विदेशियों को संस्कृत भाषा का महत्त्व समझ में आता है, किंतु भारतीयों द्वारा इस भाषा की उपेक्षा !

भारत में पिछले ७ दशकों से लगातार मैकाले शिक्षा पद्धतिनुसार विद्यार्थियों को शिक्षा देने के कारण अंग्रेजी भाषा को ही ‘कैरियर’ का केंद्रबिंदु समझा जाने लगा है । भारतवासियों पर अंग्रेजी भाषा का बढता प्रभाव और उसका परिणाम चिंता का विषय है । प्रस्तुत लेख से यह ध्यान में आता है कि विदेशी नागरिकों को संस्कृत भाषा का महत्त्व समझ में आया; किंतु स्वभाषा के अमूल्य एवं अलौकिक ज्ञान से भारतीय कितने अनभिज्ञ हैं । संस्कृत का महत्त्व ध्यान में रखते हुए उसके संरक्षण का कर्तव्य निभाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाषाभिमान में वृद्धि की अनिवार्यता स्पष्ट करनेवाला लेख !

 

१. विदेशियों को संस्कृत भाषा के महत्त्व की समझ !

जे.टी. ग्लोवर लंडन के ‘सेंट जेम्स बॉइज स्कूल’ के उपप्रधानाचार्य हैं । उन्होंने वैदिक गणित का अध्ययन किया । वे २५ वर्षों से लंडन में विद्यार्थियों को वैदिक गणित सिखाते हैं; जिनमें अंग्रेज, अमेरिकन, चीनी तथा वेस्ट इंडियन विद्यार्थी हैं; किंतु भारतीय नहीं ! भारत की प्रत्येक पाठशाला में यह भारतीय गणितशास्त्र सिखाना चाहिए’, ऐसा उनका मत है । गणकयंत्र की (‘कैलक्युलेटर’ की) विक्री बंद हो जाएगी इस चिंता से इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता ! जनवरी २०११ में बेंगलूरु  ‘नेशनल हाईस्कूल’ में आयोजित विश्‍व संस्कृत पुस्तक मेले में ग्लोवर आए थे । मैंचेस्टर से माईकेल विलियम्स नामक २५ वर्ष का युवक इस मेले में आया था । वहां के विश्‍वविद्यालय में वह संस्कृत सिखाता है तथा स्वयं पी.एचडी. कर रहा है । वह अत्यंत सहजता से संस्कृत बोल रहा था । वह शांकरमत की पढाई भी कर रहा है । इस स्थान पर विदेशसे आनेवाले अनेक संस्कृत प्रेमी देखकर हमें लज्जित होना पडता है । क्योंकि हमने उसे ‘मृतभाषा’ का स्तर दिया है ।

विदेशियों का, ‘आपकी भाषा उपयुक्त और अच्छी है, उसे जीवित रखो’, यह बताना क्या हमारे लिए लज्जास्पद नहीं है ?

 

२. भारत के विद्यालयीन पाठ्यक्रम में यूरोपीयन विद्वानों
के तत्त्वों का समावेश; किंतु भारत के श्रेेष्ठ महापुरुषों की शिक्षा की उपेक्षा !

हमारे यहां राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों को पश्‍चिमी, विशेषतः यूरोपीयन विद्वानों के मत तथा उनके विचार सिखाए जाते हैं । इनमें प्लूटो, एरिस्टॉटल, मैकियावली आदि मुख्य हैं । उन्हें चाणक्यनीति, श्रीकृष्णनीति, कणिकनीति, विदुरनीति अथवा भीष्मनीति नहीं सिखाई जाती । किसी यूरोपीयन तत्त्वज्ञानी की अपेक्षा ये सभी श्रेष्ठ विद्वान थे । विद्यार्थियों को उपरोक्त भारतीय विद्वानों के ज्ञान की जानकारी न होने के कारण यह ज्ञान भविष्य की पीढी तक कैसे पंहुच पाएगा ? यह ज्ञान आत्मसात करने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है जो बहुत कम लोगों को है । पाठशाला और महाविद्यालयों में संस्कृत सिखानेवाले शिक्षकों की संख्या घटती जा रही है । इंग्लैंड में ‘व्यवस्थापन’ (‘मैनेजमेंट स्टडी’) सिखाने के लिए समर्थ रामदास स्वामी का ‘दासबोध’ उपयुक्त ग्रंथ माना गया है । हमारे यहां ‘दासबोध’ जलाने की बात की जाती है ! क्या अंग्रेजी भाषा के पाठ्यक्रम में समाविष्ट करने पर ही हमें उसका महत्त्व समझ में आएगा !

 

३. संस्कृत पुस्तक मेले में आए संस्कृत प्रेमी – आशा की किरण

इस मेले में गीता, योग, पर्यावरण, ललित, कला, विज्ञान आदि अनेक विषयों पर लिखे ग्रंथ, सीडी और डीवीडी मिलाकर ३०० ग्रंथ प्रकाशित हुए । कुल ४ करोड रुपए से अधिक के ग्रंथों की विक्री हुई और दानपात्र में ९० लाख रुपए जमा हुए । संस्कृत ग्रंथ क्रय करने के लिए लंबी कतार लगी थी । यह दृश्य स्वप्नसदृश था । मध्य प्रदेश के ‘जिरी’ नामक (संस्कृत) गांव से ४३ लोग आए थे । इस गांव में केवल संस्कृत बोली जाती है । कर्नाटक और बिहार में ऐसे गांव हैं; किंतु उनके नाम ज्ञात नहीं । इस सम्मेलन में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इजरायल, नेपाल, ब्रह्मदेश, पोलैंड आदि देशों के प्रतिनिधि आए थे ।

 

४. प्रचीन साहित्य का महत्त्व न समझने के कारण भारतीयों की अपरिमित हानि !

इसके विपरीत एक स्विस विदुषी कुछ वर्ष पूर्व हमारे यहां आई थी । पुणे और उसके आसपास के गांवों में घूमकर उसने लोगों से पुराने कागज, धार्मिक ग्रंथ आदि सामान खरीदे । अनेक लोगों ने अटारी (लॉफ्ट) आदि स्थानों से पुराने कागजात, धार्मिक ग्रंथ और हस्तलिखित निकालकर उसे दिए । यह मूर्ख स्त्री इस पुराने सामान के लिए  पांच-दस हजार दे रही है, यह देखकर लोगों को हंसी आ रही थी । ऐसे १६९ कागजात लेकर वह चली गई । देनेवालों को उसका महत्त्व ज्ञात नहीं था । संस्कृत में पी.एचडी. किए भारत के ही एक युवक को अच्छा वेतन देकर उसका भाषांतर करते हुए संगणक में सुरक्षित रखने का काम वहां हो रहा है । उस पर आधारित किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर लिखा ग्रंथ हमारे यहां आएगा, तब कॉपीराइट (अधिकार) वहां का रहेगा !

 

५. विदेशों में योग विद्या का प्रसार किया जा रहा है किंतु भारत में
योग विद्या का प्रसार करनेवाले की अपकीर्ति की जाती है, यह एक बडा षड्यंत्र है !

महेश योगीजी ने विदेशों में बडे पैमाने पर भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का प्रचार किया । संसार में १८२ देशों में उनके केन्द्र हैं । अनेक विदेशी साधक शाकाहारी रहकर हिन्दू जीवनपद्धति के अनुसार आचरण कर रहे हैं । भारत में योग और इस प्रकार के अन्य कार्य करनेवालों को योजनाबद्ध पद्धति से बदनाम किया जाता है । योगऋषि बाबा रामदेव को फंसाने का प्रयत्न किया जाता है । प्रसारमाध्यमों ने अनेक साधु-संतों को बदनाम करने का बीडा उठा रखा है । कुछ वर्ष यातना सहने तथा प्रताडित होने के पश्‍चात वे निर्दोष सिद्ध होते है किंतु उसका उपयोग नहीं होता । लोगों तक गलत संदेश पहले पंहुच चुका होता है । इस षड्यंत्र का उत्तर कब मिलेगा ?

– डॉ. सच्चिदानंद शेवडे, राष्ट्रीय प्रवचनकार, मुंबई.

संदर्भ : दैनिक ‘तरुण भारत’, १५.३.२०१५

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