‘वस्त्र (पोषाक) आरामदायी है’, ऐसा ऊपरी-ऊपर विचार कर तमोगुण बढानेवाला जीन्स पैंट परिधान करने के स्थान पर सात्त्विकता बढानेवाली वेशभूषा परिधान करना सर्व दृष्टि से अधिक लाभदायी !

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अनुक्रमणिका

युवकों, जीन्स पैंट का दुष्परिणाम जान लें !

 

१. ‘रिप्ड जीन्स’ नामक विकृति !

फैशन के नाम पर फटी हुई जीन्स परिधान करनेवाली भारत की मूर्ख युवा पीढी ! हिन्दू संस्कृति में फटे हुए कपडों का उपयोग असांस्कृतिक समझा जाता है; मात्र पश्चिमी संस्कृति में उसे ‘फैशन’ के रूप में देखा जाता है ! फूटी हुई वस्तुएं एवं फटे हुए कपडों का उपयोग करना, अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से गलत होने से उसका व्यक्तित्व पर नकारात्मक परिणाम होता है !

फटे हुए कपडे परिधान करने का (फैशन) वर्तमान में प्रचलन होने लगा है । ‘जीन्स’ कपडे की फटी हुई पैंट पहने युवा शहर में खासतौर से देखने मिलते हैं । वर्तमान में तो यह संख्या इतनी बढ गई है कि मुंबई में ‘जीन्स’पैंट पहने हुए प्रत्येक ३ व्यक्तियों में से एक की पैंट फटे हुए कपडों से बनी हुई होती है अथवा वह बनाने के पश्चात फाड दी गई होती है । इसका परिणाम ग्रामीण भागों में भी दिखाई देने लगा है । छोटे बच्चों की कपडों की दुकानों में भी ये ‘रिप्ड जीन्स’ अधिक कीमत में मिलने लगी हैं । अब तक अपनी संस्कृति में परिधान किए हुए कपडों में एक-आध छिद्र होना अथवा कहीं से थोडी फटी हुई होना, अयोग्य एवं असभ्यता का लक्षण माना जाता है । कपडे परिधान करनेवाले को भी इस बात की लाज आती थी । इसलिए कपडे भले ही पुराने हों, तब भी वे कहीं से फटे तो नहीं, इस विषय में विशेष सतर्कता रखी जाती थी । अब तो ‘फैशन’के नाम पर फटे हुए कपडों से बने हुए वस्त्रों का उपयोग धडल्ले से होता दिखाई दे रहा है । जिन्होंने बिना फटी जीन्स खरीदी है, वे भी फिर उसमें छिद्र करते हुए दिखाई देते हैं । युवक-युवतियों की संख्या समान है । कुछ चुने हुए महाविद्यालयों में इन ‘रिप्ड जीन्स’को अनुमति नहीं है, तब भी बहुतांश प्राईवेट कार्यालयों में एवं महाविद्यालयों में इस पर प्रतिबंध न होने से धीरे-धीरे इसकी ओर ‘स्टेटस सिंबॉल’ के रूप में देखा जाने लगा है । फटी हुई जीन्स परिधान कर, पैरों का प्रदर्शन करनेवाली एवं युवाओं में लैंगिक भावना उद्दीप्त करनेवाली इस पाश्चात्त्य विकृति ने युवक-युवतियों को अपने चंगुल में जकड लिया है । कुछ युवतियों आजकल कंधों पर से फटी हुई पोषाक पहनती हैं, तो कुछ बीच-बीच में छिद्रवाली पोषाक पहनती हैं । यह भी इसी का ही प्रकार है ।

फूटी हुई वस्तुएं एवं फटे हुए कपडों से भारी मात्रा में नकारात्मक स्पंदन प्रक्षेपित होने से उनका उपयोग करनेवाले व्यक्ति के मन पर भी उसका दुष्पपरिणाम होता है । इससे ऐसी वस्तुओं का उपयोग करना, आध्यात्मिकदृष्टि से गलत है । महाविद्यालय में ज्ञानार्जन करने के लिए जानेवाले एवं कार्यालय में बौद्धिक काम करनेवालों की इससे हानि हो सकती है । व्यक्ति की इससे हानि हो सकती है । अन्यों की तुलना में हमने कुछ तो अलग परिधान किया है, यह विचार व्यक्ति का अहं बढाने में भी सहायता करता है । परिणामस्वरूप फटे हुए कपडों का नियमित उपयोग करनेवाले व्यक्ति के व्यक्तित्व पर कालांतर में नकारात्मक परिवर्तन हो सकता है । इसलिए इस विषय में अधिक शोधन कर युवाओं में जागृति करने की एवं इस पश्चिमी विकृति को तडीपार करने की अब आवश्यकता निर्माण हो गई है ।

– श्री. जगन घाणेकर, मुंबई

 

२. देह के सर्व ओर कष्टदायक स्पंदनों की
निर्मिति करनेवाली असात्त्विक जीन्स पैंट न पहनें !

‘जीन्स की पैंट तम-रज प्रधान होने से उसे परिधान करनेवाले व्यक्ति की देह के सर्व ओर कष्टदायक स्पंदनों की निर्मिति होती है और वातावरण की नकारात्मक शक्ति व्यक्ति की ओर आकृष्ट होती है । जीन्स पैंट उच्छृंखलतादर्शक होती है । इससे व्यक्ति का अहंकार बढता है और उसे होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के कष्टों की तीव्रता भी बढती है । जीन्स पैंट समान असात्त्विक पोशाक में ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता अत्यंत नगण्य होती है । इसलिए जीन्स पैंट, ‘फेडेड जीन्स पैंट (पैंट के कुछ भाग का रंग फीका होने से ‘सफेद रंग का पट्टा है’, ऐसा लगता है) अथवा अन्य ऐसी नई ‘फैशन’की जीन्स पैंट न पहनें ।’

 

३. तमोगुणी पोशाक के कारण वातावरण
की नकारात्मक शक्ति व्यक्ति की ओर आकृष्ट होना

ऐसे चित्रविचित्र कपडों का उपयोग करने से व्यक्ति का रज-तम गुण भारी मात्रा में बढता है । विविध प्रकार के ‘फैशन’के नाम पर फटी हुई, पेबंद (पैच) लगी हुई अथवा अधिक लंबी जीन्स पैंट के कारण तामसिकता बढकर व्यक्ति को होनेवाले आध्यात्मिक कष्ट में वृद्धि होती है । इसलिए ‘पोशाक आरामदायी है’, ऐसा ऊपरी-ऊपर विचार न करते हुए उस पोशाक के कारण सूक्ष्म स्तर पर होनेवाले परिणामों का विचार करें । इसप्रकार के कपडे परिधान करने के स्थान पर व्यक्ति के लिए सात्त्विक कपडे परिधान करना अधिक लाभदायी होता है ।

 

४. हिन्दू संस्कृति अनुसार कुर्ता एवं धोती ही पुरुषों के लिए सात्त्विक वेशभूषा !

जीन्स पैंट के स्थान पर कुर्ता एवं पायजमा का उपयोग, ये उसकी तुलना में अधिक सात्त्विक हैं । यह पोशाक रज-सत्त्वप्रधान होने से वह संयम एवं धैर्य का दर्शक है । इस वेशभूषा के कारण अहं न्यून होकर अनिष्ट शक्तियों का कष्ट भी दूर हो सकता है । साथ ही ईश्वरीय चैतन्य अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकते हैं । हिन्दू संस्कृति अनुसार अंगरखा एवं धोती, पुरुषों के लिए सात्त्विक वेशभूषा है । वह निर्मलतादर्शक होने से उससे अहं अल्प होता है, इसके साथ ही अनिष्ट शक्तियों का कष्ट भी अत्यल्प होता है । इससे छोटे बच्चे एवं पुरुष असात्त्विक वेशभूषा का त्याग कर, प्रधानता से कुर्ता और धोती परिधान करना चाहिए । यदि वह संभव न हो, तो कम से कम कुर्ता और पायजामा का उपयोग करें ।’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

 

५. युवतियों, आधुनिकता और कुछ नयापन का
हठ पकड असात्त्विक एवं अशोभनीय पोशाक न परिधान करें !

‘वर्तमान में युवतियां एवं मध्यम आयु की महिलाओं में कम एवं तंग (कसी) हुई ‘जीन्स पैंट एवं टी-शर्ट’ पोशाक पहनना भारी मात्रा में बढ गया है । इस असात्त्विक पोशाक के कारण स्त्रियों के मानसिक के साथ-साथ ही आध्यात्मिक कष्टों में वृद्धि होने की बात ध्यान में आती है । वास्तव में ‘सात्त्विक, पवित्र पोशाक एवं विनयशील वर्तन’ ही नारी का खरा सौंदर्य है; परंतु आधुनिकता के नाम पर और कुछ नएपन की लालसा के कारण अशोभनीय पोशाक पहनने की महिलावर्ग में मानो होड-सी लग गई है । छोटे बच्चों के लिए घाघरा-चोली और महिलाओं के लिए नौ गज की एवं छ: गज की पोशाक सात्त्विक है ।’

– श्रीमती सुजाता कुलकर्णी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२४.२.२०१९)

 

६. ‘जीन्स’के सतत उपयोग से उद्भव होनेवाले विकार !

‘किसी भी वस्तु की सफल मार्केटिंग कैसे करनी है’, इसका अच्छी जानकारी रखनेवाली अमेरिका ने निर्धनों की मोटी-मोटी जीन्स धीरे-धीरे समाज के सभी स्तरों पर पहुंच गई है । जीन्स पर कितनी भी गंदगी हो, तब भी जीन्स के गहरे रंग के कारण वह दिखाई नहीं देती । गंदगी के दाग दिखाई नहीं देते, इसका अर्थ गंदगी नहीं है, ऐसा तो नहीं है । लोगों की समझ भी विचित्र है । उनकी ऐसी समझ है कि जीन्स जितनी गंदी होगी, उतनी अच्छी है ।’ केवल दाग दिखाई नहीं देते; इसलिए एक ही जीन्स चार-चार दिन पहनते हैं । इस प्रकार अस्वच्छ कपडे शरीर पर डालना, रोगों को आमंत्रण देनेवाला है । जीन्स का कपडा बहुत मोटा होता है । इसलिए हवा भी सहजता से नहीं जा सकती । इसकारण उष्णता कपडों के अंदर ही रहती है । ठंडे वातावरण में रहनेवाले लोग यदि जीन्स पहनें, तो ठीक है; परंतु भारत जैसे उष्ण कटिबंध के लोगों का सतत जीन्स पहनना पूर्णरूप से गलत है ।

६ अ. त्वचाविकार

कमर, जननेंद्रिय एवं जांघों के भाग में वैसे भी अधिक मात्रा में पसीना आता है । हमेशा जीन्स पहनने से यह पसीना उस स्थान पर जमा रहता है और वहां ‘फंगल इन्फेक्शन’ होता है । यदि एक ही जीन्स को बिना धोए चार-चार दिन पहना जाए, तो जीन्स की गंदगी और अंदर जमा होनेवाले पसीने से ऐसे लोगों का ‘फंगल इन्फेक्शन’ कितना भी औषधोपचार करें, तब भी ठीक नहीं होता । गत पांच वर्षाें में ऐसे पुराने ‘फंगल इन्फेक्शन’के रोगी भारी मात्रा में बढ गए हैं । जीन्स का अतिरेकी उपयोग इसका महत्त्वपूर्ण कारण है ।

६ आ. मूलव्याध एवं ‘फिशर’

वर्तमान में बहुतांश लोगों का काम बैठे स्वरूप का है । संगणकीय क्षेत्र में काम करनेवाले लोग १२-१२ घंटे बैठकर सेवा करते हैं । अनेक बार तो प्राकृतिक विधियों के लिए भी उठने की अनुमति नहीं होती । जीन्स पहनकर सतत रेग्जिन की कुर्सी पर बैठने से भारी मात्रा में उष्णता निर्माण होती है । यह उष्णता कुछ लोगों में मूलव्याध (पाईल्स), ‘फिशर’ जैसे गुदद्वार से संबंधित रोग निर्माण करती है । ‘पाईल्स’ अर्थात गुदद्वार पर निर्माण होनेवाले अंकुर और शौच के स्थान पर निर्माण होनेवाले घाव को ‘फिशर’ कहते हैं । ये घाव अत्यंत वेदनादायक होते हैं । कभी-कभी तो बद्धकोष्ठता का जिसे विशेष कष्ट नहीं है, ऐसे व्यक्तियों में भी ‘फिशर’का कष्ट देखने मिलता है । ऐसे समय पर उसका कारण होता है ‘जीन्स पहनकर एक ही स्थान पर बैठना ।’

६ इ. पुरुषों में शुक्राणूनिर्मिति में बाधा

आजकल ‘लो वेस्ट’, ‘पेन्सिल फीट’ जीन्स का फैशन है । यह प्रकार तो और भी कष्टदायक है । ‘जंक फूड’ खाकर बढी हुई तोंद (पेट) छिपाने के लिए अनेक जन इस जीन्स में घुसने का असफल प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं । इसप्रकार के अत्यंत कसे कपडे पहनने से वृषण पर (Testicls) दाब पडने से उन्हें क्षति पहुंचने की संभावना होती है । शुक्राणु तैयार होने के लिए शरीर के तापमान की तुलना में लगभग ४ अंश सेल्सिअस कम तापमान की आवश्यक होती है; इसीलिए वृषण, यह अवयव शरीर के बाहर होता है । सतत जीन्स पहनने से इस भाग का तापमान बढ जाता है । इससे शुक्राणू निर्मिति की प्रक्रिया में बाधा पहुंच सकती है । ‘टाईट जीन्स’ आजकल पुरुषों में बढते हुए वंध्यत्व के पीछे का मह‌‌त्त्वपूर्ण कारण है ।

६ ई. आम्लपित्त

बढी हुई उष्णता पर मात करने के उपायस्वरूप कुछ लोग अधिकाधिक पानी पीना आरंभ करते हैं । उससे लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है । बढे हुए पेट पर जीन्स तानकर पहनी जाने से, पानी पीने के पश्चात पेट पर दाब पडने से ग्रहण किया हुआ भोजन ऊपर-ऊपर आने से आम्लपित्त का कष्ट आरंभ होता है ।

६ उ. कमर एवं जांघों की नसों को क्षति पहुंचती है !

सदैव कसी जीन्स पहननेवाले और ऊंची ऐडी की चप्पलें (हील्स) पहननेवाले युवतियों की व्यथा क्या कहें ? खडा रहना और चलना, यह क्रिया विचित्र पद्धति से करने पडती है । इसलिए उन्हें कमर में वेदना, ऐडियों में वेदना और पेट में वेदना, ऐसे कष्टों का सामना करना पडता है । कसी जीन्स के कारण कमर एवं जांघों की नसों को (Nerves) क्षति पहुंचने से एवं पैरों में चींटियां आना (सुन्न पडना), आग होना जैसे कष्ट हो सकते हैं ।

 

७. हवामान एवं आरोग्य की दृष्टि से कपडे पहनना योग्य

‘जैसा देश वैसा वेश’ ऐसी कहावत है । आज अपना पहनावा ‘फैशन’पर आधारित होता है । कभी-कभार परिवर्तन के लिए किया जानेवाला ‘फैशन’ही यदि प्रतिदिन की पसंद बन जाए, तो स्वास्थ्य समास्याएं कितनी भीषण हो जाती हैं, इसका उदाहरण है जीन्स । जीन्स के लिए यदि पर्याय चाहिए, तो ऐसा मोटा खादी कपडा हमारे पास है । इसका अर्थ ‘सभी को धोती और कुर्ता पहनना चाहिए’, ऐसा बिलकुल नहीं; परंतु सूती एवं आरामदायी पैंट पहनना स्वास्थ्य के लिए लाभदायी है । जो कपडे अपने हवामान एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त हों, उनका ही उपयोग करने में ही समझदारी है ।’

– डॉ. पुष्कर पुरुषोत्तम वाघ, आयुष आयुर्वेद क्लीनिक, डोंबिवली.

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