पादसेवन भक्ति के उदाहरण

१. भरत की पादसेवन भक्ति

माता लक्ष्मी ने ही नहीं, अपितु भरत ने भी पादसेवन भक्ति की है । भरत को जब ज्ञात हुआ कि माता कैकयी ने उन्हें सिंहासन पर बैठाने हेतु राम को १४ वर्ष का वनवास दिया है, तब उन्हें बहुत दुख हुआ । श्रीराम को वापस लाने हेतु वे चित्रकूट पर्वत पर रह रहे प्रभु श्रीराम से मिलने वन में गए । जब वे श्रीराम की कुटिया की ओर गए, तब उन्होंने देखा कि जटाधारी राम वनवासी के वेश में बैठे हुए हैं । उन्हें देखकर वे दौडते हुए जाकर श्रीराम के चरणों में नतमस्तक हो गए और श्रीरामजी से कहने लगे, ‘‘मैं आपकी शरण में आया हूं । आप मुझे क्षमा करें । आप अपनी अयोध्या का राज संभालकर मेरा उद्धार करें । संपूर्ण मंत्रिमंडल, तीनों माताएं और गुरु वसिष्ठ, ये सभी यही प्रार्थना लेकर आपके पास आए हैं । मैं आपका छोटा भाई आपके पुत्रसमान हूं ।’ जब राम-भरत मिलन हुआ, तब भरत श्रीराम से गले मिलकर रोने लगे । भरत ने श्रीरामजी से कहा ‘‘अयोध्या पर राज करने का सामर्थ्य केवल आप में है । आपका स्थान अन्य कोई भी नहीं ले सकता ।’’, ऐसा कहकर वे श्रीराम को बार-बार अयोध्या आने का आग्रह करने लगे । तब श्रीराम ने उन्हें बताया कि उन्होंने पिता को १४ वर्ष का वनवास पूर्ण कर ही अयोध्या लौटने का वचन दिया है । अंत में अनिवार्यरूप से भरत ने सत्य को स्वीकार किया । उन्होंने कहा कि अयोध्या का राज चलाने का अधिकार श्रीराम का ही है । केवल श्रीराम के वनवास के १४ वर्ष की अवधि तक ही मैं उनका कार्यभार देखूंगा और यह कार्यभार संभालने हेतु आप अपनी पादुकाएं मुझे दें । मैं उन्हें सिंहासन पर रखकर आप ही को राजा मानकर आपके प्रतिनिधि के रूप में १४ वर्ष राजकार्य चलाऊंगा; परंतु जब १४ वर्ष पूर्ण होंगे, तब आपको पुनः अयोध्या आना ही पडेगा, अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगा ।’

ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम की पादुकाएं अपने मस्तक पर धारण कीं और वे अयोध्या लौट आए । उसके पश्‍चात वे सेवक के रूप में राज्य का भार देखने लगे ।

आदर्श भाई कैसा होना चाहिए, यह इसका उत्कृष्ट उदाहरण है । स्वयं को राजवैभव भोगने मिले, मैं राजा बनूं और मुझे मेरी इच्छा के अनुरूप राज्य का भार चलाने का अवसर मिले, इन विचारों से कोई भी आनंदित होगा; परंतु इन सभी में भरत की कोई रुचि नहीं दिखाई देती । इससे उन्होंने अपने बडे भाई श्रीराम के सामने स्वयं राजा बनना भी तुच्छ माना, क्या हमें भी उस प्रकार भगवान के सामने कोई पद और प्रतिष्ठा तुच्छ लगती है, हम सभी इसका निरीक्षण करेंगे । हम स्वयं के प्रति कितना अहं पालते हैं । अमुक व्यक्ति को मुझे सम्मान देना चाहिए, छोटों को मेरा आदर करना चाहिए, मुझे अमुक दायित्व मिलना चाहिए, इस प्रकार स्वप्रतिष्ठा टिकाए रखनेवाले कितने विचार हमारे मन में आते हैं । अहं के इन सभी विचारों के कारण ही हम शरणागत नहीं हो पाते । इस प्रकार हम स्वयं का अहं कहां-कहां टिकाए रखते हैं और उसे ऊंचा करने का प्रयास करते हैं, इस पर चिंतन करेंगे ।

 

२. केवट की पादसेवन भक्ति

केवट की पादसेवन भक्ति तो सबसे अनुपम ही है । श्री राम ने वनवास के दौरान गंगा पार जाने के लिए अपने सखा केवट से नाव मांगी, पर केवट नाव लेकर आ ही नहीं रहा था । वह कहने लगा- ‘मैंने आपका मर्म (भेद) जान लिया । आपके चरण कमल की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बनानेवाली कोई छडी है, जिसके छूते ही अहिल्या बाई पत्थर की शिला से सुंदर स्त्री हो गईं मेरी नाव तो लकडी की है । लकडी पत्थर से कठोर तो होती नहीं । मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड जाएगी, तो मैं लुट जाऊंगा और आपका भी रास्ता रुक जाएगा । न तो आप नदी पार हो सकेंगे और मेरी रोजी-रोटी भी मारी जाएगी । जब मेरे कमाने-खाने का माध्यम ही मारा जाएगा तब मैं क्या करूंगा ।

मैं तो इसी नाव से पूरे परिवार का भरन-पोषण करता हूं । दूसरा कोई धंधा नहीं जानता । हे प्रभु ! यदि आप पार जाना ही चाहते हैं, तो पहले मुझे अपने चरण कमल पखारने (धोने) के लिए कहें ।

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं ।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं ।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ॥

हे नाथ ! मैं चरण कमल धोकर ही आप लोगों को नाव पर चढाऊंगा, मैं आपसे कुछ शुल्क (किराया) नहीं चाहता । हे श्रीराम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूं । लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूं, तब तक हे तुलसीदास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूंगा ।

केवट के इतने प्रेमभरे पर अटपटे वचन सुनकर भगवान भी भावविभोर हो गए, वे केवट से कहने लगे ठीक है जिससे तेरी नाव न जाए और हम भी पार उतर जाएं, इसके लिए तुझे जो उपाय करना है, कर ले । अर्थात केवट के प्रेम से वशीभूत होकर राम उन्हें अपने चरण धोने की आज्ञा दे देते हैं । केवट भगवान के चरण कमल को जल से पखारता है । पश्‍चात वह भगवान श्री रामचंद्र जी का चरणामृत पीता है, उस समय केवट की महिमा गाते हुए संत तुलसीदास जी कहते हैं —

पद पखारी जलु पान करी आपु सहित परिवार |
पितर पारु करी प्रभु ही पुनी मुदित गययु लेई पार ||

चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर उस महान पुण्य के द्वारा अपने पितरों को भवसागर से पार कर आनंदपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया ।

यहां हमें सीखने मिलता है कि राम तो अपने अनन्य भक्तों की भोली भक्ति के ही अधीन होते हैं, चाहे वह कोई भी हो ।

हमें धन दौलत, मान सम्मान पाना हो तो उसकी बहुत मर्यादाएं हैं, बंधन और अडचने हैं पर भक्ति करने के लिए तो कोई बंधन हो ही नहीं सकता । बस भगवान को अपना मन देना होता है ।

माता लक्ष्मी, माता सीता, साथ ही भरत और केवट की भांति भगवान की पादसेवन भक्ति करने हेतु संपूर्ण सृष्टि कैसे आतुर है ? इसे कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं ।

 

३. धनुष्य की पादसेवनभक्ति

सीता-स्वयंवर के समय भंग हो चुके धनुष्य के साथ श्रीरामजी का संवाद !

सीता स्वयंवर के समय भंग हो चुके शिवधनुष्य को जब श्रीराम ने भूमि पर रखा, तब धनुष्य के साथ इस प्रकार उनका संवाद हुआ –

राम : क्या लगता है ?

धनुष्य : आनंद ही आनंद है ! मुझे किसी राक्षस ने उठाया होता, तो मैं जीवनभर धनुष्यबाणों के बंधन में फंसा रह जाता । प्रभु श्रीरामजी ने मुझे मुक्त कर दिया ।

राम : परंतु राम ने तो तुम्हें भूमि पर रख दिया, उसका क्या ?

धनुष्य : राम के पैरों में ही रखा और मुझे अपनी पादसेवा करने का अवसर दिया ।

राम : परंतु तुम्हारे २ टुकडे हुए, उसका क्या ?

धनुष्य : उन्होंने मेरा अहंकार तोड डाला । मेरे २ टुकडे अवश्य हुए; परंतु उन २ टुकडों के कारण दो जीवों का (राम-सीता) मिलन हुआ ।

इससे धनुष्य की पादसेवन भक्ति ध्यान में आती है । स्वयं निर्जीव होते हुए भी उसने भक्ति की, इससे यह सीखने को मिलता है ।

 

४. जलदेवता की पादसेवन भक्ति

जलदेवता भी भगवान की चरणपूजा हेतु आतुर रहते हैं । भगवान के चरण धोने को नहीं, अपितु भगवान के चरणस्पर्श से स्वयं को पावन करने तथा भगवान के चरणों में जाने हेतु आतुर रहते हैं । वैकुंठ में गंगा को श्रीविष्णुजी के चरणों का अखंड स्पर्श होता रहता है । यह गंगामाता और जलदेवता की पादसेवन भक्ति का ही फल है ।

 

५. पादुकाओं की पादसेवन भक्ति

पादसेवन भक्ति करनेवाली और एक भक्त हैं गुरुपादुकाएं ! गुरुपादुकाएं केवल गुरुचरणों में रहने हेतु ही होती हैं । गुरुचरणों में रहने के लिए आतुर होने से उन्हें गुरुचरणों का अखंड स्पर्श और उनके निकट रहने को मिलता है । यही उनकी पादसेवन भक्ति है !

 

६. पृथ्वीमाता की पादसेवन भक्ति

पृथ्वीमाता भी भगवान श्रीविष्णुजी के चरणस्पर्श के लिए आतुर रहती हैं, यह उनकी पादसेवन भक्ति है । पृथ्वीमाता की पादसेवन भक्ति से प्रसन्न होकर ही उन्हें पादसेवन भक्ति करने का अवसर देने के लिए प्रत्यक्ष भगवान श्रीविष्णुजी विविध अवतार धारण कर पृथ्वी पर आए और अपने चरणस्पर्श से पृथ्वीमाता को पावन बनाए ।

जब भगवान राम ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या बाई की शापग्रस्त शिला को अपने चरणों से छुआ तो शिला से वे नारी रूप में वापस आ जाती हैं ।

इस पर गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं —

रज सीर हिय नयनन्हि लावहीं | रघुवर मिलन सरिस सुख पावहीं ||
नित पूजत प्रभु पावरी प्रीती ना ह्रदय समाती |
मांगी मांगी आयसु करत राज काज बहु भाती ||

अहिल्या भगवान के चरण रज पाकर कृतार्थ हो जाती हैं और कहती हैं —

‘हे जगनिवास ! आपके चरण कमल में लगे हुए रज कण का स्पर्श पाकर आज मैं कृतार्थ हो गई |

अहो ! ब्रह्मा, शंकर, आदि चित लगा कर सदा आपके जिन चरणविन्दों का अनुसंधान किया करते हैं, आज मैं उन्हीं का स्पर्श कर रही हूं |’

भगवान के चरणों का आश्रय लेने से मनुष्य के सभी दोषों का नाश हो जाता है, उसकी सारी विपत्ति टल जाती है और गोपद के समान वह संसार से तर जाता है |

शास्त्रों और संतों ने भी पादसेवन भक्ति का गुणगान किया है । श्री शंकराचार्यजी कहते हैं कि भगवान की चरणकमल रूपी नौका ही संसार सागर से पार उतारने वाली है । सभी भक्त भगवान के चरणों की भक्ति करने के लिए व्याकुल रहते हैं ।

संत कबीरदास चरण कमल में विश्‍वास रखने का उपदेश देते हैं ।

संत कबीरदास

१. राम चरन जाके रिदे बसत है, ता जन का मन क्यों डोले ।

जिसके हृदय में राम के चरणों का वास होता है, उसका चित्त कभी नहीं डोलता ।

२. चरण कवंल चित्त लाइ, राम नाम गुण गाइ रे । कहे कबीर संसा नहीं भक्ति मुक्ति गति पाइ रे ॥

भक्ति और मुक्ति के लिए चरणकमल से चित्त लगाकर उनसे प्रीति करना आवश्यक है ।

३.‘‘गुरु पद नख मणि गन ज्योति ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ॥’’

संत तुलसीदास

तुलसीदास जी ने यहां गुरुचरणों की जिस महिमा का बखान किया है वह अद्भुत और सुंदर है । गोस्वामीजी गुरुचरणों के नख के विषय में यहां बडी ही रहस्यमयी बात बताते हैं । वे कहते हैं गुरु – पद – नख में मणियों की ज्योति दिखाई देती है । ऐसे गुरु के चरणों के नखों के स्मरण से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है ।

इससे हमें अब समझ में आ रहा है कि जो भगवान के चरणों पर पुष्पार्चन न करे, उनका वंदन न करे उसका जीवन व्यर्थ है ।

जो एकाग्रचित हो भगवान के चरणों में शरणागत होकर उनकी स्तुति करते हैं वे जीवनमुक्त दशा को पहुंचते हैं । पाद सेवन भक्ति से मन में दीनता व नम्रता का भाव जागृत होता है । पाद सेवन भक्ति से नम्रता बढने पर व्यक्ति में अहंकार के प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है, जिससे उसकी भक्ति का विकास होता है । पादसेवन से भक्त में शराणगतभाव बढता है और वह मन ही मन भगवान के चरणों का ध्यान करने लगता है । वह मन ही मन हर समय हरि चरणों की स्तुति करता रहता है । उसमें हरि चरणों के प्रति अनन्य अनुराग उत्पन्न हो जाता है ।

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