सनातन के सभी आश्रमों एवं प्रसारसेवा में सक्रिय साधकों को भावविश्‍व में ले जानेवाले रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में होनेवाले भावसत्संग !

‘जहां भाव, वहां ईश्‍वर’, यह वचन हमने सुना है । स्वयं में भाव उत्पन्न करना कठिन है और दूसरों में भाव उत्पन्न करना, तो उससे भी कठिन है; परंतु रामनाथी (गोवा) के सनातन आश्रम में होनेवाले भावसत्संगों में यह चमत्कार संभव हुआ है, इसकी अनुभूति हुई । इस भावसत्ंसग का वर्णन करनेवाला यह लेख !

 

१. भावजागृति का प्रयोग

‘गुरुदेवजी (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी) हम से मिलने आनेवाले हैं, यह सुनने पर सभी साधक बहुत उत्सुकता के साथ एवं कृतज्ञभाव से उनके आने की ओर दृष्टि टिकाए बैठे हैं । उनकी कृपा प्राप्त होने के लिए वे प्रार्थना कर रहे हैं और इतने में संदेश आता है कि अब वे किसी कारणवश नहीं आ सकेंगे । इसकी सूचना मिलने पर साधकों को थोडा बुरा लगा । ‘क्या हम से कोई चूक हो गई ? क्या हमारी तडप अल्प हो गई ?’ इस पर विचार करते हुए साधक खेद व्यक्त कर रहे हैं तथा शरणागतभाव से याचना कर रहे हैं । इतने में एक साधक का ध्यान गुरुदेवजी के चरणों की ओर जाता है । उन्हें देखने पर सभी के ध्यान में आता है कि गुरुदेव यहां उपस्थित हैं । यह सबके ध्यान में आते ही, किसी के आनंद की कोई सीमा नहीं रह जाती । साधकों की आंखें भावाश्रुओं से भर जाती हैं और वे उन्हें मन-ही-मन नमस्कार कर रहे हैं …’ इस प्रकार के विविध प्रयोग कर, साधक को भावविश्‍व में ले जानेवाला यह भावसत्संग, रामनाथी (गोवा) के सनातन आश्रम की अद्भुत विशेेषता है ।

 

२. भावसत्संग से साधकों के मन निर्मलता की ओर अग्रसर

भाव उत्पन्न करने के लिए किए जानेवाले ऐसे प्रयोगों से साधक अंतर्मुख बनता है । साथ ही, थोडे समय के लिए ही क्यों न हो; वह भावस्थिति का अनुभव करता है । साधक के अंतर्मन में उभरनेवाली प्रतिक्रियाएं, स्वभावदोष एवं अहं के विचार, बाहर आने लगते हैं और उसका मन निर्मल होने लगता है । विचारों और अहंकार से खाली हुआ मन चैतन्य, कृतज्ञता एवं भावभक्ति से भर जाता है । माया में छिपे सुख-दुख के विचारों से दूर जाकर ईश्‍वर के आनंदमय विचारों में साधक स्वयं को भूल जाता है । इन कुछ मिनटों के प्रयोग में वह ईश्‍वर से मिलने हेतु आतुर रहता है और उसको साधना हेतु अनेक हाथियों जितना आध्यात्मिक बल प्राप्त होने का भान होता है ।

 

३. भावजागृति के प्रयास हेतु दिशा मिलना तथा कुछ समयतक
भाव जागृत रहने पर, स्वयं को कोई बहुमूल्य वस्तु मिलने जैसा आनंद होना

प्रत्येक साधक दिनभर भाववृद्धि हेतु आवश्यक प्रयास सुनिश्‍चित करता है । तब वह किसी साधक में श्रीकृष्ण का अनुभव करता है, तो कोई अन्य साधक अपना कर्तापन समर्पित कर, ‘श्रीकृष्ण ही मुझसे सब करवा रहे हैं’, इस आनंददायक विचार में मग्न रहता है । इसी प्रकार कोई ‘गुरुदेव मेरी ओर देख रहे हैं’, इस भाव से प्रत्येक कार्य करता है, तो कोई ‘सबकुछ गुरुदेव के लिए कर रहा हूं’, इस भाव से प्रत्येक कार्य करता है । इस प्रकार एक आनंददायक भावसत्संग की समाप्ति पर, वह अगले भावसत्संग की आतुरता से प्रतीक्षा करता है ।

 

४. भावसत्संग से साधक के अंतर्मन का कपाट
खुलना, उसमें ईश्‍वर का स्थान बनाने का प्रयास होना तथा अनजाने
में स्वभावदोष एवं अहं का निर्मूलन होकर मुख पर आनंद का भाव प्रकट होना

कुछ साधकों को अपने मन में भरे प्रतिक्रियात्मक एवं अहं के विचार खुलकर बताने में संकोच होता है । परंतु वे, भावसत्संग में पूछे गए प्रश्‍नों का खुले मन से उत्तर देते हैं । इससे साधकों के मन में व्याप्त पूर्वाग्रह, कर्तापन आदि के विचार निकल जाते हैं तथा आगे वे अपना मन ईश्‍वर के चरणों में समर्पित करने लगते हैं । इसके पश्‍चात, वे अपना अंतर्मन खोलकर उसमें ईश्‍वर के लिए स्थान बनाने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार, ‘स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया कब आरंभ हुई’, यह उसे भी पता नहीं चलता । परंतु, संतों के सहवास में कभी-कभी ही अनुभव होनेवाला हलकापन एवं पूर्णरूप से तनावरहित स्थिति का आनंद उसके मुखपर दिखाई देता है ।

 

५. भावजागृति का अभ्यास करते समय
साधक को, ‘ईश्‍वर भाव का भूखा है’, इस कथन का अनुभव होना

‘ईश्‍वर भाव का भूखा होता है’, इस कथन का अनुभव करना साधक सीखें तथा भाव की स्थिति दिनभर टिकी रहे, इसके लिए उन्हें गृहपाठ दिया जाता है । इस गृहपाठ के माध्यम से साधक अपने मन की स्थिति समझने लगता है । इससे उसे, मन की संघर्षपूर्ण अवस्था में भी कभी-कभी ईश्‍वर के दर्शन होते हैं, तो कभी-कभी सहयोगी साधक में ईश्‍वर के दर्शन होते हैं । सामान्यतः, बहुत परिश्रम से होनेवाला कार्य भी, भावयुक्त साधक बडी सहजता से कर पाता है । उसे बडी सहजता से अनुभव होने लगता है कि ईश्‍वरीय शक्ति मेरे साथ है, मेरे आसपास का वातावरण आनंद से भरा हुआ है और मन में आनेवाले विचारों में सकारात्मक परिवर्तन हुआ है । इस प्रकार साधक अनुभव करता है कि उसे विविध घटनाओं और सजीव-निर्जीव वस्तुओं के माध्यम से ईश्‍वरीय सहायता मिल रही है ।

 

६. कृतज्ञता

भाव कैसा होता है अथवा उस समय मन में क्या चल रहा होता है ?’, इसका शब्दों में उत्तर दे पाना कठिन है । इसका एकमात्र उत्तर है, प्रत्येक व्यक्ति इसका अनुभव करे । साधकों को भावविश्‍व में ले जानेवाला भावसत्संग आरंभ करने के लिए, परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के प्रति कृतज्ञ हूं ।’

– श्री. यज्ञेश सावंत, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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