श्रीराम के जीवन की विशेषताएं

श्रीराम के जीवन की अन्य विशेषताएं अभी हम समझकर लेंगे । भगवान श्रीराम जहां-जहां गए वहां का एक अलग ही इतिहास और परंपरा बन गई । उन्होंने अपने जीवन में कई ऐसे कार्य किए जिनसे समाज, परिवार और जनता को लाभ हुआ । आइए, समझ लेते हैं श्रीराम के ऐसे ही कुछ कार्यों के बारे में ।

 

१. प्रभु श्रीराम के साथ बंधु लक्ष्मण का त्याग भी उल्लेखनीय है ।

हनुमानजी की भांति लक्ष्मणजी की भी श्रीराम के प्रति भक्ति बहुत अदभुत थी । आइए जानते हैं लक्ष्मणजी की श्रीराम के लिए त्याग की कथा

श्रीराम के अयोध्या के राजा बनने के पश्‍चात एक दिन अगस्त्य मुनि श्रीराम से मिलने अयोध्या आए । वार्तालाप करते हुए लंका युद्ध का प्रसंग छिड गया । श्रीराम ने उन्हें बताया कि किस तरह उन्होंने रावण तथा कुम्भकर्ण जैसे असुरों का वध किया । उन्होंने अगस्त्य मुनि को लक्ष्मणजी की वीरता के बारे में बताते हुए कहा कि लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों का वध किया । यह सुनकर अगस्त्य मुनि ने श्रीराम से कहा कि भले ही रावण और कुंभकर्ण महान योद्धा थे । परंतु लक्ष्मण ने इंद्रजीत का वध किया । इसलिए वे सबसे बडे योद्धा हुए ।

अपने भाई की वीरता की प्रशंसा सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए और उत्सुकता से उन्होंने अगस्त्य मुनि से पूछा कि इंद्रजीत का वध रावणवध से अधिक कठिन कैसे था ?

श्रीराम की उत्सुकता को शांत करने के लिए अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को बताया कि इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो चौदह वर्षों तक सोया न हो, जिसने चौदह वर्ष किसी स्त्री का मुख न देखा हो और न ही चौदह वर्ष भोजन ग्रहण किया हो ।

यह सुनकर श्रीराम बोले वनवास के समय मैं नियमित रूप से लक्ष्मण को उनके हिस्से के फल-फूल देता रहा हूं । मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है ?
अगस्त्य मुनि श्रीराम की बात सुनकर मुस्कुराए और कहा क्यों न लक्ष्मणजी से पूछा जाए ।

अपने प्रश्‍नों के उत्तर जानने के लिए श्रीराम ने लक्ष्मणजी को बुलाया और कहा कि हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे, फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ? फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे और 14 वर्षों तक बिना सोये कैसे रहे ?

लक्ष्मणजी ने श्रीराम को बताया कि मैंने कभी सीता मां के चरणों के ऊपर देखा ही नहीं । आपको स्मरण होगा जब सुग्रीव ने हमें सीता मां के आभूषण दिखाकर पहचानने के लिए कहा तो मैं उनके पैरों के आभूषण के सिवाय कोई और आभूषण नहीं पहचान पाया था ।

आप और माता एक कुटिया में सोते थे । मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढाए पहरा देता था । जब निद्रा ने मुझ पर नियंत्रण लाने का प्रयत्न किया तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था । तब निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी, परंतु जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खडा रहूंगा, तब वह मुझे आकर घेरेगी । आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था ।

मैं जो फल-फूल लाता था, आप उसके तीन भाग करते थे । एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो । आपने कभी फल खाने के लिए नहीं कहा, फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे कैसे खाता ? मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया और वह अभी भी उसी कुटिया में रखे होंगे । श्रीराम के कहने पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से उन सभी फलों के टोकरे लेकर आए और दरबार में रख दिए । जब फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे ।

उन सात दिनों के हिस्से के फलों के बारे में लक्ष्मणजी ने बताया कि उन सात दिनों में फल आए ही नहीं थे । वह इसप्रकार – जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे । जिस दिन रावण ने सीता माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता ? जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे, जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे, जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में रहे, जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी और जिस दिन आपने रावण-वध किया । इन ७ दिनों हमने भोजन नहीं किया ।

विश्‍वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था – बिना आहार किए जीने की विद्या । उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका, जिससे इंद्रजीत मारा गया । भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर, उन्हें हृदय से लगा लिया ।

 

२. ऋषियों के आश्रमों को राक्षसी आतंक से मुक्ति दिलाई

प्रभु श्रीराम ने विश्‍वामित्र, अत्रि, अगस्त्य मुनि आदि ऋषियों जैसे कई ऋषियों के आश्रम को असुरों और राक्षसों के आतंक से मुक्त कराया था । इसके अलावा उन्होंने अपने 14 वर्ष के वनवास में कई राक्षसों और असुरों का वध किया ।

 

३. दंडकारण्य में वनवासियों के बीच श्रीराम का कार्य

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ था ।  इस दौरान संतों के आश्रमों को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के बाद प्रभु श्रीराम दंडकारण्य क्षेत्र में चले गए, जहां आदिवासी बहुसंख्या में थे । यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद प्रभु श्रीराम १० वर्षों तक वनवासियों के बीच ही रहे ।

वन में रहकर उन्होंने वनवासियों को धनुष एवं बाण बनाना सिखाया और धर्म के मार्ग पर चलकर अपने रीति-रिवाज कैसे संपन्न करने के लिए बताया । उन्होंने आदिवासियों के बीच परिवार की धारणा का विकास किया और एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाया । उन्हीं के कारण हमारे देश में आदिवासियों के कबीले नहीं, अपितु समुदाय होते हैं । उन्हीं के कारण देशभर के आदिवासियों के रीति-रिवाजों में समानता पाई जाती है ।

 

४. शबरी जैसे भक्तों का उद्धार करना

शबरी श्रीराम की परम भक्त थीं । जिनकी भक्ति के कारण भगवान राम ने उनके झूठे बेर भी प्रेमपूर्वक खाए थे । शबरी का असली नाम श्रमणा था । वह भील समुदाय के शबर जाति की थीं । इसीलिए कालांतर में उनका नाम शबरी पडा ।

उनके पिता भीलों के मुखिया थे । श्रमणा का विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था और विवाह से पहले भारी संख्या में पशु बलि चढाने के लिए लाए गए । जिन्हें देख श्रमणा बहुत आहत हुईं । यह कैसी परंपरा है ? न जाने कितने मूक और निर्दोष जानवरों की हत्या की जाएगी । इस कारण शबरी विवाह से १ दिन पूर्व भागकर, दंडकारण्य वन पहुंच गईं ।

दंडकारण्य में मतंग ऋषि तपस्या करते थे । श्रमणा उनकी सेवा तो करना चाहती थी; परंतु वह भील जाति की होने से पता था कि उन्हें इस सेवा का अवसर नहीं मिलेगा । फिर भी शबरी तडके सवेरे-सवेरे ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ कर देती थीं और कांटे चुनकर रास्ते की बालू साफ कर देती । यह सब वे इतने गुप्तरूप से करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था ।

१ दिन ऋषि श्रेष्ठ को शबरी दिख गईं और सेवा से अति प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी । जब मतंग का अंत समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे इसी आश्रम में भगवान राम की प्रतीक्षा करें । वे उनसे मिलने अवश्य आएंगे ।

मतंग ऋषि के देहत्याग के उपरांत शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा । वे प्रतिदिन अपना आश्रम स्वच्छ करतीं । प्रतिदिन ही राम के लिए मीठे बेर तोडकर लाती और बेर में कीडे न नहों और न ही वे खट्टे हों, इसलिए वह प्रत्येक बेर चखकर रखतीं थीं । ऐसा करते-करते अनेक वर्ष बीत गए ।

एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुंदर युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं, वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं.. तब तक वे वृद्ध हो चली थीं, लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उनमें चुस्ती आ गई और वे दौडती हुईं अपने राम के पास पहुंची और उन्हें आश्रम ले आईं । फिर उनके चरण धोकर बैठाया और मीठे बेर दिए । भगवान राम ने बडे ही प्रेम से वे झूठे बेर खाए ।

 

५. समुद्र पर रामसेतु बनवाने का महान कार्य करना

द्वापर युग में सैटेलाईट जैसे उपकरण तथा आधुनिक महायंत्र न होते हुए भी श्रीलंका जाने के लिए सबसे कम अंतर का मार्ग प्रभु श्रीराम ने खोजा । इसके बाद प्रभु श्रीराम ने नल और नील के माध्यम से ४८ किलोमीटर का विश्‍व का पहला सेतु बनवाया था और वह भी समुद्र के ऊपर । आज उसे रामसेतु कहते हैं जबकि राम ने इस सेतु का नाम नल सेतु रखा था । रामसेतु के संदर्भ में विभीषण ने जब श्रीराम से कहा कि यह सेतु मेरे राज्य के लिए सदैव संकट बना रहेगा, तो श्रीराम ने लंका से लौटने के उपरांत स्वयं ही उसे पानी के नीचे डुबो दिया ।

 

६. रामेश्‍वरम् में स्वयं शिव की पूजा कर शिवलिंग की स्थापना करना

रामेश्‍वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है । ब्राह्मण कुल में जन्मे रावण का वध करने के उपरांत ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए रामेश्‍वरम मे शिवलिंग की स्थापना कर, उसकी पूजा की थी । श्रीराम स्वयं अवतार होने के उपरांत भी भगवान श्रीराम ने धर्म का आचरण कर, मानवजाति के सामने एक आदर्श उदाहरण रखा है ।

 

७. अखंड भारत की स्थापना

भगवान श्रीराम ने ही सर्वप्रथम भारत की सभी जातियों को एक सूत्र में बांधने का कार्य अपने १४ वर्ष के वनवास के दौरान किया था । एक भारत का निर्माण कर, उन्होंने सभी भारतीयों के साथ मिलकर अखंड भारत की स्थापना की थी । भारतीय राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल, कर्नाटक सहित नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम इसीलिए पूजनीय माने जाते हैं । आज इंडोनेशिया मुस्लिमबहुल राज्य बनने के उपरांत भी वहां के राजा को ‘राम’ कहा जाता है, वहां की एअरलाईन्स को ‘गरुडा’ नाम दिया गया है और वहां रामायण आज भी प्रचलित है । परंतु अंग्रेज के शासनकाल में ईसाइयों ने धर्मपरिवर्तन का कुचक्र चलाया और श्रीराम को वनवासियों से अलग करने के पूरे प्रयत्न किए, जो आज भी जारी हैं ।

 

८. माता तथा मातृभूमि का सर्वोच्च स्थान

लंकाधिपति रावण का अंत करने के उपरांत भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि लंका जाकर वह विभीषण का राजतिलक संपन्न कराएं ।

लक्ष्मण लंका पहुंचे, तो स्वर्णनगरी की अनूठी शोभा तथा चमक-दमक ने उनका मन मोह लिया । लंका की वाटिका में  भांति-भांति के सुगंधित पुष्पों को वे बडी देर तक निहारते रहे । वहां की चमक-दमक उन्हें आकर्षित कर रही थी ।

विभीषण का विधिपूर्वक राजतिलक संपन्न कराने के पश्‍चात वे श्रीराम के पास लौट आए । उन्होंने श्रीराम के चरण दबाते हुए कहा, ‘महाराज, लंका तो अत्यंत दिव्य सुंदर नगरी है । मन चाहता है कि मैं कुछ समय के लिए लंका में निवास करूं । आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा है ।’

लक्ष्मण का लंकानगरी के प्रति आकर्षण देखकर श्रीराम बोले, ‘‘अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते । जननी जन्मभूमिश्‍च स्वर्गादपि गरीयसी ।’

अर्थात लंका सचमुच स्वर्ग के समान आकर्षक है, प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है, किंतु यह ध्यान रखना कि अपनी मातृभूमि अयोध्या तो तीनों लोकों से कहीं अधिक सुंदर है । जहां मानव जन्म लेता है, वहां की मिट्टी की सुगंध की तुलना, किसी से नहीं की जा सकती ।’’ इससे लक्ष्मण अपनी जन्मभूमि अयोध्या के महत्त्व को समझ गए ।

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