वृद्धावस्था में वृद्धों का आचरण कैसा हो, इस संदर्भ में कुछ सरल सूत्र

२१ वीं शताब्दि की ओर अग्रसर होते देखा जाए, तो लगभग ८० प्रतिशत जनता (बच्चे) अपने जन्म देनेवाले मां-बाप की उपेक्षा करती है । जिन्होंने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में बडा किया, बडे होने अथवा विवाह होने पर हम उनका द्वेष, तिरस्कार करते हैं, कभी भूल भी जाते हैं; परंतु उस समय हम यह भूलते हैं कि, ‘हम भी कभी बूढे अथवा वृद्ध होनेवाले हैं ।’ मां-बाप की वृद्धावस्था में बच्चों से जो अपेक्षा होती है, वह पूरी नहीं हो पाती ।

इसलिए मैं तो यह बताना चाहता हूं कि भविष्य में जो मां-बाप होनेवाले हैं, जो हुए हैं तथा अभीतक जिनके हाथ में सर्व अधिकार हैं, ऐसे मां-बाप आगे दिए हुए सूत्रों पर यदि सावधानी बरतेंगे, तो वृद्धावस्था में जो समस्याएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें अपनेआप सुलझाना सरल होगा ।

 

वृद्धावस्था में आचरण ऐसा हो !

१. प्रत्येक घटना के साथ-साथ अपने वृद्धत्व की ओर भी तटस्थता से देखें । इन बातों में मन से उलझना अल्प करने का प्रयास करें ।

२. वृद्धावस्था में बीती आयु में मिले मान-सम्मान, अधिकारों का अन्यों पर दुरुपयोग न करें । इससे अकारण संघर्ष, तनाव एवं दुःख उत्पन्न होगा ।

३. परिवार में हम किसी पर बोझ न हो, इसलिए जितना संभव हो सके, ऐसे छोटे-बडे काम स्वयं करें ।

४. अपना आचरण परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए । सर्व प्रकार का दायित्व बच्चों पर सौंप दें । बच्चों के पूछने पर ही उचित परामर्श दें । अनावश्यक परामर्श न दें ।

५. अपनी युवावस्था के समय आचरण में लाई जानेवाली रूढियां, परंपराएं, संस्कार आदि वृद्धावस्था में (परिवर्तित जीवनपद्धति का विचार कर) युवाओं पर न लादें । साथ ही नई पीढी पर टिप्पणी न करें, अपितु उनके साथ सुसंवाद करें ।

६. कितनी भी गंभीर परिस्थिति उत्पन्न हो जाए, अपना बचाया हुआ धन बच्चों को न दें । इस प्रकार की उदारता भविष्य में कष्टदायक हो सकती है ।

७. समाज में आज भी स्वयं अर्जित किया धन वृद्धावस्था के लिए बचाकर रखनेवाली महिलाएं अल्प हैं । अतः पति बचाया हुआ सर्व धन बच्चों को देकर अपनी ही पत्नी को आश्रित न बनाएं ।

८. अपने निद्रानाश के संदर्भ में तथा वर्तमान गतिमान जीवनशैली एवं परिवार के छोटे-बडे सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक चिंता न करें ।

९. घर के सदस्यों को किसी प्रकार की बाधा न हो, इसलिए अपने सभी कामकाजों में प्रसंग आने पर पूर्णतः परिवर्तन करने की मानसिक तैयारी रखें ।

१०. प्राकृतिक सुंदरता में मन को रमना सिखाएं । प्रतिदिन सवेरे खुली हवा में घूमने जाएं । इससे आनंद भी मिलेगा तथा व्यायाम भी होगा ।

११. दिन का अधिकांश समय आध्यात्मिक वाचन, मनन, चिंतन तथा ध्यान में लगाएं । अन्य बातों को अत्यल्प महत्त्व दें ।

१२. सतत ध्यान लगाकर आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्नरत रहें ।

१३. भोजन में जितना हो सके; चावल, रोटी, मीठे, तले हुए पदार्थों की मात्रा अल्प कर उसके स्थान पर सब्जियां, कचूमर, फल, दूध, छाछ, दही आदि की मात्रा बढाएं ।

१४. शारीरिक स्वच्छता, मानसिक तथा भावनिक पवित्रता बनाए रखें ।

१५. वृक्षों पर आनेवाली नई हरीभरी कोंपलों का विचार कर मन सदैव आनंदित रखें । पुराने पत्ते तो गिरनेवाले ही हैं ।

श्री. दिलीप हिरालाल हेडा, सटाणा, जनपद नासिक, महाराष्ट्र.

(संदर्भ : अक्कलकोट स्वामीदर्शन)

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