नवविधा भक्ति : वंदनभक्ति

एक-दूसरे से मिलनेपर अथवा पितातुल्य व्यक्तियों से मिलने पर प्रत्येक हिन्दू हाथ जोडकर नमस्कार करता है अथवा ‘नमस्कार’ कहता है । नमस्कार हिन्दू मन का एक संस्कार है । हम जब भी कहीं पर किसी देवता का चित्र अथवा मूर्ति देखते हैं या फिर किसी संत के दर्शन करते हैं, तब हमारे हाथ अपनेआप जुड जाते हैं । हमारे द्वारा किए जा रहे नमस्कार में जब भाव आता है, तब उसका रूपांतरण वंदन में होता है और इस भाव से नमस्कार करते जानेपर धीरे-धीरे उस नमस्कार का रूपांतरण भक्ति में होता है । उसी का नाम है वंदनभक्ति !

नमस्कार करते हुए भगवान से की गई प्रार्थना ही वंदनभक्ति है । पिछले भावसत्संग में हमने सुना कि राजा अंबरीष की अर्चनभक्ति कितनी उच्च कोटि की थी, इसीलिए उनके आसपास साक्षात ईश्‍वर का सुदर्शनचक्र होता था । सुदर्शनचक्र अर्थात ईश्‍वर का आशीर्वाद । ईश्‍वर का आशीर्वाद ही एक ऐसा कवच है, जिसे कोई भी अस्त्र और शस्त्र भेद नहीं सकता और यह आशीर्वाद केवल नतमस्तक होने पर ही मिलता है । राजा अंबरीष में अर्चनभक्ति तो थी ही; परंतु उसके साथ-साथ ही वे वंदनभक्ति भी करते थे ! आज हम इस वंदनभक्ति की महिमा उनके उदाहरण से ही देखेंगे ।

 

भक्त राजा अंबरीष की कथा

एक बार राजा अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ भगवान श्रीकृष्णजी की आराधना करने हेतु एक वर्ष तक द्वादशीव्रत करने का संकल्प किया । व्रत की समाप्ति होने के पश्‍चात कार्तिक महीने में उन्होंने ३ रात्रि उपवास किया और एक दिन यमुना नदी में स्नान कर भगवान श्रीकृष्णजी का पूजन किया । उन्होंने महाभिषेक की विधि के लिए आवश्यक सामग्री लेकर अभिषेक किया और अंतःकरण के साथ तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चंदन, पुष्पमाला, अर्घ्य इत्यादि से उनका पूजन किया । तत्पश्‍चात राजा ने व्रत का पारण करने की तैयारी की । उसी समय दुर्वासामुनि उनके पास अतिथि के रूप में आ गए ।

उन्हें देखते ही राजा उठ खडे हुए और उन्हें आसन देकर उनकी पूजा की । इसके साथ ही उनके चरणों में वंदन कर उनसे भोजन करने की प्रार्थना की । दुर्वासामुनि राजा अंबरीष की प्रार्थना स्वीकार कर, आवश्यक कर्म करने हेतु नदी पर गए । वे परब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने गए । इधर द्वादशी की केवल आधी ही घटिका शेष थी । धर्मज्ञ राजा अंबरीष ने व्रत का पारण अर्थात उद्यापन करने के संबंध में ब्राह्मणों के साथ विचारविमर्श किया । उन्होंने कहा, ‘‘ब्राम्हण के भोजन किए बिना स्वयं भोजन करना और द्वादशी रहने तक पारण न करना, ये दोनों दोष हैं; इसलिए जो करने से मेरा कल्याण होगा और मुझे पाप भी नहीं लगेगा, ऐसा मुझे करना चाहिए । पानी पीने का अर्थ भोजन करना और न करना भी है; इसलिए मैं केवल पानी पीकर ही व्रत का पारण करता हूं ।’’ यह निश्‍चय कर मन ही मन भगवान का चिंतन करते हुए राजा अंबरीष ने जल प्राशन किया और दुर्वासामुनि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे । आवश्यक नित्यकर्मों से निवृत्त होकर दुर्वासा मुनि यमुना से लौट आए । राजा ने आगे बढकर उनका स्वागत किया । तब उन्होंने अंतर्ज्ञान से राजा द्वारा पारण किए जाने की बात पहचान ली और वे कहने लगे, ‘‘यह कैसा विष्णुभक्त है ? इसने मुझे भोजन का निमंत्रण भी दिया; परंतु मुझे भोजन दिए बिना ही इसने भोजन कर लिया ! मैं तुम्हें तत्काल इसका दंड देता हूं !’’ ऐसा कहते-कहते ही क्रोध से उन्होंने अपनी एक जटा उखाड ली और उससे राजा अंबरीष को मारने के लिए कृत्या नामक राक्षसी उत्पन्न हुई । अग्नि की भांति धधकती हुई तलवार लेकर वह राजा पर टूट पडी । उस समय उसके पैर पटकने से पृथ्वी कांप रही थी; परंतु राजा अंबरीष उसे देखकर तनिक भी विचलित नहीं हुए । परमात्मा द्वारा सेवक की रक्षा हेतु कार्यरत सुदर्शनचक्र ने कृत्या को जला डाला । तत्पश्‍चात वह सुदर्शनचक्र दुर्वासामुनि की ओर बढा । दुर्वासामुनि भयभीत होकर अपने प्राण बचाने हेतु इधर-उधर दौडने लगे । दुर्वासामुनि दौडते-दौडते सभी दिशाएं, आकाश, पृथ्वी, सप्तपाताल, समुद्र, लोकपालों द्वारा सुरक्षित किए गए सभी लोक, यहां तक की स्वर्ग भी जा पहुंचे; परंतु सुदर्शनचक्र ने उनका पीछा नहीं छोडा ।

जब उन्हें स्वयं की रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं मिला, तब वे ब्रह्माजी के पास जाकर रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगे । तब ब्रह्माजी ने कहा, ‘‘भगवान के भक्त के साथ द्रोह करनेवाले को बचाने में हम असमर्थ हैं ।’’ भगवान के चक्र से त्रस्त होकर वे कैलासपति भगवान महादेव की शरण में गए । तब भगवान महादेवजी ने कहा ‘‘यह चक्र उस विश्‍वेश्‍वर का चक्र है । हम इसका प्रतिकार नहीं कर सकेंगे । आप उन्हीं की शरण में जाएं । वे ही आपका कल्याण करेंगे ।’’

उसके पश्‍चात दुर्वासामुनि भगवान के परमधाम वैकुंठ गए, जहां लक्ष्मीपति भगवती लक्ष्मीजी के साथ निवास करते हैं । भगवान के चरणों पर नतमस्तक होकर वे कहने लगे, ‘‘हे अच्युतजी, हे अनंत, विश्‍व के जीवनदाता, मैं अपराधी हूं । आप मेरी रक्षा करें । आपका परमप्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्रिय भक्त के साथ अयोग्य बर्ताव किया । मैं अपराधी हूं । हे प्रभु, आप मुझे बचाएं !’’

श्रीविष्णु बोले, ‘‘मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूं । मेरे सज्जन भक्तों ने मेरा हृदय ही अपने नियंत्रण में ले रखा है । मुझे भक्त ही प्रिय हैं । मैं ही अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय हूं । जो भक्त सब कुछ छोडकर केवल मेरी ही शरण में आए हैं, उन्हें छोड देने का मैं विचार भी कैसे कर सकता हूं ? मेरे अनन्यभक्त मेरी सेवा में ही स्वयं को धन्य मानते हैं । मेरी सेवा के फलस्वरूप यदि उन्हें मुक्ति मिलती है, तब भी वे उसका स्वीकार नहीं करते । ऐसे में कालगति के अनुसार नष्ट होनेवाले वस्तुओं का क्या मूल्य ? भक्त मेरा हृदय हैं और मैं उन भक्तों का । वे मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त कुछ नहीं ।’’ ऐसा कहकर भगवान विष्णुजी ने दुर्वासामुनि को राजा अंबरीष से क्षमा मांगने के लिए कहा ।

इसपर दुर्वासा पुनः अंबरीष के पास आए ।

राजा के मन में मुनि के प्रति कोई द्वेष नहीं था, अपितु उनके मन में दुर्वासा ऋषि के प्रति केवल प्रेम ही था । ऋषि ने उनके चरण पकड लिए । राजा ने मुनि को उठाया और चक्र की वंदना कर स्तुति करने के पश्‍चात प्रार्थना की ।

तब उनकी प्रार्थना से चक्र शांत हुआ । जब दुर्वासा उस चक्र की आग से मुक्त हो गए । उन्होंने राजा को शुभाशीर्वाद दिए ।

दुर्वासाजी बोले, ‘‘मैं धन्य हूं ! आज मैंने भगवान के भक्त का महत्त्व देखा । राजन ! आपने मेरा अपराध भूलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की ।’’

राजा कुछ न खाकर उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे । दुर्वासामुनि के लौटकर आने में १ वर्ष का समय लगा । इतने दिनोंतक राजा उनके आगमन की प्रतीक्षा करते हुए केवल पानी पीकर जीवन व्यतीत कर रहे थे । अब राजा ने दुर्वासामुनि के चरण पकडकर, उन्हें प्रसन्न कर भोजन करवाया । दुर्वासामुनि ने अत्यंत संतुष्ट होकर राजा के गुणों की प्रशंसा की और फिर उनसे विदाई ली ।

तब दुर्वासामुनि के चले जाने के पश्‍चात राजा ने उनका शेष पवित्र भोजन स्वयं ग्रहण किया । राजा की प्रार्थना से दुर्वासामुनि सुदर्शन चक्र के प्रकोप से मुक्त हुए थे, परंतु राजा ने इसका श्रेय स्वयं न लेकर भगवान की महिमा मानी । ऐसे अनेक गुणों से संपन्न राजा अपने सभी कर्मों के द्वारा परब्रह्म परमात्मा श्री भगवान के प्रति अपनी भक्ति बढा रहे थे । उसके कारण उन्हें ब्रह्मलोकतक के सभी भोग नरक के समान प्रतीत हो रहे थे ।

 

वंदन का अर्थ है विनम्रता !

वंदन का अर्थ नमस्कार करना, नमन करना, नतमस्तक होना, शरणागत होना, स्वयं को न्यून मानना और ईश्‍वर की महानता को जानना ! निरंतर विनम्र रहना भी वंदनभक्ति ही है । विनम्रता एक ऐसी शक्ति है, जिससे कई असंभव बातें संभव होती हैं । जो बातें ज्ञान से संभव नहीं होती, वो विनम्रता से सहजता से हो जाती हैं । सभी के प्रति आदर रखने की प्रवृत्ति व्यवहार में भी बहुत उपयोगी होती है; परंतु कई बार मनुष्य दीन तो बन जाते हैं; परंतु लीन नहीं बनते । वंदन से स्वयं में लीनता आती है और मन को स्थिरता आती है । मन की स्थिरता के कारण आत्मविश्‍वास बढता है । उसके कारण भक्ति की यह पद्धति सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । वंदन के कारण सामनेवाले व्यक्ति की कठोरता निश्‍चितरूप से कम हो जाती है । भक्ति से मन मृदु और अनुकूल होता है । उसके लिए हमें निश्‍चित ही भक्ति करनी चाहिए ।

 

वंदन मन का समर्पण

वंदन मन का समर्पण है । मैंने भगवान के सामने हाथ जोड लिए हैं तो अब मेरा रह ही क्या गया है, यह भाव मन में होने का अर्थ ही इस भक्तिपद्धति का सारांश है । ईश्‍वर चराचर में व्याप्त हैं अर्थात सृष्टि के कण-कण में उनका अस्तित्व है । प्रत्येक जीव और प्रत्येक मनुष्य में वे ही विद्यमान हैं; इसलिए वारकरी पंथ में सामने आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को नमस्कार करने की प्रथा है । भले ही सामनेवाला व्यक्ति आयु, पद, प्रतिष्ठा में कितना भी छोटा क्यों न हो; उसमें भी ईश्‍वर आत्मरूप से व्याप्त हैं । प्रत्येक वारकरी के मन में इस वास्तविकता का भान निरंतर वास करता है और विठ्ठल के दर्शन के लिए जाते समय वे साष्टांग नमस्कार करते हुए जाते हैं । यह लीनता की पराकाष्ठा है ।

हमारे चारों ओर विचरनेवाले सभी जीवों के अंतर में वास करनेवाले भगवान देखे जा सकते हैं । नमस्कार करते समय यह वंदन उनके बाह्यांग को नहीं, अपितु उसके अंतरंग में विराजमान अनंत के लिए होता है । जब यह बोध होता है, तब वंदनभक्ति करना संभव होता है ।

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