भेंट देना

भेंट का अर्थ और भेंट कैसी हो ?

भेंट अर्थात जिस वस्तु को कोई छीन न सके । आजकल कीमती वस्तुएं भेंटस्वरूप देने को उपहार मानते हैं; परंतु वास्तव में यह भावनावश किया गया कर्म है । भेेंट दूसरे जीव की आध्यात्मिक उन्नति हेतु पोषक होनी चाहिए । इसके कुछ उदाहरण हैं, ईश्‍वरप्राप्ति हेतु साधना सिखानेवाले ग्रंथ, भक्तिभाव बढानेवाले देवताओंके सात्त्विक चित्र व नामजप-पट्टियां ।

 

भेंट देते समय भाव कैसा हो ?

आजकल भेंट देते समय यह जताया जाता है कि मैं कोई बडा व्यक्ति हूं । यह अयोग्य है । भेंट सदैव अहंरहित एवं निरपेक्ष भावना से देनी अपेक्षित है; अन्यथा लेन-देन का हिसाब निर्माण होता है । भेंट स्वीकारनेवाले जीव में भी यह भाव होना आवश्यक है कि भेंट ईश्‍वर से प्राप्त वस्तुरूपी प्रसाद है ।

 

भेंटपर हलदी-कुमकुम लगाए ।

भेंट दी जानेवाली वस्तु पर हलदी-कुमकुम लगाने से हलदी-कुमकुम की ओर ब्रह्मंाड में कार्यरत ईश्‍वरीय चैतन्य की तरंगें आकर्षित होती हैं । इस कारण जीव को भेंट के साथ इस चैतन्य का भी लाभ प्राप्त होता है ।

 

सर्वोच्च भेंट कौन-सी है और वह कौन दे सकता है ?

ईश्‍वर ही सर्वोच्च दाता हैं । इसलिए ईश्‍वर का साक्षात सगुण रूप अर्थात संत अथवा गुरु ही भेंट देने के अधिकारी होते हैं । गुरु शिष्य की ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति करवाते हैं । गुरु द्वारा सिखाई गई साधना ही कोई नहीं छीन सकता; क्योंकि साधक पर गुरुकृपा अर्थात ईश्‍वरीय कृपा का छत्र होता है । साधना का अवसर प्राप्त होना एवं ईश्‍वरीय कृपा होना ही जीव के लिए ईश्‍वर से प्राप्त सर्वोच्च भेंट है ।

भेंट देनेवाले ईश्‍वररूपी संतों के समक्ष जीव का याचक बनना अपेक्षित है । याचक अर्थात वह जो ईश्‍वर के चरणों में सतत शरणागत रहता है । संतों से भेंट पाने का पात्र बनना अर्थात ईश्‍वरप्राप्ति हेतु पात्र बनना ही वास्तविक शिष्यधर्म है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ पारिवारिक धार्मिक कृतियोंका अध्यात्मशास्त्रीय आधार

Leave a Comment