तरकारी काटनेकी उचित पद्धति

तरकारी धोनेके उपरांत काटना आरंभ करें । उसे जलसे धोते समय उसमें कुछ मात्रामें सात्त्विक अगरबत्तीकी विभूति मिलाएं । तरकारी अधिक समयतक पानीमें भिगोए रखनेसे उसमें विद्यमान ‘ब’ और ‘क’ जीवसत्त्व घटते हैं ।

१. तरकारी काटते समय शरीरकी स्थिति

1 अ. खडे रहकर छुरीसे तरकारी काटना

‘छुरीसे विपरीत पद्धतिसे तरकारी काटनेसे भी पीडादायी स्पंदनोंका वायुमंडलमें उत्सर्जन होता है तथा तरकारी भी रज-तमात्मक तरंगोंसे आवेशित होती है । छुरी आगेसे अपनी दिशामें खींचकर लानेका अर्थ है उलटी दिशामें तरकारी काटना । इसीके साथ छुरीसे तरकारी
काटते समय उसे यथासंभव खडे रहकर काटनेसे देहकी कोई भी संरक्षक मुद्रा (स्थिति विशेषमें जो आकृति बनती है, उसे मुद्रा कहते हैं) निर्मित नहीं होती । इसलिए जीव के मनमें चल रहे रज-तमात्मक विचारोंकी गतिके बलपर पातालसे उत्सर्जित पीडादायी स्पंदनोंका जीवकी देहमें संचार आरंभ होता है और उनके स्पर्शसे तरकारी भी आवेशित होती है ।’ – (पू.) श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळके
माध्यमसे, 27.10.2007, रात्रि 10.39

1 आ. पहंसुलपर बैठकर तरकारी काटना

‘दाहिना घुटना ऊपर उठाकर और पेटसे सटाकर पहंसुलपर बैठें तथा तरकारी काटें ।

१ आ १. बैठकर तरकारी काटनेका महत्त्व : पहंसुलपर (तरकारी काटनेके लिए हंसियाके समान एक उपकरण) दाहिना घुटना ऊपर उठाकर बैठनेसे देहकी जो मुद्रा बनती है, उससे जीवके रजोगुणी विचारोंके वेगपर भी नियंत्रण रहता है और तरकारी काटनेकी प्रक्रिया कष्टदायक स्पंदनोंकी निर्मितिसे मुक्त रहती है । (पूर्वकालमें स्त्रियां अपनी रजोगुणी कार्यकारी शक्तिपर नियंत्रण रखने हेतु पूजा करने अथवा भोजनके लिए बैठते समय भी दाहिना घुटना पेटके पास रखकर क्यों बैठती थीं, इसका महत्त्व उक्त सूत्रसे ज्ञात होता है । – संकलनकर्ता) तरकारी काटते समय बननेवाली देहकी मुद्राद्वारा नाभिस्थित पंचप्राण कार्यरत होते हैं तथा देहके रजोगुणपर नियंत्रण रखनेमें सहायता मिलती है । इससे तरकारी काटते समय हाथके तमोगुणी स्पर्शसे तरकारी दूषित होनेसे बच जाती है । इससे देहके त्रिगुणात्मक संबंधित स्तरोंके अवयवोंके विकास हेतु तरकारीमें विद्यमान आवश्यक पोषक और पूरक प्राकृतिक सूक्ष्म रसबीजका भी ह्रास नहीं होता ।’ – एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, 28.10.2007, सायं. 7.34

 

२. तरकारी काटते समय ध्यान रखने योग्य सूत्र (मुद्दे) :

अ. डंठल

‘तरकारी काटते समय उसका डंठल निकालनेपर, उसमें घनीभूत और तमोगुण वर्धन हेतु पूरक सिद्ध होनेवाली सूक्ष्म-वायु वायुमंडलमें उत्सर्जित होती है ।

आ. तरकारीके संदर्भमें दिशा

तरकारी काटते समय सदैव ऊपरसे नीचेकी दिशामें काटें । इससे तरकारी काटनेके नादसे उत्पन्न जडत्वदर्शक अधोगामी तरंगें भूमिमें तत्काल विसर्जित हो पाती हैं ।

इ. शाक

शाक बहुत महीन (बारीक) न काटकर साधारणतः मध्यम आकारमें काटें, जिससे पत्तोंसे रस बाहर न आए ।

ई. तरकारीके टुकडोंका आकार

तरकारीको अनुपातिक आकारमें अर्थात बहुत बडे अथवा बहुत छोटे भी नहीं, ऐसे मध्यम आकारके टुकडे करें । यदि भिंडी हो, तो एकसे डेढ इंचके टुकडे करें । लौकी जैसी बडे आकारकी तरकारी हो, तो 2-3 इंचके टुकडे करें ।

प्रश्न : 2-3 इंचके टुकडे खाते समय उन्हें तोडना ही पडेगा । ऐसेमें उन्हें पहलेसे ही छोटे क्यों न काटें ?

सामान्य आकारकी तरकारीके टुकडे एकसे डेढ इंचके हों । बडे आकारकी तरकारीकी अधिकतम सीमा 2-3 इंच बताई है । टुकडे एक-डेढ इंचसे छोटे न हों; क्योंकि उसमें विद्यमान सूक्ष्मजन्य प्रभावकारी पोषकता दर्शानेवाली रसबीजरूप रिक्तियोंका ह्रास हो सकता है । (तरकारीकी सूक्ष्म रिक्तियां रसयुक्त होती हैं । अनुपातिक आकारमें तरकारी काटनेसे जीवको भोजन ग्रहण करते समय
इस पोषक रसका लाभ होता है ।)

अ. बहुत छोटी : टुकडोंका आकार बहुत छोटा करनेपर उनमें रसवर्धनकी क्षमताका ह्रास होने लगता है तथा यह प्रक्रिया वेग धारण करती है तथा वायुमंडलमें ही विलीन हो जाती है । ऐसी जीवसत्त्वरहित (विटामिनरहित) तरकारी खानेसे देहको अपेक्षित लाभ नहीं होता ।

आ. मध्यम : इस आकारमें कटी तरकारी दिखनेमें भी अपना अनुपात और आकार खोए बिना, अंदरके रसयुक्त पदार्थोंका भी अपने सूक्ष्म छिद्रोंद्वारा वायुमंडल में धीमे-धीमे उत्सर्जन करती है ।

इ. बहुत बडे टुकडे : बहुत बडे टुकडे करनेसे रस-उत्पत्तिके संदर्भमें विशिष्ट तरकारीमें घनीभूत अधिकांश जीवनवर्धक सूक्ष्मरूप वायुकी स्थिति उत्सर्जन-योग्य नहीं बनती । इसलिए तरकारी पकाते समय वह वायु उसीमें विघटित हो जाती है । अति अल्प मात्रामें बाह्य वायुमंडलमें उत्सर्जित होनेवाली वायुका सूक्ष्म वायुमंडल तरकारीके सर्व ओर घनीभूत होता है । जीवकी सूक्ष्म-पंचप्राणात्मक ऊर्जा इस वायुमंडलको उसकी देहमें आवश्यकतानुसार देहरूप अवकाश-रिक्तिमें समा लेती है ।

उ. रूप

अ. गोलाकार अथवा खडे और सीधे टुकडे : इस स्वरूपमें तरकारी काटनेकी प्रक्रियासे रज-तमात्मक स्पंदनोंकी निर्मिति रुक जाती है ।

आ. कलात्मक स्वरूप : तरकारीको कलात्मक पद्धतिसे तिरछे अथवा पतले गोल टुकडोंमें न काटें; क्योंकि इन तिरछे टुकडोंसे कष्टदायक स्पंदनोंकी निर्मिति होती है । उनसे निकलनेवाले सूक्ष्म घर्षणात्मक नादकी ओर वायुमंडलकी अनिष्ट शक्तियां आकर्षित होती हैं ।

इ. मध्यम आकारमें तरकारी काटनेके लाभ : मध्यम आकारमें तरकारी काटनेसे उसमें सुरक्षित किए गए पोषक रसयुक्त बीजके संवर्धनमें सहायता मिलती है । ये सूक्ष्म बीज भोजनके समय की जानेवाली प्रार्थनाके फलस्वरूप जीवकी देहमें फैल जाते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि भोजनके समय प्रार्थना करना महत्त्वपूर्ण क्यों है । प्रार्थनाके कारण जीव सत्त्वगुणी बनता है, जिससे वह अन्नमें विद्यमान प्राकृतिक सूक्ष्म रसबीज (रसयुक्त बीज) सहज ग्रहण कर स्वयंको आरोग्य-संपन्न रख सकता है ।’ – एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, 27.10.2007, दो. 3.15

ऊ. यंत्रसे तरकारी काटनेसे हानियां

१. जीवसत्त्व : ‘सत्त्वगुणकी सहायतासे जीवनको आरोग्यसंपन्न बनानेवाले घटकोंको ‘जीवसत्त्व’की संज्ञा दी जाती है । निसर्ग-निर्मित प्रत्येक वस्तुमें ईश्‍वरकी कार्यकारणभावात्मक-चैतन्यमय ऊर्जा (कार्यकारणभाव अर्थात वह भाव अथवा संबंध जो कारणका कार्यसे और कार्यका कारणसे होता है ।) छुपी होती है । फलस्वरूप निसर्ग-निर्मित प्रत्येक वस्तु चैतन्यकी अनुभूति दे सकती है; इसीलिए उसे ‘जीवसत्त्वदायिनी’ कहा जाता है ।

२. यंत्रसे काटी गई तरकारीका चेतनाहीन होना : विद्युतवेगसे चलनेवाले यंत्र वेगके बलपर प्रचंड मात्रामें रज-तमात्मक ऊर्जाका निर्माण करते हैं और यह ऊर्जा ही उस विशिष्ट घटकमें विद्यमान जीवसत्त्वरूप कणोंको नष्ट करती है । यंत्र अल्प अवधिमें अत्युच्च वेग धारण कर तरकारीके टुकडे करता है; इसलिए इस वेगकी घर्षणात्मक तरंगोंके सूक्ष्म आघातदायी स्पर्शसे तरकारीमें विद्यमान सूक्ष्म-रस रिक्तियोंका उसी स्थानपर विघटन हो जाता है । इसलिए यंत्रसे काटी गई तरकारी चेतनाहीन, अर्थात किसी कलेवर (शव) समान दिखता है; क्योंकि तरकारी काटनेके उपरांत भी उससे बहुत समयतक रज-तमात्मक तेजदायी विघटनात्मक ऊर्जाका उत्सर्जन होता है । इसलिए ऐसी तरकारी गैसके चूल्हेपर पकानेपर इस उत्सर्जित (उत्सारण करनेकाला) ऊर्जाको (उत्सर्जन प्रक्रियाको) और गति मिलती
है और कालांतरमें यह विघटनात्मक ऊर्जा अन्न पकते हुए ही उसमें घनीभूत होती है । इसलिए हमारे सर्व ओर उत्सारक पीडादायी स्पंदनोंके सूक्ष्म वायुमंडलका निर्माण करती है ।’

– एक विद्वान (पू.) श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळके माध्यमसे, 28.10.2007, सायं. 7.34

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘ रसोई-सामग्रीकी सात्त्विकताका विचार’

Leave a Comment