‘भाषसु मुख्या मधुरा दिव्या गिर्वाणभारती । ’

‘भाषसु मुख्या मधुरा दिव्या गिर्वाणभारती । ’

अर्थ : सभी भाषाओं में, देववाणी संस्कृत प्रमुख भाषा है और यह मधुर और दिव्य है ।

 

१. व्याकरण की दृष्टि से सबसे योग्य और शुद्ध भाषा संस्कृत !

संस्कृत को मृत भाषा, विशेष समाज की भाषा, निरुपयोगी भाषा इत्यादि कहकर तुच्छ दर्शाने के स्थान पर यदि प्रत्येक व्यक्ति इसे सीखने और आत्मसात करने का प्रयत्न करता है, तो उसे निश्‍चित रूप से शांति मिलेगी । व्याकरण की दृष्टि से योग्य शब्दों से वाक्य बनाकर, उसका क्रम बदल देने से अर्थ नहीं बदल सकता । अत: व्याकरण की दृष्टि से सबसे योग्य और शुद्ध भाषा संस्कृत ही है !

 

२. पूर्वजों द्वारा दिया गया ज्ञान शुद्ध, सात्त्विक, निर्मल और सभी के लिए उपयोगी

हमारे पूर्वजों ने जो वैज्ञानिक ज्ञान और कसौटी पर खरे उतरे अपने अनुभवों को हमारे सम्मुख रखा है, क्या हम उन्हें इसीलिए अस्वीकार कर दें क्योंकि वे हमारी जाति के नहीं हैं ? इसका विचार करने का अब समय आ गया है । ज्ञान तो ज्ञान ही होता है । शुद्ध, सात्त्विक और सभी के लिए उपयोगी ! वह बहुसंख्यक अथवा अल्पसंख्यक, सभी के लिए उपयुक्त होता है । उसमें कोई भेदभाव नहीं होता । ज्ञान देने से बढता है और अपने पास रखने से उसके नष्ट होने की संभावना होती है ।

 

३. संस्कृत भाषा में विविध स्तोत्र दृढ संकल्प निर्माण करते हैं ।

संस्कृत भाषा में रामरक्षा, सूर्यकवच, गणपति अथर्वशीर्ष, प्रज्ञा विवरघन आदि मन में शांति उत्पन्न करते हैं और दृढ संकल्प निर्माण करते हैं ।’

– डॉ. श्रीधर म. देशमुख

संदर्भ : ‘स्वयंभू’, दिवाली अंक २००९

 

४. संस्कृत भाषा में विलोमकाव्य !

‘विलोमकाव्य’ यह विशेष प्रकार की काव्य-रचना है । यह रचना संस्कृत भाषा में पाई जाती है । इसमें शब्दरचना ऐसी होती है कि इसके श्‍लोक की पहली पंक्ति को अंतिम शब्द से प्रथम शब्द तक (विलोम पद्धति, अर्थात उलटी) पढने पर दूसरा श्‍लोक तैयार होता है ।

 

५. व्याकरण के जटिल नियमों का पालन कर संस्कृत भाषा में अद्भुत काव्य की रचना होना

विश्‍व की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा का समावेश था । वेद, पुराण, चिकित्साशास्त्र, वास्तुकला, अर्थशास्त्र, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, युद्धशास्त्र, गणित, ज्योतिषविद्या, नृत्य, संगीत और श्रृंगार जैसे असंख्य विषयों पर संस्कृत में ज्ञान का विशाल भंडार है । इस संस्कृत भाषा ने व्याकरण के जटिल नियमों का पालन कर, एक अद्भुत काव्य निर्माण किया है । यह चमत्कार केवल संयोग नहीं, अपितु ऐसा लगता है कि उस समय अनेक साहित्यकार ऐसी रचनाएं करते होंगे ।

 

६. संस्कृत भाषा में एक ही पंक्ति में भगवान रामचंद्र और भगवान कृष्ण का वर्णन !

लगभग ४५० साल पहले, मराठवाडा के दैवज्ञ सूर्यकवि ने ‘श्री रामकृष्ण काव्यम’ लिखा था । यह काव्य बहुत ही अद्भुत है और संभवत: विश्‍व का एकमात्र काव्य है जिसकी प्रत्येक पंक्ति यदि सीधी पढी जाए, तो उसमें भगवान रामचंद्र के बारे में बताया है और यदि वही मूल संस्कृत पंक्ति को उल्टे क्रम में पढते हैं, तो उसमें भगवान कृष्ण का वर्णन मिलता है ।

इनमें से पहला श्‍लोक इस प्रकार है –

‘‘तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं वंदे यतो भव्यभवं दयाशीः ।’’

६ अ. श्रीराम के पक्ष में अन्वयार्थ

‘मैं उन (श्री रामचंद्र) को प्रणाम करता हूं, जो सीता को मुक्त करते हैं, जिनकी हास्य मुद्रा गंभीर है, वे ऐसे भव्य अवतार हैं जिनसे सर्वत्र दया और शोभा प्राप्त होती है ।

यदि यही पंक्ति उलटी लिख दी जाए तो –

‘शीयादवं भव्यभतोयदेवं संहारदामुक्तिमुतासुभूतम् ।’

६ आ. भगवान कृष्ण के पक्ष अन्वयार्थ

जिनका प्रभामंडल तेजस्वी, जो सूर्य और चंद्रमा के देवता हैं, जो संहार करनेवाले (पूतना को भी) मुक्ति देनेवाले और जो सृष्टि के लिए प्राणभूत हैं (जीवनदाता हैं), ऐसे यदुनंदन को मैं वंदन करता हूं ।

 

७. विलोमकाव्य संस्कृत भाषा के अलौकिक स्वरूप को बढाता है !

संस्कृत के एक बडे विद्वान श्री. वेलंकार द्वारा लिखित पुस्तक केशव भीकाजी धवले प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है । इसमें श्री. वेलंकार ने १५४२ में रचित कविता ‘रसिकरंजन’ का उल्लेख है । लक्ष्मणभट्ट पुत्र रामचंद्र द्वारा रचित इस कविता की पंक्ति यदि सीधे पढी जाए, तो सुंदरता का वर्णन है; परंतु उलटी पढी जाए तो इसका अर्थ है तपस्या । ये दोनों पूर्णत: विपरीत अर्थवाले शब्दों को एक पंक्ति में शब्दबद्ध करना अत्यंत सराहनीय है ।

इस पुस्तक के परिशिष्ट में श्री रामकवि रचित श्री रामकृष्ण विलोमकाव्य के ५ श्‍लोक भी दिए हैं । अंतिम दिए गए पुष्पपात्र बंध काव्य, गोमुत्रिका बंध काव्य और कमलबंध काव्य भी इसीप्रकार की उत्सुकता निर्माण करते हैं ।

ऐसा कहा जाता है कि तंजावुर में विश्‍व का सबसे बडा शिलालेख इसप्रकार लिखा गया है कि सीधे पढने पर रामायण और उलटा पढने पर महाभारत !

लेखक – मकरंद करंदीकर (दैनिक ‘सामाना’, २.९.२०१५)

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