श्रवणभक्ति द्वारा संगीत का स्वाद चखनेवाले रसिक भक्त खरे अर्थ में जीवनमुक्त हो सकता है !

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‘संगीत के श्रवण से नादब्रह्म की अनुभूति होती है । इससे नवविधा भक्ति में ‘श्रवणभक्ति’ का स्थान अग्रणीय है । भावपूर्ण श्रवण से हृदय में प्रवेश करने का मार्ग सहज प्राप्त होता है । फिर चैतन्य चित्त तक सहजता से पहुंच जाता है । इससे चित्तशुद्धि की प्रक्रिया वेग से होती है और प्रारब्धभोग सुसह्य होकर संचितरूपी कर्म के बीज भी ज्ञान के तेज से जलकर भस्मसात हो जाते हैं । इसप्रकार जीव द्वारा की गई श्रवणभक्ति के कारण उसकी कर्मबंधन से मुक्ति होती है और वह भगवान की ओर अग्रसर होता है, उदा. संत मीराबाई को उनके गुरु संत रहिदास (पाठभेद – रैदास, रोहीदास, रहिदास) ने काव्य द्वारा उपदेश दिया था । संत मीराबाई ने उसे भावपूर्ण ढंग से श्रवण किया था, इसलिए उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई । (इस स्थान पर काव्य का उपदेश श्रवण से उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, ऐसा कहा गया है । परंतु ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी कहीं मिला नहीं है । – संकलक)

कु. मधुरा भोसले

१. आध्यात्मिक स्तर पर कला का स्वाद
चखने के लिए भक्तों में रमनेवाला भगवान और
देैवीयकला के क्षेत्र में उत्तुंग शिखर पहुंचकर आध्यात्मिक ज्ञान से भी
परिपूर्ण आध्यात्मिक कला का उत्कृष्ट आविष्कार करनेवाले महान कलाकार संत !

भगवान के प्रति उत्कट भाव जागृत होने के कारण संतों द्वारा स्वच्छंद रचे हुए ‘अभंग’ ये उत्स्फूर्तता से होनेवाली कला के आविष्कार का मूर्त अथवा साकार उदाहरण है । विविध भाषाओं में भगवान का स्तुतिगान करने के लिए संतों द्वारा रचे गए अभंग, ओवी और दोहे भक्तिरस से ओतप्रोत होते हैं । इससे भगवान रसिक बनकर उसका श्रवण करते हैं । भगवान के प्रति अटूट प्रेम के कारण स्फुरित काव्य, रचे गए अभंग, गाए गए भक्तिगीत, लिखे गए ग्रंथ, बनाए गए चित्र अथवा बनाई गईं मूर्ति, ये दैवीय कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं; परंतु उसके साथ ही वे आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भी होने से ज्ञानकला के आविष्कार भी हैं । इसलिए संतों द्वारा निर्मित हुई कला का स्वाद लेते समय सात्त्विक कला के सात्त्विक सुख के साथ शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान का निर्लेप आने का स्वाद भी चखने मिलता है, उदा. संत कबीर के भक्तिमय दोहा सुनकर भक्ति में रममाण भक्त के लिए प्रभु श्रीराम ने उनकी चादर बुनी । संगीत सम्राट तानसेन के व्रजनिवासी गुरु श्रीहरिदास के दिव्य संगीत से भगवान प्रसन्न हो गए । दक्षिण के संत त्यागराज की संगीत साधना से प्रसन्न होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए और नारदमुनि ने अपनी नारदीय वीणा उन्हें दी । कीर्तन से पंजाबतक धर्मप्रसार करनेवाले महाराष्ट्र के संत नामदेव का कीर्तन सुनते समय स्वयं विठ्ठल तल्लीन होकर डोलते थे । संगीत एवं नृत्य द्वारा विठ्ठळ को जकड कर रखनेवाली संत कान्होपात्रा तथा संगीत एवं नृत्य के माध्यम से शिवोपासना कर उन्हें प्रसन्न करनेवाली और शिवशंकर ने रसिक का रूप धारण कर, जिसका उद्धार किया वह महान शिवोपासक नर्तकी ‘महानंदा’, ये दैवीय कला के उदाहरण हैं ।’

– कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (११.३.२०१६, रात्रि १२.३०)

 

२. संगीत के भावपूर्ण श्रवण से ही नादब्रह्म की अनुभूति होती है !

अधिकांश लोग किसी न किसी माध्यम से संगीत से जुडे होते हैं । इसलिए कुछ को भले ही गीत गाना न आता हो, तब भी संगीत में रुचि होने से उन्हें भी संगीत के श्रवण से आध्यात्मिक स्तर पर लाभ हो सकता है । संगीत नादब्रह्म की उपासना है । इसलिए केवल भावपूर्ण श्रवण से ही इस नादब्रह्म की अनुभूति ली जा सकती है, इस लेख से हमें अभ्यास करने भी मिलेगा ।

– कु. तेजल पात्रीकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

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