संगीताभ्यास कैसे करना चाहिए ?

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अनुक्रमणिका

 

१. संगीताभ्यास का महत्त्व

ऐसा कहा जाता है कि संगीत एक ईश्‍वरीय देन है और जिसपर ईश्‍वर की कृपा है, वह गा सकता है; परंतु ईश्‍वर ने सभी को स्वयं के क्रियमाण के आधारपर अपना स्वप्न साकार करने की शक्ति दी है । आपका स्वर भले ही सर्वसामान्य हो; परंतु परिश्रमपूर्वक अभ्यास से केवल आपके स्वर में बदलाव ही नहीं होगा, अपितु वह स्वर संगीत की ऊंचाई को भी प्राप्त कर सकता है ।

 

२. संगीताभ्यास में समाहित बातें

आगे कुछ कृत्य दिए गए हैं, जिसके अनुसार हम चरणबद्ध पद्धति से अभ्यास कर सकते हैं –

२ अ. ‘ॐ’ कार का अभ्यास

संगीत की शिक्षा ग्रहण करते समय आरंभ के ३ मासोंतक न्यूनतम ३० मिनटतक ‘षड्ज’ (सा) के स्वर में ‘ॐ’कार लगाकर अभ्यास करें ।

२ आ. सरगम एवं आरोह-अवरोह का अभ्यास

१. अभ्यास के लिए अधिक समय उपलब्ध हो, तो ॐ कार के अभ्यास के पश्‍चात ५ मिनट अवकाश लेकर उसके पश्‍चात सरगम, आरोह-अवरोह का धीमी गति में अभ्यास करें । इसे गाते समय धीमी गति से गाएं और जल्दबाजी न करें ।

२. ‘सरगम’के अभ्यास के समय स्वर अचूक लग रहा है न ?’, इसकी ओर संपूर्ण ध्यान दें । यदि स्वर ठीक से नहीं लग रहा हो, तो उसे लगाने हेतु पुनःपुनः प्रयास करें । संगीत में दृढता महत्त्वपूर्ण है । संगीतशिक्षा के आरंभिक समय में बहुत संयम की आवश्यकता होती है ।

२ इ. खर्ज के स्वरों का अभ्यास

संगीताभ्यास में खर्ज के स्वरों का अभ्यास सबसे अच्छा माना जाता है । इसके कारण स्वरों में गहराई आती है तथा स्वर को ऊंचा (ऊंची पट्टी) में लगाने की क्षमता उत्पन्न होती है । खर्ज के स्वर लगाना थोडा कठिन है; किंतु खर्ज का अभ्यास प्रातः ५ से ६ बजे के समय में किया, तो स्वर लगाना सरल होता है । एक अच्छे गायक के लिए सभी सप्तकों में गाने की क्षमता होना आवश्यक है तथा खर्ज का अभ्यास ही इसका एकमात्र उपाय है । अतः इस अभ्यास को मन से, प्रतिदिन और एक अनुशासित पद्धति से, साथ ही साधना के रूप में करना आवश्यक है ।

२ ई. अभ्यास से अपनी शारीरिक क्षमता को संपूर्णरूप से विकसित कैसे करना चाहिए ?

प्रतिदिन न्यूनतम ३० मिनट प्राणायाम करें । गाते समय ४ अलग-अलग सप्तकों को शरीर के पेट, फेफडे, गला और सर का उपरी भाग, इन चार भागों के साथ जोडें । प्रतिदिन भस्रिका, भ्रामरी एवं कपालभाति ये प्राणायाम करने से आप में लक्षणीय बदलाव आया हुआ दिखाई देगा । इसका आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं ।

 

३. संगीताभ्यास की कालावधि

३ अ. संगीताभ्यास कितने समयतक और कबतक करें ?

संगीत सिखनेवाले कई बार यह प्रश्‍न पूछते हैं । वास्तव में संगीताभ्यास कभी नहीं पूर्ण होता और कितना भी संगीताभ्यास करने से वह कभी भी अधिक नहीं होता । यह प्राचीन काल से चली आ रही वास्तविकता है ।

३ आ. संगीताभ्यास में विश्राम की कालावधि

आप यदि प्रतिदिन समय देकर परिणामकारी अभ्यास करते हों, तो १० से १५ दिन निरंतर अभ्यास के पश्‍चात एक दिन का विश्राम ले सकते हैं । ऐसा करने से शरीरपर आया हुआ संपूर्ण तनाव दूर हो जाता है और उससे आप गायकी के अभ्यास के परिश्रम को आगे  बढाने हेतु पहले से भी अधिक शक्ति से सिद्ध हो जाते हैं ।

३ इ. स्वरों के अभ्यास की कालावधि

अभ्यास करते समय स्वर लगाने हेतु यदि बहुत परिश्रम उठाने पड रहे हों, तो केवल स्वरों के अभ्यासपर ही बल देना चाहिए । ऐसी स्थिति में गाना अथवा राग गाने की प्रक्रिया की ओर न जाएं । जब सरगम, आरोह-अवरो गाते समय सूरों में सहजता आएगी और जब किसी बाह्य बातों का आधार लिए बिना स्वर योग्य श्रुती में लग रहे हों, तब आप यह समझ लें कि आप अगले चरण की ओर अर्थात राग गाने की ओर अग्रसर हुए हैं ।

 

४. संगीताभ्यास से मिलनेवाले लाभ

संगीताभ्यास से निम्नांकित चरणों की सिद्धता होती है –

अ. सांस की शक्ति और नियंत्रण में स्थिरता आती है ।

आ. गले की कोशिकाओं में गाने के उतार-चढाव में आनेवाले तनाव को झेलने की क्षमता उत्पन्न होती है ।

इ. कान एवं मस्तिष्क स्वरों को प्राकृतिक रूप में पकडने हेतु (पहचानने हेतु) समर्थ हो जाते हैं ।

ई. मन एवं आंतरिक विचारप्रक्रिया के कारण गायकी हेतु आवश्यक धैर्य, एकाग्रता, पवित्रता एवं सकारात्मकता उत्पन्न होती है ।
एक अच्छा गायक बनने हेतु स्वयं को इन चारों चरणों में विकसित करना आवश्यक होता है ।

 

५. ‘स्वयं का संगीताभ्यास एवं अच्छा संगीत सुनना’ भी संगीताभ्यास का ही एक भाग होना

अभ्यास में स्वयं का अभ्यास करने के लिए कहा गया है, साथ ही अच्छा संगीत सुनना भी अभ्यास का ही एक अंग है । अतः अच्छे गायकों का शास्त्रीय संगीत सुने । (इंटरनेट अथवा ध्वनिचक्रिकाओं पर अच्छा संगीत सुन सकते हैं ।) संगीत को सुनकर उसे अपने मनपर उतार लेने से उस पद्धति  से मन की एक विचारप्रक्रिया बनती है ।

 

६. संगीताभ्यास एवं दिनचर्या के कृत्यों में तालमेल होना चाहिए !

अभ्यास हेतु आपकी दिनचर्या को बहुत कष्टकारी, तनावपूर्ण अथवा कठिन न बनाएं । ऐसा करने से आपको अभ्यास में सफलता नहीं मिलेगी । अतः संगीत सिखनेसहित अन्य बातों में भी सहजता एवं संतुलन होना चाहिए ।

 

७. गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक !

उक्त सभी सूत्रों के आचरण के लिए गुरु का मार्गदर्शन अत्यावश्यक है । कुछ वर्षोंतक गुरु के मार्गदर्शन में सरगम, आलापी आदि का अभ्यास करना अत्यंत आवश्यक है ।’

– (संदर्भ : अज्ञात)

 

८. ईश्वरप्राप्ति की दृष्टि से गायनकला का महत्त्व

‘पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश इस चढते क्रम में होनेवाले पंचतत्त्वों में जितने उच्च स्तर के तत्त्व हों, उनसे ईश्वर की उतनी अधिक अनुभूति आती है । इसका कारण यह है कि तत्त्व जितना उच्च स्तर का हो, उसमें निर्गुण स्तर उतना अधिक होता है । ईश्वर निर्गुण होने के कारण निर्गुण स्तर के पंचतत्त्व से ईश्वर की अनुभूति सहजता से होती है । इसी तत्त्व के अनुसार प्रत्येक कला का वर्गीकरण भी पंचतत्त्व के अनुसार किया जा सकता है । चित्रकला और मूर्तिकला में रूप होने के कारण इन कलाओं का संबध तेजतत्त्व से है । बांसुरी वायु तत्त्व पर आधारित है क्योंकि उसे फूंककर बजाते हैं । गायन कला पूर्णत: आकाश तत्त्व पर आधारित है । गाते समय वाद्य के समान आघात अथवा तार छेडने की आवश्यकता नहीं होती इस कारण गायनकला सत्त्वगुणी है; इसीलिए अन्य कलाओं की अपेक्षा गायनकला से ईश्वरप्राप्ति सहजता से हो सकती है ।’ – (पू.) डॉ. मुकुल गाडगीळ, गोवा. (१२.११.२०१७)

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