रसोई के संदर्भ में पुछे जानेवाले प्रश्न

१. नमक को हथेली पर लेकर न खाएं ? ऐसा क्यों ?

नमक को रज-तमोगुणी माना गया है, इसलिए हथेली पर नमक लेने से उसमें तीक्र गति से कार्य करनेवाली रजोतरंगें देह में फैलकर, देह में तमोगुण घनीभूत होने की दृष्टि से सहायक होती हैं । अतः नमक हाथ में लेकर खाना अनुचित कृत्य माना जाता है ।

अनिष्ट शक्तियों की पीडा से बचने हेतु, उतारे हेतु प्रयोग की जानेवाली वस्तुएं, जैसे नमक एवं जामन का (दूध जमाने हेतु छोडी गई खट्टी दही का) लेन-देन रात्रि को न करें : ‘रज-तमात्मक वातावरण के कारण रात्रि का समय धर्म में अशुभ माना गया है । इस काल में किसी रज-तमात्मक वस्तु का आदान-प्रदान करना, अर्थात स्वीकारना अथवा देना त्याज्य माना गया है; इसलिए कि रात्रि रज-तमात्मक लेन-देन के लिए पोषक है । अतः प्रत्येक कर्म में अनिष्ट शक्तियों की बाधा तथा ली-दी गई वस्तु के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों के एक घर से दूसरे घर में प्रवेश करने की आशंका अधिक रहती है । यथासंभव कनिष्ठ स्तर की अनिष्ट शक्तियों को आकर्षित करने के लिए नमक, ज्वार की रोटी (भाकर) एवं छाछ अथवा किसी खट्टे पदार्थ का उतारा देते हैं । इसे ‘श्‍वेत उतारा’ कहा जाता है इसलिए रात्रि में नमक और जामन के लेन-देन का अशुभ कर्म न करें ।’ – एक विद्वान (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, 19.2.2005, सायं. 6.33

 

२. पूर्वकाल में रसोईघर में तथा पूजा के उपकरणों
में भी तांबे-पीतल के बर्तनों का सर्वाधिक समावेश दिखाई देता था । ऐसा क्यों ?

अ. ‘जल रखने हेतु तांबे के बर्तनों का ही उपयोग करें; क्योंकि जल सर्वसमावेशक स्तर पर कार्य करता है । इसलिए तांबे का सत्त्व-रजोगुण जल में संक्रमित होता है । तांबे के बर्तन में रखा जल सत्त्व-रजोगुणी बनने के कारण वह अल्प कालावधि में ब्रह्मांड से देवता के स्पंदन आकर्षित कर स्वयं में घनीभूत करता है ।

आ. ऐसे जल का उपयोग अन्न पकाने अथवा पीने हेतु करने से देह में विद्यमान दैवीगुण जागृत होते हैं ।

इ. अन्नसेवन करते समय इस जल की सहायता लेने से देह की रिक्तियां भी सत्त्वगुण से आवेशित होती हैं । इससे देह को अन्न पचाने की प्रक्रिया में अधिकाधिक आध्यात्मिक स्तर पर लाभ होता है तथा देह की वास्तविक शुद्धि होती है । अन्नसेवन करते समय की जानेवाली प्रार्थना से सत्त्वगुण के स्पंदन कार्यरत होकर जीव को अन्नसेवन से आध्यात्मिक स्तर पर (चैतन्य की सहायता से) अपेक्षित लाभ प्राप्त करवाते हैं । यह क्रिया देह की रज-तमात्मक तरंगों के विघटन के लिए भी उत्तरदायी होती है । अतः अन्नसेवन की संपूर्ण प्रक्रिया एक यज्ञकर्म ही बन जाती है ‘

पीतल रजोगुणवर्धक है; इसलिए पीतल के बर्तन में अन्न पकाना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है । पीतल की रजोगुणात्मक तरंगों के वहन के स्पर्श से (वहन के कारण) अन्न में विद्यमान रसरिक्तियां भी कार्यरत अवस्था में पोषक द्रव्य उत्सर्जित करने हेतु सिद्ध होती हैं । यह रजोगुणी प्रक्रिया अन्न के माध्यम से देह में संचारित होने के कारण वह देह की रिक्तियों को भी अन्न में विद्यमान सूक्ष्म-वायु ग्रहण करने हेतु संवेदनशील बनाती है । इस प्रकार अन्नपाचन प्रक्रिया भी सरल एवं सहज बनाई जाती है ।

इसलिए पूर्वकाल में रसोईघर में तथा पूजा के उपकरणों में भी तांबे-पीतल के बर्तनों का सर्वाधिक समावेश दिखाई देता था ।

 

३. दूध फाडकर बनाए गए पदार्थ क्यों नहीं खाने चाहिए ?

‘दूध पूर्णान्न है; क्योंकि दूध को सगुण चैतन्य का स्रोत माना गया है । जो घटक सत्त्वगुण के माध्यम से कार्य कर दूसरों के लिए कल्याणकारी सिद्ध होते हैं, उन्हें ‘सात्त्विक’ कहा जाता है । ऐसे सात्त्विक दूध को फाडना, अर्थात एक प्रकार से उसमें रज-तमयुक्त दूसरे घटकों का संवर्धन करना तथा उसकी सात्त्विकता के माध्यम से कार्य करनेवाले कार्यकारी घटक का नाश करना । इस प्रकार दूध फाडकर बनाए गए सत्त्वरहित पदार्थ खाना, शरीर के लिए हानिकारक होता है । इससे देह में बडी मात्रा में कष्टदायक स्पंदन घनीभूत होते हैं, जो अनेक व्याधियों को आमंत्रित करते हैं । अतः जीवन को कष्टदायक बनानेवाले ऐसे पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए अन्यथा दूषित तरंगों के माध्यम से सूक्ष्म रूप से कार्यरत अनिष्ट शक्तियों की पीडा का भी सामना करना पडता है ।’

– एक विद्वान (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, 4.3.2008, सायं. 7.28

 

४. अन्न अग्नि पर एवं मंद आंच पर क्यों पकाएं ?

‘अन्न (तरकारी, अनाज इत्यादि) भूमि से उत्पन्न होते हैं; इसलिए अनिष्ट शक्तियां उस में अपनी काली शक्ति संचित करती हैं । अन्न अग्नि पर पकाने से, अर्थात अग्नि को अर्पित करने के कारण उसमें विद्यमान काली शक्ति नष्ट हो जाती है । ऐसे अन्न से हमें सात्त्विकता मिलती है ।
अन्न अग्नि को अर्पित करने पर, अर्थात अग्नि के उसे नैवेद्य के रूप में स्वीकार करने पर अनिष्ट शक्तियों की उस अन्न पर वासना (इच्छा) नहीं रहती; इसलिए अन्न को अग्नि पर पकाया जाता है ।’

– श्री अन्नपूर्णामाता (श्रीमती गौरी विद्याधर जोशी, भाग्यनगर (आंध्रप्रदेश) के माध्यम से, अक्टूबर 2006)

पूर्वकाल में मंद आंच पर अन्न पकाने से उसके जीवरसों का नाश नहीं होता था । ऐसे अन्न का सेवन करने पर देह के पंचप्राणों को कार्यरत कर तथा जठराग्नि को प्रदीप्त कर उसी में विलीन होकर देह को दीर्घकालतक अपने पोषणसंबंधी मूल्यों से लाभान्वित कराता है । इसी से मंद आंच पर अन्न पकाने का महत्त्व समझ में आता है ।’

– एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, 29.10.2007, दिन 6.09

 

५. उडद के पापड बनाते समय कोई बाहर से आने पर वह आटा
बिगड जाता है तथा पापड लाल बनते हैं । इसका क्या कारण है ?

‘उडद में रज-तमगुण आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । उडद का आटा मार्ग से (रास्ते से) ले जाते समय अथवा उसे बनाते समय घर में कोई आ जाए, तो उस व्यक्ति के साथ आए रज-तम कण उस उडद के आटे की ओर आकर्षित होते हैं। जिन स्त्रियों की माहवारी होती है, ऐसी स्त्रियों के उडद के आटे से संपर्क होने पर भी उनमें विद्यमान रजोगुण आटे की ओर आकर्षित होकर आटा बिगड जाता है । आटा सात्त्विक रहे इस हेतु उसे नारियल के पानी में अथवा कुम्हडे के रस में भिगोते हैं ।’

 

६. तेल एवं घी एक-साथ क्रय (खरीदारी) क्यों न करें ?

‘तेल रज-तम गुणों का प्रतीक है तथा वह रज-तम तरंगों को आकर्षित एवं प्रक्षेपित कर सकता है । घी सत्त्वगुणी है तथा वातावरण में सत्त्वकण प्रक्षेपित कर सकता है । तेल एवं घी का एक ही समय क्रय करने से (खरीदने से) तेल के सर्व ओर निर्मित रज-तमयुक्त गतिमान तरंगों के वायुमंडल से घी के सर्व ओर निर्मित सत्त्वकण आवेशित मंडल का घर्षण होता है । रज-तम तरंगें सत्त्वकणों की अपेक्षा अधिक गतिमान होने के कारण रज-तमयुक्त तरंगों के घर्षण के प्रभाववश घी से प्रक्षेपित सत्त्वकणों का वातावरण में ही विघटन होता है । इससे निर्मित सूक्ष्म-वायु घी पर आवरण लाने में सहायक होती है । इससे घी से प्रक्षेपित सत्त्वतरंगें अवरुद्ध हो जाती हैं । फलस्वरूप घी से जीवको प्राप्त सात्त्विकता का लाभ घट जाता है । अतः यथासंभव तेल एवं घी एक-साथ न लाएं।’

 

७. अमावस्या के दिन यथासंभव खाद्यतेल क्यों न लाएं ?

‘अमावस्या के दिन वातावरण में रज-तम कणों की प्रबलता अधिक होती है । इन रज-तमयुक्त तरंगों की प्रबलता के कारण इस दिन वातावरण में अनिष्ट शक्तियों का संचार अथवा विचरण भी अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होता है । खाद्यतेल रज-तमयुक्त तरंगें आकर्षित एवं प्रक्षेपित करता है । इससे घर का वातावरण भी कष्टदायक स्पंदनों से युक्त बनता है । इस दिन बाहर से खाद्यतेल लाने से तेल में विद्यमान रज-तम कणों की सहायता से कोई भी अनिष्ट शक्ति हमारे वास्तु में प्रवेश कर सकती है; इसलिए इस दिन यथासंभव खाद्यतेल घर में न लाएं ।’

 

८. तैलीय पदार्थ लेकर घर के बाहर क्यों न जाएं ?

‘तेल मूलतः ही रज-तम गुणों का प्रक्षेपण करता है । तले हुए अथवा तैलीय पदार्थ तामसिक होते हैं; इसलिए ऐसे पदार्थां की ओर अनिष्ट शक्तियां तुरंत आकर्षित होती हैं । अतः, तैलीय पदार्थ लेकर घर के बाहर न जाएं ।’

 

९. स्त्रियां नारियल क्यों न फोडें एवं कुम्हडा क्यों न काटें ?

‘पानी से भरा नारियल एवं कुम्हडा स्त्री के पेडू का परिचायक है । नारियल फोडने अथवा कुम्हडा काटने का कृत्य लयदर्शक अर्थात स्त्री की जननक्षमता नष्ट करने का प्रतीक है; इसलिए उसे धर्मने निषिद्ध माना है । स्त्री द्वारा स्वयं की जननक्षमता का लय करना अर्थात एक प्रकार से स्वयं में विद्यमान आदिशक्ति के बीज को ही नष्ट करना है । यह स्त्रीत्व का अपमान करने समान है; इसलिए ऐसा कृत्य अशुभ माना गया है ।’ – एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, 19.2.2005, सायं. 7.48

 

१०. पके हुए अन्नको काटने से (उदा. बर्फी
काटने से) पाप न लगे इसके लिए क्या उपाय करें ?

शास्त्रों में कहा गया है कि पके अन्न को काटना पाप है ।
हम किसी भी प्रकार की बर्फी बनाते समय उसे काटते हैं । क्या यह पाप है ?

जी हां । अन्न पर छुरी घुमाने को पापकर्म ही माना जाता है; क्योंकि इस कृत्य से तमोगुणी स्पंदन वायुमंडल में प्रक्षेपित होते हैं । अतः समष्टि (समाज का)-वायुमंडल दूषित बनता है और यह पापकर्म माना जाता है ।

ऐसा है तो बर्फी कैसे काटेंगे ?

1. ‘नामजप करते हुए बर्फी बनाने से कर्म-अकर्म बनता है । अन्यथा छुरी को विभूति (सात्त्विक अगरबत्ती की राख) लगाकर बर्फी के टुकडे करने पर उससे उत्पन्न रज-तमात्मक स्पंदन नष्ट होते हैं और वायुमंडल पर भी उसका अधिक प्रभाव नहीं पडता । कलियुग में यांत्रिक पद्धति से किया जानेवाला प्रत्येक कृत्य नामजप एवं प्रार्थना के द्वारा ही करना पडता है ।’

2. हाथ से ही टुकडे करना : किसी बाह्य वस्तु से बर्फी काटने की अपेक्षा हाथ से ही सामान्य टुकडे करें ।

3. लकडी की पत्ती (ब्लेड) : छुरी की धातु की रज-तमात्मक पत्ती की (ब्लेड की) अपेक्षा लकडी की पत्ती में तेजतत्त्व अधिक होता है । इस छुरी से नामजप, प्रार्थना करते हुए बर्फी काट सकते हैं । लकडी के तेजतत्त्वरूप सूक्ष्म स्पंदन इस कृत्य से उत्पन्न तमोगुणी स्पंदनों को नष्ट करते हैं ।

– (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, 14.7.2008, रात्रि 9.57

 

११. चूल्हे के अंगारे पानी से क्यों न बुझाएं ?

‘चूल्हे के अंगारों से प्रदीप्त अग्नि शिव के रूप में तथा अन्नपूर्णा देवी शक्ति के (आदिशक्ति- तत्त्व के) रूप में अन्न पकाने की प्रक्रिया में सहभागी होती है । इसमें अग्नि शिव के रूप में और अन्नपूर्णादेवी शक्ति के रूप में कार्य कर अन्न को अन्नब्रह्म के स्तरतक पहुंचाती है । अन्न पकाने की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत चूल्हे के अंगारों पर तुरंत पानी डालकर बुझाना अर्थात प्रकट अग्नितत्त्व की तरंगों को नष्ट करना । ऐसा न कर, अग्नितत्त्व तथा अन्नपूर्णादेवी की तरंगों को चढाया हुआ भोग ग्रहण करने की, तदुपरांत उन्हें शांत होने की प्रार्थना करने के पश्‍चात अंगारों पर थोडा-सा पानी छिडकें । अग्नि को शांत होने की प्रार्थना कर पानी थोडा-सा छिडकने से ही वह तुरंत शांत हो जाती है ।’

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘ रसोई-सामग्रीकी सात्त्विकताका विचार’

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