एक कलाकार की अहंकारी मानसिकता देखने पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने बताई स्वभावदोष और अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया लागू करने का महत्त्व ध्यान में आना

१. महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय द्वारा आयोजित कार्यशाला में
सहभागी जिज्ञासु ने उन के नृत्य और संगीत कलाक्षेत्र के नैपुण्य के विषय में
दर्पोक्ति से बताना और समाज के कई कलाकारों के बातचीत में उन का अहंकार व्यक्त होना

कु. तेजल पात्रीकर

‘जून २०१८ मेें रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में ‘महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय’ की ओर से एक कार्यशाला आयोजित थी । ‘उस में सहभागी एक महिला जिज्ञासु ने संगीत और नृत्य की शिक्षा पायी हैं ’,ऐसा मैंने जाना । मैं उन से मिली । तब वे अपने विषय में ही बताने लगीं । उन्हों ने कहा, ‘‘ वास्तव में मैं बंगाली भाषा नहीं जानती । रवींद्र संगीत पढानेवाले बडे परीक्षकों ने मेरा प्रस्तुतीकरण देखकर मुझे अच्छे गुण दिए । उन्हों ने ‘तुम बहुत अच्छा कर सकती हो ’, ऐसा मुझे कहा । एक उस्ताद (तज्ञ शिक्षक) मेरे शास्त्रीय संगीत सीखने पर बल दे रहे थे । उन को मुझ में कुछ तो दिखाई दे रहा था । वे स्वयं मुझे बुला रहे थे ; किन्तु मैं नहीं जा पायी । मेरे विदेश में रहते एक बार मैं भारतीय (घागरा आदि ) परिधान में एक कार्यक्रम में गई थी । तब वहां के प्रतिष्ठित लोगों को ‘मैं भारत की राजकुमारी (प्रिन्सेेस ही) हूं ’, ऐसा लग रहा था । उन के बरताव में मेरे प्रति आदर था ।’’

उन के बोलने में उन का ‘स्वयं को श्रेष्ठ मानकर बडप्पन जताना ’, यह भाग प्रकर्ष से ध्यान में आया । समाज में ऐसे कई कलाकार होते हैं, जो जानते तो थोडा ही ; किन्तु अपनी बात से अपनी बढाई अधिक करते हैं ।

 

२. कलाकारों में अहंकार जागृत रहने से कला
से ईश्‍वर के अस्तित्व का अनुभव करना हो तो उन का
व्यष्टि साधना की प्रक्रिया पर अंतर्मुखता से काम करना आवश्यक !

इस से ‘कलाकारों ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने बताई स्वभावदोष और अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया का अवलंबन करना कितना महत्त्व का हैं’, यह ध्यान में आता हैं । उस में भी कलाकार समाज में प्रतिष्ठित हो, तो उस में स्वयं को श्रेष्ठ मानने का अहंकार जागृत रहता हैं । ऊपर से यह अहंकार नहीं दिखता हो, तो भी सूक्ष्म अहं निश्‍चित ही कार्यरत रहता है । कलाकारों को कला से ईश्‍वर के अस्तित्व का अनुभव करना हो , तो उन्हों ने व्यष्टि साधना की प्रक्रिया का अंतर्मुखता से अवलंबन करना आवश्यक हैं ।

 

३. परात्पर गुरुदेवजी का ‘संगीत’ और
‘नृत्य’, इन कलाओं को देखने का जीवनोद्धारक उद्देश !

परात्पर गुरुदेवजी से इस विषय पर हुई बातचीत में उन्हों ने बताया, ‘‘ग्रंथ अथवा संकेतस्थल पर लेख प्रसिद्ध करते समय उस में अवश्य उल्लेख करें, ‘जिन्हें कला से पैसा और प्रसिद्धी पानी हैं ,उन के लिए ये लेख नहीं हैं । जो कला से ईश्‍वरप्राप्ति करना चाहते हैं , उन्हें ही इन से मार्गदर्शन किया जाएगा ।’’

– कु. तेजल पात्रीकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

Leave a Comment