हिंदूओं के देवता और उनकी कुल संख्या

सदैव कहा जाता है कि तैंतीस कोटि (करोड) देवता होते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि प्रमुख देवता तैंतीस हैं और प्रत्येक देवता के एक कोट गण, दूत आदि हैं । ‘कोटि’ शब्द, ‘करोड’ शब्द का बहुवचन है । (‘कोट’ शब्द का अर्थ है, १ करोड और ‘कोटि’ शब्द का अर्थ है, अनेक करोड ।) सूत्र ‘७ ऊ ३ और ४’ में बताए अनुसार देवताओं की उत्पत्ति और लय की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है । इसलिए, उनकी कुल संख्या निश्चित नहीं है । फिर भी, तैंतीस करोड देवताओं की संख्या में सिद्धान्ततः अन्तर नहीं पडता ।

 

प्रमुख तैंतीस देवता

अ. १२ आदित्य, ११ रुद्र, ८ वसु (आठ दिशाओं के स्वामी), १ इन्द्र तथा १ प्रजापति अथवा इन्द्र और प्रजापति के स्थान पर २ विश्वदेव । इस प्रकार, कुल ३३ देवता हुए । इन्द्र और प्रजापति के स्थान पर प्रजापति और वषट्कार अथवा वाक् और ईश्वर ये दो देवता भी तैंतीस करोड देवताओं में गिने जाते है ।

आ. ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश इन तीन प्रमुख देवताओं में से प्रत्येक के ११ करोड देवता होते हैं ।

इ. तैंतीस देवता निम्नलिखित रूपों में हैं – ७ पुरुषदेवता, ७ स्त्रीदेवता, ७ बालदेवता तथा ७ वाहनदेवता । शेष पांच देवता हैं – वायु, अग्नि, वरुण, इन्द्र तथा अर्यमा । इन पांच देवताओं को आकार नहीं होता, ये अमूर्तरूप में ही पूजे जाते हैं । इन्हें ‘अधिभूत देवता’ अथवा ‘अधिदेव’ कहा गया है ।

 

केवल हिन्‍दू धर्म में इतने देवता क्‍यों है?

हिन्‍दू धर्म में कुलदेवता, वास्‍तुदेवता, स्‍थानदेवता, ग्रामदेवता, उपास्‍यदेवता, तथा विविध धार्मिक विधियों में जिनकी पूजा-उपासना करते हैं ऐसे अनेक देवताओं की उपासना करते है । इस विषय में हिन्‍दू विरोधी कहते हैं, अन्‍य धर्म में केवल एक देवता हैं, तो हिन्‍दू धर्म में इतने देवताओं की आवश्‍यकता क्‍यों है ? उन्‍हें यह समझ में नहीं आता है कि देश में प्रधानमंत्री एक ही होता है; परंतु ग्रामपंचायत से लेकर जिला परिषद, महानगरपालिका और आगे प्रत्‍येक राज्‍य के मुख्‍यमंत्री ऐसे अनेक स्‍तर के नेता भी होते है । प्रत्‍येक नेता अपने स्‍तर का कार्य देखता है । यदि एक देश की व्‍यवस्‍था इस प्रकार चलती है, तो अनंत ब्रह्मांड की व्‍यवस्‍था देखनेवाले परमेश्‍वर को भी इसी प्रकार प्रत्‍येक कार्य के लिए अनेक देवताओं की सहायता लेनी होती है । देवता के प्रकार से हम उनके कार्यक्षेत्र की कल्‍पना कर सकते हैं । इससे हम हिन्‍दू धर्म में अनेक देवताओं की संकल्‍पना का शास्‍त्र और महत्त्व समझ सकते है ।

अनेक देवताओं की साधना पर एकाग्रता नहीं होती, तो क्‍या
करें ? एक ही नामजप तथा देवता की साधना करें तो चल सकता है क्‍या ?

अनेक से एक की ओर जाना, साधना का यह एक ध्‍येय होता है । ईश्‍वर एक हैं और इस जगत में जो भी है, वह अनेकानेक है । इस सबसे हमें एक ईश्‍वर की ओर जाना है, यह बात सदैव ध्‍यान में रखें । अब देखते हैं कि यह साध्‍य कैसे करें । अध्‍यात्‍म में अपनी रुचि-अरुचि का महत्त्व नहीं है । मान लीजिए किसी व्‍यक्‍ति को क्षयरोग हो गया है और उसने कहा कि मुझे सल्‍फा की गोलियां पसंद हैं, पेनिसिलीन का इंजेक्‍शन पसंद है, इसलिए मैं वही लूंगा, तो उसका कोई उपयोग नहीं; क्‍योंकि उससे क्षयरोग के जंतु नहीं मरते । उसके लिए आइसोनेक्‍स ही लेनी पडती है । यह भी वैसा ही है । ‘मुझे गणपति प्रिय हैं’ अथवा ‘साईंबाबा प्रिय हैं’, इस रुचि-अरुचि का कोई उपयोग नहीं । इसके परे जाकर शास्‍त्रानुसार साधना करने पर ही आध्‍यात्‍मिक उन्‍नति तीव्र गति से होती है ।

अधिकांश लोगों के पूजाघर में आठ-दस अथवा उससे भी अधिक देवी-देवता होते हैं । मूलतः इतने देवी-देवताओं की आवश्‍यकता नहीं होती । देवताओं की संख्‍या घटाएं, उनका नियोजन करें । पूजाघर में कुलदेवता, श्री गणपति, कुलाचारानुसार बालगोपाल, हनुमान एवं श्री अन्‍नपूर्णा रखें । अन्‍य देवता जैसे शिव, दुर्गा समान किसी उच्‍चदेवता की उपासना करते हों, तो वह रखें । इतने ही देवता पर्याप्‍त हैं । अतिरिक्‍त देवताओं के चित्र तथा मूर्तियों का विसर्जन करें अथवा उन्‍हें किसी देवालय में दे दीजिए ।

 

अध्‍यात्‍म में एकनिष्‍ठा चाहिए ।

पोथी में भी सहस्र शब्‍द होते हैं । कुछ लोग कहते हैं, ‘‘मैंने भागवत के इतने पाठ किए ।’’ केवल पारायण करने में क्‍या अर्थ है ?
संत कबीर ने कहा है,

पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय ॥

केवल पाठ करने की अपेक्षा ग्रंथ में जो बताया है, उसे आचरण में लाएं । पोथी में सहस्रों शब्‍द होते हैं । वे शब्‍द भगवान की लीला का गुणगान करनेवाले होते हैं । भगवान का गुणगान करने की अपेक्षा सीधे भगवान का नाम लें, तो अधिक लाभ होता है । हनुमानजी भी सतत ‘श्रीराम’, ‘श्रीराम’ का जप करते थे । उसकी अपेक्षा एक नामजप पर आना आवश्‍यक है (‘ॐ जय जगदीश हरे’ आरती जो हम अधिकतर गाते हैं, उसमें जगदीश का (श्रीविष्‍णु का) नाम केवल १०-११ बार आया है । श्रीविष्‍णु की शक्‍ति अधिक किसमें है, तो वह है ‘जगदीश’ शब्‍द में । ‘तुम करुणा के सागर’, इन शब्‍दों में श्रीविष्‍णु का वर्णन एवं प्रशंसा है, उसमें विष्‍णुतत्त्व नहीं है । इसीलिए आरती गाने में जो तीन-चार मिनट लगते हैं, उसकी अपेक्षा ‘श्री विष्‍णवे नमः’ का नामजप करने से निश्‍चित ही अधिक लाभ होता है ।) अर्थात अनेक आरतियों से एक आरती की ओर, एक आरती से एक नाम की ओर, हमें निरंतर इस प्रकार अग्रसर होना चाहिए ।

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