भजन, भंडारों और नामस्मरण के माध्यम से अध्यात्म सिखानेवाले संत भक्तराज महाराज !

श्री. अशोक भांड

७.७.२०१९ से संत भक्तराज महाराज ने १००वें वर्ष में पदार्पण किया है । (यह दिन संत भक्तराज महाराज का १००वां जन्मदिवस) उन्हींकी कृपा से प्रेरणा लेकर उनके सभी भक्तों ने सर्वसम्मति से इस वर्ष को उनके शताब्दी वर्ष में मनाने का सुनिश्‍चित किया है । इसके अंतर्गत जहां-जहां उनके भक्त रहते हैं, वहांपर श्री गुरुचरित्र का पाठ, नामस्मरण, भजन और भंडारों का आयोजन किया जा रहा है ।

इसके अंतर्गत भक्तों ने सद्गुरुचरणों में १३ करोड नामजप समर्पित करने का संकल्प लिया है । समर्पित भक्तों द्वारा श्री भक्तवात्सल्याश्रम, इंदौर (मध्य प्रदेश) में संपूर्ण वर्षतक श्री गुरुचरित्र के पाठ का संकल्प लिया गया है, जो साकार हुआ है । प.पू. बाबा के सभी समर्पित भक्त अपने-अपने गांव/नगरों में सेवा कर इस मंगलकार्य में योगदान देकर स्वयं को धन्य मान रहे हैं ।

इस महत्त्वपूर्ण पुण्यकार्य में सहभागी होकर ‘न भूतो न भविष्यति’, जैसे इस महान कार्य के भागीदार और साक्षी हम सभी भक्त अत्यंत सौभाग्यशाली हैं । सद्गुरुचरणों में प्रार्थना है कि वे सभी भक्तों को बहुत शक्ति, भक्ति एवं चैतन्य प्रदान करें और सभी की इच्छा पूर्ण हो’

सभी शुभकामनाओं सहित !’

– एक सेवक

श्री. अशोक भांड (१०.७.२०१९)

॥ ॐ तत्सत् ॥

 

१. ईश्‍वर द्वारा दिया गया  दुर्लभ मनुष्यजन्म तथा उसका उद्देश्य

१ अ. ‘सभी योनियों में श्रेष्ठ मनुष्ययोनि में जन्म मिलना’ एक अनुपम और श्रेष्ठ योग का होना

भारतीय शास्त्र के अनुसार इस विश्‍व में विद्यमान सभी प्राणिमात्रों में ईश्‍वरप्रदत्त मनुष्ययोनी को सर्वश्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि ईश्‍वर ने मनुष्य को अतित और भविष्य का विचार करने की अद्भूत क्षमता प्रदान की है । मनुष्य की बुद्धि के कारण ही मनुष्ययोनी को अन्य योनियों से अलग माना जाता है । मनुष्यशरीर का मिलना एक अनुपम एवं श्रेष्ठ योग है ।

मनुष्य जीवन अनमोल है । हम सभी को इस मनुष्य शरीर का उपयोग सत्कर्म करने के लिए करना चाहिए । इस अमूल्य उपहार के लिए हमें परमेश्‍वर के प्रति सदैव कृतज्ञ रहना चाहिए । जो जीव इस अमूल्य जीवन को साधारण मानकर उसे व्यर्थ गंवाते हैं, उन्हें इसे ठीक से समझ लेना चाहिए कि यह कोई सामान्य घटना नहीं, अपितु यह एक अत्यंत असाधारण अद्भुत योग है ।

१ आ. निःस्वार्थ भाव से कर्तव्यकर्म का निर्वहन करने हेतु ईश्‍वर ने मनुष्य को इस विश्‍व में भेजा जाना

जीवन का एक सुनिश्‍चित और निर्धारित लक्ष्य होता है । उसे जानकर लेकर निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यकर्म का निर्वहन करने हेतु ईश्‍वर ने हमें इस विश्‍व में भेजा है । पंचमहाभूतों से निर्मित मनुष्यदेह (शरीर) यह एक अत्यंत अद्भुत एवं कठिन रहस्य है । उसे समझकर लेने हेतु अनादि काल से बहुत प्रयास चल रहे हैं; परंतु इस प्रगत मनुष्य को इसका रहस्य जान लेने में बहुत अल्प मात्रा में सफलता मिली है । सद्सद्विवेकबुद्धि से विचार करनेपर यह ध्यान में आता है कि प्राणशक्ति शरीर को चेतनावस्था में रखती है । वह परमपिता परमेश्‍वर, जो इस ब्रह्मांड के स्वामी हैं, उनके अस्तित्व का परिचय करा देता है । उनकी सत्ता से ही विश्‍व में सभी गतिविधियां होती हैं । उनकी इच्छा के बिना पेड का एक पत्ता भी नहीं हिलता । यह प्रचंड शक्ति गुप्त रूप में कार्य करती है ।

१ इ. त्याग में ही वास्तविक आनंद है !

जीवन में लेनेवाली की अपेक्षा देनेवाला अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली होता है । प्रकृति त्याग का प्रतीक है । त्याग में वास्तविक सुख और आनंद है, जो भोग में नहीं है । भोग दुखी जीवन के लिए कारणभूत होते हैं । त्याग में ही वास्तविक आनंद छिपा हुआ है, अर्थात परमेश्‍वर आनंदस्वरूप हैं ।

 

२. प.पू. भक्तराज महाराज द्वारा भजनपंक्तियों द्वारा विशद किया गया सद्गुरु का सामर्थ्य !

अपने एक भजन में बाबा (संत भक्तराज महाराज) कहते हैं,

आँखे दी जो अंधी । मन में है घोर अंधेरा ॥
वे आत्मचक्षू हमको । रूप देखे हम तिहारा ॥

अर्थात सद्गुरु प्रकाशपुंज हैं । उन्हीं की कृपा से हम आत्मचक्षु प्राप्त कर उनके सत्य स्वरूप को जानकर ले सकते हैं ।

 

३. संत भक्तराज महाराज की जीवनी

३ अ. बचपन से ही हृदय में भक्तिज्योति सदैव प्रज्वलित रहने से
भजन एवं श्रवण पसंदीदा रूचि बनना, शिक्षा पूर्ण होते ही छोटे-मोटे काम कर
व्यवसाय को बढाना तथा अनेक दैवीय गुणों के कारण लोगों में सम्मान की भावना होना

बाबा (संत भक्तराज महाराज) का जन्म अत्यंत धार्मिक सामान्य; परंतु प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में हुआ । श्रीराम उनके कुलदेवता ! बचपन से ही भगवद्प्रेम ने उन्हें आकर्षित किया । उनके हृदय में भक्तिज्योति सदैव प्रज्वलित रही, जिसके फलस्वरूप ‘सदैव धार्मिक कार्यों में भाग लेना, भजन, श्रवण, निर्धनों की सहायता करना, यह उनके पसंदीदा कार्य और स्वभाव बना । शिक्षा पूर्ण होते ही उन्होंने अपनी परिवार की स्थिति के अनुरूप नौकरी ढूंढना आरंभ किया ।

नौकरी मिलनेतक शांत न बैठकर उन्होंने छोटे-मोटे काम कर अपना व्यवसाय बढाया; किंतु विधि को यह स्वीकार नहीं था । कुशाग्र बुद्धि, कुशल संवाद कुशलता, तुरंत एवं अचूक निर्णय लेना; इन गुणों के कारण यह बालक आगे जाकर असामान्य बना । इसके कारण सभी उनके साथ सम्मान का भाव रखकर व्यवहार करते थे ।

३ आ. श्री गुरुचरित्र पाठ में रूचि उत्पन्न होना और प.पू. श्रीशामसाईबाबा द्वारा मार्गदर्शन कर प्रोत्साहित करना

उनमें बचपन से ही धार्मिक और आध्यात्मिक साधना की वृत्ति होने के कारण उन्हें ‘श्री गुरुचरित्र’ पाठ में रूचि उत्पन्न हुई । संकटों के समय में भी उन्होंने यथाशक्ति साधना चालू रखी । उसके कारण उनमें प्रतिदिन गुरुप्राप्ति का आकर्षण बढता चला गया । इसी अवधि में प.पू. श्रीशामसाईबाबा ने (यह साईबाबा के शिष्य थे और उन्हीं के आदेश के अनुसार अपने मोरटक्का आश्रम में रहकर जनसेवा कर रहे थे ।) बाबा को साईभक्ति बढाने हेतु मार्गदर्शन किया और प्रोत्साहित किया ।

३ इ. श्री भुरानंद बाबा को ‘स्वामी (श्री अनंतानंद साईश) किसी
के साथ बोल रहे हैं’, इसका आभास होना और पर्णकुटी के द्वार की दरार
से अंदर झांकनेपर उन्हें श्री साईनाथ और उनके स्वामी श्री अनंतानंद साईश एक-दूसरे से बातें
करते हु, दिखाई देना तथा श्री साईनाथजी द्वारा बताए जाने के अनुसार श्री अनंतानंद साईश का इंदौर जाना

जिस प्रकार से सुनार को हिरे की अचूक परख होती है, उसी प्रकार से गुरु को अपने सत्शिष्य की परख होती है । श्री भुरानंद बाबा का (श्री साईशजी के शिष्य) एक ऐसा अनुभव है कि वर्ष १९५६ में स्वामीजी (श्री अनंतानंद साईश) ने एक अनुष्ठान किया । तब वे नर्मदातटपर पू. श्री अवधुत की कुटिया के पास एक झोपडी में रहते थे । उनकी पादसेवा कर जब श्री भुरानंदबाबा वहां से जाने के लिए निकले, तभी उन्हें ‘श्री साईनाथ और उनके स्वामी श्री अनंतानंद साईश एक-दूसरे से कुछ बातें कर रहे हैं, ऐसा दिखाई दिया । साईनाथ स्वामीजी से कह रहे थे, ‘‘मेरी याद इंदौर हो रही है । मुझे इंदौर में ढूंढ रहे हैं । तू और मैं क्या दो हैं ? इंदौर चले जाओ ।’

कुछ दिन पश्‍चात इंदौर आने के पर स्वामी पहले हरसिद्धि मंदिर के पास रहनेवाले मुसलमान फकीर श्री पीरबाबा से मिले । (श्री पीरबाबा श्री शिरडी साईनाथजी के शिष्य थे और उन्हीं के आदेश से इंदौर में जनकल्याण हेतु रह रहे थे ।) उनसे वार्तालाप कर और पहचान कराकर स्वामीजी पालीवार धर्मशाला (कृष्णपुरा) चले गए । श्री अनंतानंदजी को श्री साईबाबा के स्वरूप में देखकर श्री पीरबाबा को श्री गुरु से मिलने का आनंद हुआ था ।

३ ई. श्री अनंतानंद साईश के साथ पहली बार भेंट

३ ई १. प.पू. भक्तराज जब श्री सत्यनारायण कथा के आमंत्रितों की सूची बना रहे थे, तब उनके मित्र के लडके ने ‘क्या साईबाबा को नहीं बुलाएंगे ?’, ऐसा पूछनेपर ‘किसी मुसलमान फकीर को भोजन देकर ही उपवास छोडेंगे’, ऐसा उनके द्वारा सुनिश्‍चित किया जाना ।

प.प. बाबा उनके प्रिय मित्र श्री. हरिभाऊ लांभाते के साथ श्री सत्यनारायण कथा की सूची बनाकर उसे पढ रहे थे । पास ही खेल रही उनकी ६-७ वर्ष की लडकी (माया) कहने लगी, ‘‘काकाजी, आपने सभी के नाम लिखे; परंतु इतने बडे साईभक्त होकर भी आप साईबाबा को नहीं बुलाएंगे ?’’ ये शब्द बाबा के अंतर्मनतक पहुंचे । उन्होंने कहा, ‘‘बेटी, हम साईबाबा को भी अवश्य बुलाएंगे !’’ तब इन दोनों मित्रों ने किसी मुसलमान फकीर को भोजन देकर ही उपवास छोडना सुनिश्‍चित किया ।

३ ई २. श्री सत्यनारायण पूजा के भोग की थाली लेकर पू. पीरबाबा के पास आनेपर उनके द्वारा उसे खाना अस्वीकार कर उस थाली को पालीवाल धर्मशाला में जाने के लिए कहना, उसके अनुसार वहां जानेपर स्वामीजी से भोग ग्रहण करने का अनुरोध करना तथा स्वामीजी की भोग की थाली से कढी और बेसनचिक्की का स्वीकार कर प्रत्यक्ष साई होने के शुभसंकेत दिया जाना

९.२.१९५६ को बाना और उनके घनिष्ठ मित्र श्री. दत्तात्रेय जोशी (वैद्यराज) के द्वारा स्थापित ‘सुनंदा फार्मसी’के उद्घाटन के समय श्री सत्यनारायण पूजा के भोग की थाली लेकर वे पू. पीरबाबा के पास आए । पू. पीरबाबा ने उनसे कहा,‘‘मैने तो रोजा अख्तियार कर लिया है । अब मैं नहीं खाऊंगा ।’’ पू. पीरबाबा ने उनके पास आने का कारण जान लिया और उन्हें पालीवाल धर्मशाला में जाने के लिए कहा । वे कहने लगे, ‘‘वहां आपको जो संत मिलेंगे, मानो वहीं असली साई हैं ।’’ तब सभी लोग थाली लेकर पालीवाल धर्मशाला पहुंचे । तब रात हो चुकी थी । धर्मशाला के हनुमान मंदिर के प्रांगण में स्वामी अंधरे में लेटे हुए थे । बाबाजी ने उनसे तडप के साथ करबद्ध अनुरोध कर उनके सामने भोग की थाली रखी । पहले उसे अस्वीकार करते हुए स्वामीजी ने कहा, ‘‘मैं संन्यासी हूं । मैं एक बार ही खाता हूं ।’’ तब बाबा के प्राण कंठतक आ गए; परंतु कुल मिलाकर स्पष्टीकरण होते ही उन्होंने भोग की थाली से कढी और बेसनचक्की का स्वीकार कर (ये दोनों पदार्थ श्री साईबाबा को भी प्रिय थे ।) स्वामीजी ने उनके प्रत्यक्ष साईं होने का शुभसंकेत दिया ।

३ ई ३. प.पू. बाबाजी ने अंतःकरण से कृतज्ञता व्यक्त करते हुए स्वामीजी के चरणोंपर मस्तक रखनेपर उनके द्वारा ‘बेटा दिनू, मैं तेरे लिए ही आया हूं ।’’, ऐसा कहा जाना और उसे सुनते ही प.पू. बाबा का बिलखकर रोना आरंभ होना, उस समय श्री साईशजी द्वारा प.पू. बाबा को गले लगाकर जागृति किया जाना

वहां से निकलने से पूर्व बाबा ने मौनावस्था में अंतःकरणपूर्वक कृतज्ञता व्यक्त करते हुए स्वामीजी के चरणोंपर माथा टेका । इससे स्वामीजी को उनकी संपूर्ण शरणागति का संकेत मिला । दिनू की पीठपर हाथ फेराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘बेटा दिनू (बाबा), मैं तेरे लिए ही आया हूं ।’’ इसे सुनते ही बाबा बिलखकर रोकर श्रीचरणोंपर आसुओं का अभिषेक करने लगे । तब श्री साईशजी ने उन्हें गले लगाया और जागृत किया । तबतक बाबा संपूर्ण शरणागत हो चुके थे ।

३ उ. ९.२.१९५६ को दिनू की कठिन साधना का अंत होना, तब से लेकर प्रतिवर्ष इस दिन को ‘प्रकटदिवस’के रूप में मनाया जाना और तत्पशचात प.पू. बाबाजी द्वारा सबकुछ भूलकर सद्गुरु की सेवा की जाना

९.२.१९५६ को दिनू की कठिन साधना का अंत हुआ । तब से लेकर प्रतिवर्ष इस दिन को ‘प्रकटदिवस’ के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है । उस दिन से लेकर १ वर्ष १० मासोंतक बाबा सद्गुरु की सगुणसेवा में लीन थे । तब वे अन्यों के साथ स्वयं को भी भूल गए । उनके परिजन, मित्र आदि उनसे दूर हुए । केवल और केवल गुरुसेवा ही उनके जीवन का उद्देश्य शेष रहा ।

३ ऊ. श्री अनंतानंद साईशजी द्वारा प.पू. बाबा को गुरुमंत्र दिया जाना

१५.२.१९५६ को श्री अनंतानंद साईशजी ने बाबा को नर्मदामाता की साक्ष्य से गुरमंत्र दिया । तत्पश्‍चात उनके गुरु श्री प.पू. चंद्रशेखरानंद स्वामीजी की पादुओं का दर्शन कराया । वहां से स्वामीजी सभी के ओंकारेश्‍वर महादेव मंदिर के दर्शन करने लेकर गए । रात में निवास हेतु श्री शामसाई सदन (मोरटक्का) आ गए ।

३ ए. संत भक्तराज महाराज द्वारा ‘बाप माझा हो ज्ञानवंत’ भजन को
सद्गुरु श्री साईशजी के चरणों में समर्पित किए जानेपर स्वामीजी द्वारा प्रसन्न
होकर दिनू को ‘भक्तराज’ उपाधिसे अलंकृत किया जाना, उसके पश्‍चात प.पू. बाबा को अनेक
मराठी और हिन्दी भजन सुझने लगना और उनके द्वारा उन भजनों को सद्गुरु को गाकर सुनाया जाना

१६.२.१९५६ की प्रातः पहले प्रहर में सद्गुरु के लिए चूल्हेपर पानी गर्म करते समय सद्गुरुकृपा से उनकी जिव्हापर सरस्वतीमाता प्रकट हुईं । उनके श्रीमुख से ‘बाप माझा हो ज्ञानवंत’ भजन सद्गुरु श्री साईशजी के चरणों में समर्पित हुआ । उसे सुनकर स्वामीजी अतिप्रसन्न हुए । उन्होंने तुरंत ही बाबा को ‘भक्तराज’ उपाधि से गौरवान्वित किया । उसके पश्‍चात मानो भजनों का झरना ही बहने लगा । बाबा भजन लिखकर उनकी तर्ज बनाकर सद्गुरु के सामने तालियां बजाते हुए भजन गाते थे । सद्गुरुमाता भी ध्यान देकर उनके भजन सुनती थी । शब्द अथवा तर्ज चूकनेपर वे उसे सुधार देते थे । श्रीमुख से अनेक बार भजन गाने के कारण इन भजनों को सिद्धमंत्रों का स्वरूप प्राप्त हुआ है । उनसे भजनों का निरंतर प्रवाह चलता रहा । इस अवधि में बाबा ने अनेक मराठी और हिन्दी भजन लिखे ।

३ ऐ. श्री साईशजी द्वारा भक्तों के घर भजन और
भंडारा कर लोगों के मनपर अन्नदान का महत्त्व अंकित किया जाना

श्री साईशजी को कोई भक्त आग्रहपूर्वक घर बुलाते थे, वहां पूजा-अर्चना के पश्‍चात बाबा के भजन गाए जाते थे । उसके पश्‍चात भंडारा होता था । ‘कलियुग में नामस्मरण और अन्नदान का कितना महत्त्व है ?’, यह इससे ध्यान में आता है । श्री साईश भगवान के जीवन में भंडारा (अन्नदान) का बडा महत्त्व रहा है । उन्होंने अनेक भंडारों का आयोजन कर अपने क्षेत्र में अन्नदान की महत्ता का परिचय करवाया । नर्मदातटपर निवास करनेवाले और परिक्रमा करनेवाले लोग उनकी इस देन से भलीभांति परिचित हैं ।

३ ओ. श्री साईशजी के दर्शन के लिए अन्य गांवों से भी भक्तों का आना
और प.पू. बाबा के भजन सुननेपर भक्तों के अंतःकरण में भाव जागृत होना

श्री साईशजी की ख्याति बढ रही थी । वे ‘साईबाबा’के रूप में प्रसिद्ध हुए । उनके दर्शन के लिए दूसरे गांवों से भी श्रद्धालु और भक्त आते थे । वे श्री साईशजी के दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते थे । बाबा के भजनों का आकर्षण और सामर्थ्य इतना होता था कि एक बार उनका भजन सुनने से भक्त शरणागत हुआ ही समझिए । जिस भक्त के अंतःकरण में भाव जागृत होते हैं, उसे भजन समझ में आने लगता है । उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है आश्रम में दर्शन करने आनेवाले (मराठी एवं हिन्दी इन दोनों भाषाओं को न समझनेवाले) स्वदेशी और विदेशी भक्त, जिनका आश्रम अथवा भक्तों से कोई संबंध नहीं है ।

३ औ. श्री अनंतानंद साईशजी का महानिर्वाण

अवतारी संत अपना कार्य पूर्ण होते ही अगले कार्य के लिए वहां से बिनाविलंब चले जाते हैं । वे माया में कभी संलिप्त नहीं हेते । वे तत्त्व के साथ जुडे होते हैं । उन्हें किसी बात का बंधन नहीं होता । वर्ष १९५७ के दिसंबर मास में श्री दत्त जयंती के दिन भक्तों को आशीर्वाद देकर वे रेलगाडी से रतलाम से आमेट गांव (जनपद रामसमुंद, राजस्थान) निकल गए और १२ दिसंबर को अनंत में विलीन हुए ।

३ औ १. गुरुदेवजी के महानिर्वाण का समाचार मिलते ही प.पू. बाबा को जीवन अंधकारमय, आधारशून्य और अर्थहीन लगना; श्री साईशजी द्वारा उनके अंतर्मन में प्रवेश कर ‘चलो उठो, भजन करो !’, ऐसा कहे जानेपर प.पू. बाबा द्वारा हाथ में खंजिरी लेकर दिन-रात निरंतर भजन किया जाना और ३८ वर्षों से भी अधिक समयतक भजन, भ्रमण और भंडारा इस त्रिसूत्री को चलाना

श्री अनंतानंद साईश के महानिर्वाण का समाचार मिलते ही सभी स्तब्ध रह गए । प.पू. बाबा तो देहभान ही भूल गए । उन्हें अपना जीवन अंधकारमय, आधारशून्य और अर्थहीन लगने लगा । मानो ‘सब छूट गया है’ इस विचार से ग्रस्त प.पू. बाबा के अंतर्मन में श्री साईशजी ने प्रवेश किया और कहा ‘चलो उठो ! भजन करो’ तब प.पू. बाबा चिरनिद्रा से जग गए । उस दिन से वह हाथ में खंजिरी लेकर दिन-रात निरंतर भजन करते रहे । भजन, भ्रमण और भंडारा यह त्रिसूत्री उनके कष्टमय जीवन की रूपरेखा बन गई । ३८ वर्षोंतक यह निरंतर चल रहा था । इस यात्रा में भक्त जुडे और आज यह संच खडश है । यह जादू आज भी बनी हुई है और भविष्य में भी बनी रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है; क्योंकि इस ईश्‍वरी कार्य ने अब बडा प्रचंड रूप धारण किया है ।

३ अं. प.पू. भक्तराज महाराज के भजनों का सामर्थ्य

एक महिला भक्त ने अपने भजन में इस संदर्भ में स्पष्टता से लिखा है ‘अखिल विश्‍व ही भजन में पागल हुई है’

भजन की नसीहतों का, ऐसा असर है ।
जिसको लगी हवा, वो कुरबान हो गए ।
बड़ी मुद्दतो में बाबा भक्तराज मिले ॥

हमें ऐसे सद्गुरु मिलना, हमारा सौभाग्य है ! बाबा के भजन में अदम्य चेतनाशक्ति भरी है, जो भजनप्रिय भक्तों को पागल बनाकर रखती है । उनके भजन का प्रभाव चित्तपर पडने के कारण भक्त गुरुतत्त्व से एकरूप होकर अपना देहभाग पूर्णरूप से भूल जाता है और उस अलौकिक विश्‍व में विहार करता है, जहां सर्वत्र आनंद ही आनंद फैला हुआ है । बाबा कहते है ‘‘भजन का अर्थ भज + मन ! अर्थात जो सद्भक्त चित्त (मन) को एकाग्र कर परमेश्‍वर का स्मरण करेगा, वही भजन का आनंद उठा सकता है ।’’ ऐसे अनेक सद्भक्त हैं, जिन्हें भजन में आत्मसाक्षात्कार हुआ, तो कुछ भक्तों को साक्षात परमेश्‍वर के दर्शन हुए । अनेक भक्तों को उनकी कृपा से भजन सुझे, जो अत्यंत भावपूर्ण एवं प्रेरणादायीक हैं ।

बाबा के भजनों में रामायण, महाभारत, गीता, वेद-वेदांत, उपनिषद आदि सभी धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का सार है । साधनारत साधकों को तो इन भजनों से उनके साधनापथपर आनेवाले प्रत्येक प्रश्‍न का अचूक उत्तर मिलता है । श्री अनंतानंद साईशजी ने बाबा से कहा था, ‘‘भजन ही सबकुछ है !’’इसका अर्थ ये भजन ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक और भक्तिपूर्ण हैं और वे सत्-चित्-आनंद को प्राप्त कराने में संपूर्णरूप से समर्थ हैं । इन्हीं भजनों के द्वारा प.पू. बाबा ने अनेक भक्तों का भक्तिमार्ग प्रशस्त बनाया और उसके कारण ही उनके जीवन में निरंतर आनंद फैल रहा है । बाबा के भजनों में अध्यात्मशास्त्र में बताया गया कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग,शक्तिपातयोग इत्यादि सभी योगों का सार है; इसीलिए इन भजनों से सत्-चित्-आनंद की अनुभूति होती है । भक्तों के लिए तो, ‘जहां भजन, वहां भक्तराज अर्थात भजन = भक्तराज’का समीकरण ही बना । इसका तात्पर्य यह कि सद्गुरु भक्तराजमाता भजन में ही मिलती है ।

३ क. प.पू. बाबा द्वारा भजन के साथ भंडारे की परंपरा को
अखंडित चलाना तथा भक्तों को अन्नदान का महत्त्व समझाना

प.पू. बाबा ने ‘भजन के साथ भंडारा’की गुरुपरंपरा को अखंडित चलाया और आज भी यह परंपरा बडे उत्साह और आनंद के साथ चलाई जा रही है । प.पू. सद्गुरु भक्तराज महाराज की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में भारत में सर्वत्र भंडारों, भजन और नामस्मरण का आयोजन किया जा रहा है । इससे भारतीय संस्कृति में भजन, अन्नदान एवं नामस्मरण का कितना अनन्यसाधारण महत्त्व कितना बडा है, यह विश्‍व के समझ में आएगा । बाबा कहते थे, ‘‘अन्नदान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है । निर्धनों को तृप्तिभोज कराने से उनकी तृप्त आत्मा से जो आशीर्वाद मिलता है, वह अत्यंत फलदायी होता है । अन्न पूर्णब्रह्म है; इसलिए अन्नदान की एक भी अवसर न छोडें, न्यूनतम अंशदान तो करें ।’’

३ ख. प.पू. बाबा द्वारा उज्जैन की क्षिप्रा नदी के तटपर,
रामघाटपर आरंभित तथा अब भी जारी दरिद्र नारायण भंडारा !

बाबा ने अपने भजन में ‘कलियुग में धर्म कोसों दूर’, ऐसा कहा है । वास्तव में भी इस कलियुग में कुछ भारतीय अपनी संस्कृति से दूर जा रहे हैं । ऐसे लोगों को समझाना आवश्यक है । उसे समाजकार्य समझकर करना चाहिए । ऐसी अनेक बातों को ध्यान में लेकर बाबा ने उज्जैन की क्षिप्रा नदी के तटपर और रामघाटपर दरिद्र नारायण भंडारा आरंभ किया । स्वयं बाबा भी भंडारे में दरिद्री नारायणों के साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते थे । तब से दीपावली के समय इस भंडारे का नियमितरूप से आयोजन किया जाता है । रामघाट से लेकर श्री महाकालेश्‍वर मंदिरतक जितने दरिद्र नारायण मिलेंगे, उन सभी को और आनेवाले सभी भक्तों को तथा पाचारण करनेवाले साधु संतों को और अंतिम क्षणतक आनेवाले प्रत्येक भक्त को तृप्तिभोज करवाया जाता है । प्रसाद में कद्दू एवं चौलाई एकत्रित कर बनाई गई सब्जी, पुरी और मिठा हलुवा होता है । पहले सद्गुरु को भोग समर्पित किया जाता है और उसके पश्‍चात सर्वत्र प्रसाद का वितरण होता है । उत्साही और युवा भक्त हाथगाडीपर भंडारे का प्रसाद रखकर उसका विविध स्थानोंपर वितरण करते हैं । इधर एकत्रित अन्य भक्त भजन करते हैं । वितरण कर शेष बचे प्रसाद में भक्त भोजन करते हैं । उससे भी बचे शेष प्रसाद को विविध आश्रमों में बांटा जाता है । इस भंडारे ने अब बहुत ही व्यापक रूप धारण किया है । बाबा तो बहुत पहले से अपने भक्तों को बता रहे हैं कि,

गांठ मे पैसा, धान की गठडी । होवेना जो भी साथ ॥
प्रेम का प्यासा है मेरा प्रभु । लाओजी अपने साथ ॥
आवोजी आवो साई के दरबार ॥

मेरे सभी भक्त भाईयों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि बाबा की किसी भी सीख को हल्के में मत लें । उनकी प्रत्येक सीख जीवात्मा के कल्याण हेतु है तथा उसे भजनों के माध्यम से अत्यंत परिपूर्ण पद्धति से रखा गया है । इसका उद्देश्य मात्र जनकल्याण ही है । हम भी अपने जीवन का सार्थक कर लेंगे !

३ ग. कलियुग में ईश्‍वरप्राप्ति का सुलभ और सरल मार्ग है नामस्मरण !

सभी साधु-संत अपने-अपने मत के अनुसार भक्तों को नामस्मरण का महत्त्व समझाते हैं; किंतु बाबा ने भक्तों के लिए इस कलियुग की स्थिति के अनुसार दूरदृष्टि रखते हुए अत्यंत सरल, सामान्य, सुविधाजनक और अनुकरणीय मार्ग दिखाया है । उसके अनुसार उनका भक्त परिस्थिति के अनुसार कहीं भी और कभी भी परमेश्‍वर का (अपनी इष्टदेवता का) अथवा गुरु द्वारा दिए गए नाम को ले सकता है ।

३ ग १. अनुभूति : नौकरी करते समय निरंतर नामस्मरण करने से स्वयं की तथा मजदूरों की कार्यक्षमता और एकाग्रता बढना, काम का तनाव न्यून हो जाना, उसके प्रतिष्ठान का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता को बढने के कारण वार्षिक उत्पादन अपेक्षा से भी अधिक होकर लाभ भी अधिक मिलना

मैं जब नौकरी करता था, तब बाबा की कृपा से मेरा नामस्मरण निरंतर होता था । मुझपर उसका सकारात्मक परिणाम मुझपर और मेरे तत्त्वावधान में कार्यरत कर्मचारियों के कामपर ऐसा हुआ कि उनकी कार्यक्षमता और एकाग्रता बढी, साथ ही वातावरण में प्रसन्नता बढी । उसके कारण काम का तनाव न्यून हुआ । काम समयपर, ठीक से और उत्तम पद्धति से होता था । काम के समय मुझे और मजदूरों को थकान प्रतीत नहीं होती थी । इसके फलस्वरूप कंपनी का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता बढने के कारण वार्षिक उत्पादन अपेक्षा से भी अधिक होकर आर्थिक लाभ भी अधिक होता था । कंपनी का वातावरण सभी के लिए पोषक होता था । सभी कार्य बिना दबाव से सुचारूरूप से होते थे । उसके कारण निजी क्षेत्र में ३८ वर्ष काम कर भी मुझे कभी भी काम का तनाव प्रतीत नहीं हुआ । बिना किसी अप्रिय घटना के मैं अपनी नौकरी का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण कर सका, वह केवल गुरुकृपा के कारण ही ! ‘नाम में अगम्य शक्ति है’, इसका यह स्पष्ट उदाहरण है; इसीलिए बाबा अपने भजन में स्पष्टता से कहते हैं,

नामची दीनाचा आधार । साधूनी नेईल आपणा पार ॥

इसीलिए मैं यह आग्रहपूर्वक कहता हूं, ‘‘आप नाम को अपनाईए और अपने जीवन का सार्थक कर लें । अब तो बाबा का स्मरण करने में ‘मत गंवाओ एक भी क्षण साझा । वाणी में रंगे यह नाम ॥’ अर्थात बिना समय गंवाते हुए नामस्मरण को अपनाईए । यह नाम ही इस संसाररूपी कीचड से बाहर निकालने में काम आएगा । सद्गुरु हमें इसके प्रति आश्‍वस्त करा रहे हैं, जो सत्य है ।

क्षणही हा एक मोलाचा । बोल हा सत्य दीनाचा ॥

नाम की महिमा ऐसी है कि उसके कारण मन के विकार दूर होकर अंतःकरण शुद्ध होता है और सद्गुरु को हृदय में विराजमान कराने के लिए नाम अति आवश्यक है ।

 

४. सद्गुरु का सत्संग, मार्गदर्शन और उनकी सेवा
करने का अवसर मिलने के लिए उनके चरणों में व्यक्त कृतज्ञता !

सद्गुरुकृपा के कारण ही मुझे जीव (बाबा एवं दादा)+ शिव (श्री अनंतानंद साईश) के साथ मीलन का अविस्मरणीय और अद्भुत संगम देखने का जो अवसर मिला, यह मेरा सौभाग्य है ! इसके साथ ही मेरे द्वारा तीर्थाटन हुआ, मुझे सत्संग और भजन का आनंद लूटना संभव हुआ । मुझे उनका अमूल्य मार्गदर्शन मिला । उनकी सेवा करने का अल्प अवसर मिला तथा उससे मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल गई । अज्ञानता का ज्ञान कराकर, आध्यात्मिक जगत की सुंदर यात्रा कराकर उन्होंने मेरा जीवन आनंद से भर दिया । आपके आदर्शों के अनुसार चलने से मैं आज शांत, संतुष्ट, निर्भय और आनंदमय जीवन जी रहा हूं । आपने मुझे मेरी अपेक्षा से भी कितने अधिक गुना अधिक देकर मुझे स्थायीरूप से ऋणी बनाया, जिसे चुकाना असंभव है । आज भी कदम-कदमपर यही हो रहा है; इसीलिए मैंने यह सुनिश्‍चित किया है कि मैं सदा के लिए आपके दास के रूप में आपकी सर्वोपरी सेवा करूंगा । आप मेरे इस संकल्प को निश्‍चितरूप से पूर्ण करेंगे, इसके प्रति मैं आश्‍वस्त हूं ।

‘अमोल चीज जो दी गुरुने । न दे सके भगवान भी ॥’

आपकी कृपा से इस अज्ञानी बालक ने जो लिखा है, वह आपके चरणों में समर्पित है !

आपका सेवक,

श्री. अशोक भांड (३०.३.२०१९)

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