्रह्मज्ञानी हैं फिर भी, आनंद और शांति की अनुभूति के लिए ध्यान नहीं लगाते तथा अपने लिए कुछ प्राप्त करने का प्रयत्न न कर, विश्वकल्याण हेतु सदैव ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं और ईश्वरीय राज्य (सनातन हिन्दू धर्म) की पुनः स्थापना हेतु निरंतर प्रयासरत हैं । इसलिए, वे आदर्श कर्मयोगी हैं । प.पू. डॉक्टरजी की अगणित विशेषताआें का संक्षिप्त वर्णन करना हो, तो कहना पडेगा कि वे एक ऐसा व्यक्तित्व हैं, जिसके प्रत्येक कार्य, विचार और निर्णय में सत्यं शिवं सुंदरम का संगम है और जो अवतारी देवत्व की अनुभूति देता है ।

प.पू. डॉक्टरजी ने अन्नपूर्णाकक्ष को सुव्यवस्थित करने के लिए अथक प्रयास किया । आरंभ के दिनों में छोटी-छोटी बातों से अन्नपूर्णाकक्ष की बडी योजनाआें तक उन्होंने व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया और रसोईघर को अन्नपूर्णा-कक्ष बनाया । उन्होंने आजीवन रसोई में काम करनेवाली किसी कुशल गृहिणी को भी न सूझी हो, ऐसी बातें केवल बताई ही नहीं; अपितु नई-पुरानी और अनुभवी-अनुभवहीन साधिकाआें से करवाकर भी लीं । आज जिसे आदर्श अन्नपूर्णाकक्ष समझा जा रहा है, उसके मूल में प.पू. डॉक्टरजी का निरंतर और सर्व स्तरों पर प्राप्त मार्गदर्शन ही है । प.पू. डॉक्टरजी ने रसोईघर में सेवा करनेवाली साधिकाआें को कैसे तैयार किया, यह हम समझकर लेंगे ।

 

१. प्रोत्साहन

१ अ. पहले कोई अनुभव न होते हुए भी, ३० लोगों का प्रसाद (अल्पाहार)
और महाप्रसाद (भोजन) केवल प.पू. डॉक्टरजी के संकल्प से साधिकाआें से बन पाया

अप्रैल १९९९ में दैनिक सनातन प्रभात का गोवा संस्करण आरंभ हुआ । इस सेवा में कार्य करनेवाले साधकों की भोजनव्यवस्था एक घर में की गई थी । वहां लगभग ३० साधकों के लिए प्रसाद और महाप्रसाद बनाने की व्यवस्था थी । उस समय सब साधिकाएं १५ सेे १८ आयुवर्ग की थीं । इसलिए किसी को इतनी बडी मात्रा में भोजन बनाने का अनुभव नहीं था । उस समय प.पू. डॉक्टरजी ने कहा, आप लोग भोजन बना पाएंगी, बनाना आरंभ कीजिए । उनका संकल्प ही हो गया । इसलिए हम अनुभवहीन साधिकाएं उनसे पूछ-पूछकर भोजन बनाने लगीं ।

 

२. समन्वय

अ. प.पू. डॉक्टरजी ने सबसे पहले रसोईघर की सेवा में समन्वय लाना सिखाया

रसोईघर की साधिकाएं सबके लिए जलपान, भोजन आदि बनाने में दिनभर व्यस्त रहती थीं । उनकी सेवाआें में कोई समन्वय नहीं रहता था । इसलिए नामजप करने अथवा दूसरी सेवा सीखने के लिए उनके पास समय नहीं रहता था । प.पू. डॉक्टरजी ने सबसे पहले प्रसाद-महाप्रसाद की समय-सारणी बनाई । प्रसाद (नाश्ता) सवेरे ८.३० बजे रखना हो, तब यह सेवा कितने बजे आरंभ करनी चाहिए, कितने बजे समाप्त होनी चाहिए, इसकी योजना बनाई । प्रसाद-महाप्रसाद निर्धारित समय पर बन जाने पर साधकों को दूरभाष अथवा स्पीकर पर उद्घोषणा कर बुलाने की पद्धति बनाई गई । इससे भोजन बनाने की सेवा योजनाबद्ध ढंग से होने लगी ।

आ. फलोत्पत्ति बढाने के लिए योजना

साधकों की सेवा निर्धारित करते समय यह विचार किया गया कि १ साधिका २५ लोगों का भोजन बना सकती है, तो १०० लोगों का भोजन बनाने में ४ साधिकाएं लगेंगी । इस प्रकार, योजनाबद्ध सेवा करने पर वे अल्प समय में होने लगीं ।

इ. साधिकाआें में गुण बढाने के लिए प्रत्येक को बारी-बारी से रसोईघर का दायित्व दिया

प्रत्येक साधिका प्रत्येक सेवा कर सके, इसके लिए साधिकाआें को एक-एक सप्ताह दायित्व देकर, सब सेवा सिखाई । इससे साधिकाआें में योजना बनाना, नेतृत्व करना, आदि गुण बढे ।

ई. भोजन बनाने की पद्धति निश्चित करते समय पूरा विचार करना सिखाया

आश्रम में सब जनपदों के साधक रहते हैं । उन्हें भोजन के विषय में असुविधा न होे; इसके लिए भोजन में क्या-क्या बनना चाहिए, यह निश्‍चित किया गया । भोजन में भात, दाल, सब्जी, रोटी, नमक, चीनी, अचार और गुड निर्धारित किए गए । सब साधक भरपेट भोजन कर सकें, इसके लिए भोजन मध्यम तीखा और रोगी साधकों के लिए अल्प तीखा बनाने के लिए कहा । रामनाथी आश्रम के निर्माण-कार्य में लगे कुछ साधकों को तीखा भोजन चाहिए था । तब प.पू. डॉक्टरजी ने उनके लिए तीखी चटनी बनाने के लिए कहा । इससे उनकी तीखा भोजन करने की इच्छा पूरी हुई ।

उ. बरतन सुंदर ढंग से सजाकर रखना सिखाया

प.पू. डॉक्टरजी ने भोजनकक्ष में भोजन के पात्र सुंदर ढंग से रखना सिखाया । नमक, अचार, चटनी, रोटी, सब्जी, भात, दाल, अन्य इस क्रम से सजाकर रखने के लिए कहा । अतिथियों के भोजन की थाली में शास्त्रोक्त पद्धति से खाद्य पदार्थ परोसना सिखाया ।

ऊ. सवेरे के अल्पाहार (नाश्ता) की योजना पहले ही दिन बना लेने पर, वह समय पर और सरलता से होने लगा

अनुभवहीन साधक भी आश्रम में सवेरे का जलपान सरलता से बना सकें, इसके लिए उसका माप निर्धारित किया । एक माप चूडा में कितने लोगों का अल्पाहार बनेगा ? इसमें लगनेवाले तेल और
छौंकने हेतु लगनेवाले पदार्थों की मात्रा निश्‍चित कर, उसकी धारिका (फाइल) बनाई । (इस धारिका का उपयोग आज भी होता है ।) इससे, साधकसंख्या बढने पर भी, अल्पाहार बनाना सरल हो गया ।

ए. वस्तु सरलता से मिले, इसके लिए प्रत्येक बरनी पर वस्तु के नाम लिखने की पद्धति सिखाई

मसाले अथवा भोजन की अन्य वस्तुएं ढूंढने में नए साधकों का समय न जाए, इसके लिए प.पू. डॉक्टरजी ने सभी डिब्बों और बरनियों पर संबंधित वस्तुआें के नाम लिखने के लिए कहा । डिब्बे और बरनियां रखने का क्रम बडा-मध्यम-छोटा रखने पर, सब दिखाई देते हैं और अच्छा लगता है, यह भी सिखाया ।

ऐ. स्वच्छता-संबंधी कपडों का वर्गीकरण सिखाया

स्वच्छता के कपडे रखते समय रसोई का ओटा पोंछने का, भूमि की पटिया पोंछने के कपडे, भोजन की थाली-कटोरी पोंछने के कपडे, हाथ पोंछने के कपडे, भोजन के बरतन उठाने के कपडे, इस प्रकार वर्गीकरण सिखाया । प्रत्येक कार्य की अलग-अलग पेटी बनाकर, उस पर संबंधित वस्तुआें के नाम लिखने के लिए कहा ।

ओ. प्रशीतक (रेफ्रिजरेटर) में वस्तु रखने की कार्यपद्धति बनाना सिखाया

प्रशीतक ४ – ४ दिन उपरांत पोंछना, ऐसा करते समय खराब वस्तुआें को अलग करना, वस्तु रखते समय उस पर लिखा दिनांक देखकर, … दिन के भीतर समाप्त करना है, ऐसा लिखना आदि बातें सिखाईं ।

औ. स्वच्छता के विषय में छोटी-छोटी बातें बताईं और उनके अनुसार कार्य करवाया

स्वच्छता के लिए साबुन और घिसनी के डिब्बे अलग-अलग रखकर उन पर उनका नाम लिखने के लिए कहा; उदा. बरतन धोने की घिसनी, रसोई ओटे की घिसनी, भूमि की पटिया घिसनी । उसके लिए लगनेवाले साबुन अलग-अलग रखे । पटल पोंछने के लिए अलग बाल्टी, भूमि की पटिया पोंछने की अलग बाल्टी; अंगफलक, तौलिया धोने के लिए अलग बाल्टी रखी । इस प्रकार, सब अलग-अलग भिंगाना सिखाया । प्रत्येक को स्वच्छ करने का ब्रश अलग-अलग, अन्य कपडे धोने के ब्रश को अलग रखना सिखाया ।

अं. अलग-अलग कार्यों से मितव्ययता सिखाई

मितव्ययता गुण आने की दृष्टि से उन्होंने बताया कि नए अंगोछे से थाली पोंछना और जब वह पुराना हो जाए, तब उससे पटल (टेबल) पोंछना चाहिए । इसी प्रकार, नए ब्रश से अच्छे कपडे धोने चाहिए और जब वह कुछ बिगड जाए, तब उससे पटिया स्वच्छ करना चाहिए । हस्तप्रक्षालनपात्र (बेसिन) में हाथ धोने का साबुन और बरतन धोने का साबुन पूरा-का-पूरा न रखकर, काटकर रखना चाहिए । इससे साबुन की बचत होती है ।

क. सब साधक स्वावलंबी हों और वे सब प्रकार की सेवा
कर पाएं, इसके लिए सेवाआें का उचित बंटवारा करना सिखाया

पहले साधकों का सवेरे का अल्पाहार, दोपहर का महाप्रसाद, सायंकाल की चाय और रात्रि का महाप्रसाद यह सब कार्य भोजन विभाग की साधिकाएं ही करती थीं । इसी प्रकार भोजन व्यवस्था करना, बडे बरतन धोना, साधकों की थालियां और कटोरियां धोना, यह सेवा भी वे करती थीं । साधक स्वावलंबी बनें तथा सब सेवा कर पाएं, इसके लिए प.पू. डॉक्टरजी ने सवेरे का अल्पाहार, चाय तथा सायंकाल की चाय बनाना और बडे बरतन धोना, भोजन व्यवस्था करना, पटल पोंछना, संबंधित वस्तुआें को व्यवस्थित रखना आदि सिखाया । अपनी-अपनी थाली और कटोरियां कम समय में धोई जा सकें, इसके लिए चार प्रक्षालनपात्रों (सिंक) में पानी भरने की व्यवस्था की । इससे पानी की बचत हुई और सबमें अनुशासन आया । सब अल्पाहार (नाश्ता) बनाने लगे । बरतन धोकर उचित स्थान पर व्यवस्थित रखने से साधकों की सभी अंगों से साधना होने लगी ।

 

३. अपने कार्य के माध्यम से सिखाना

अ. परम पूज्य डॉक्टरजी ने अन्यों को चाय बनाना सिखाने के लिए स्वयं चाय बनाकर दिखाई

अधिक उबाली गई चाय शरीर के लिए हानिकारक होती है । इसलिए परम पूज्य डॉक्टरजी ने हमें चाय बनाना इस प्रकार सिखाया – चाय बनाने के बरतन में एक लोटा (१ लीटर) पानी लिया और उसमें १ प्याला (१२५ ग्राम) चीनी डाली । फिर उस मिश्रण को उबाला । उबल जाने पर, उसमें २ चम्मच (१० ग्राम) चायपत्ती डाली । एक उबाल आने पर, गैस बंद कर चाय को १० मिनट तक ढंक दिया । ऐसा करने से चाय का अर्क पानी में ठीक से उतर आया और चायपत्ती बरतन में नीचे बैठ गई । इस प्रकार, उन्होंने अपने हाथों से चाय बनाकर हम सबको चाय बनाना सिखाया ।

आ. अतिथियों का आतिथ्य करना सिखाया

आश्रम में अतिथि और संत आते हैं । उनका आतिथ्य करते समय वस्तुआें को व्यवस्थित कैसे रखें ? प्याले में चाय कितनी डालें ? यह भी परम पूज्य डॉक्टरजी ने अपने हाथों से कर दिखाया । अतिथि को प्याले (गिलास) में पानी देते समय उसे एक चौथाई खाली रखना चाहिए । प्याले से पानी गिरा हो, तो उसे पोंछ देना चाहिए । हम सब नए हैं, इसलिए अतिथियों और साधकों को कोई पदार्थ देने से पहले उसका स्वाद छह लोगों को मिलकर चखना चाहिए, यह भी सिखाया ।

 

४. निरपेक्ष प्रीति

अ. प्रत्येक त्योहार पर मीठा पदार्थ बनता

आश्रम में साधक पूर्णकाल सेवा करने के लिए रहते हैं । उन्हें त्योहारों के समय घर का स्मरण न हो; इसके लिए परम पूज्य डॉक्टरजी प्रत्येक त्योहार पर कुछ मीठे पदार्थ बनाते थे । इसी प्रकार, कुछ दिनों के अंतर पर अलग-अलग पदार्थ बनाते थे ।

आ. रोगी साधकों का ध्यान रखते

रोगी साधकों को भोजन नहीं रुचता; इसलिए वैद्य से पूछकर, उन्हें आवश्यक पदार्थ बनाकर देते ।

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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