राष्ट्र एवं धर्म के कार्य में सतर्क रहनेवाले आदर्श धर्मरक्षक श्री. शिवाजी वटकर (आयु ७२ वर्ष) सनातन संस्था के १०२वें संत घोषित !

पू. शिवाजी वटकरजी को सम्मानित करते हुए पू. रमेश गडकरीजी (बाईं ओर)

 

श्री. शिवाजी वटकरजी द्वारा संतपद
प्राप्त किए जाने के संदर्भ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का संदेश

धर्मकार्य की तीव्र तडप एवं भावपूर्ण सेवा के बलपर ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर
प्राप्त कर सनातन के १०२ वें संतपदपर विराजमान देवद आश्रम के पू. शिवाजी वटकरजी (आयु ७२ वर्ष) !

श्री. शिवाजी वटकर पहले एक नौका आस्थापन में बडे पदपर कार्यरत थे । एक उच्चपदस्थ अधिकारी होते हुए भी उनके सहज आचरण और बातों से वह कभी भी प्रतीत नहीं होता था । सर्वसामान्यरूप से ढलती आयु में कोई नई सेवा सिखकर उसे करना बहुत कठिन होता है; परंतु श्री. वटकर इसका अपवाद हैं । वे किसी भी सेवा को बहुत मन से, तडप से और भावपूर्ण करते हैं । उनमें भाव एवं तडप इन गुणों का अपूर्व संगम देखने को मिलता है ।

उनके मन में अन्याय के विरुद्ध सात्त्विक क्षोभ है तथा देवता एवं धर्म का अनादर न हो; इसके लिए वे अत्यंत जागरूक होते हैं । कहींपर भी देवताओं का अनादर होने का ज्ञात होनेपर वे स्वयं का कोई भी विचार न कर उसे रोकने हेतु तडप के साथ प्रयास करते हैं । आश्‍चर्य की बात यह कि उनमें विद्यमान समर्पण भाव के कारण तथा उनमें विद्यमान क्षात्रवृत्ति के कारण उन्हें धर्महानि रोकने में सफलता भी मिलती है । कई असंभाव बातें भी उन्होंने संभव बनाई हैं; इसलिए उन्हें आदर्श धर्मरक्षक कहा जा सकता है ।

विनम्रता, दृढता, ईश्‍वर के प्रति श्रद्धा आदि गुणों के कारण श्री. शिवाजी वटकर की आध्यात्मिक उन्नति तीव्र गति से हो रही है । आज गुरुपूर्णिमा के मंगल दिवसपर उन्होंने ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर वे सनातन के १०२वें समष्टि संतपदपर विराजमान हुए हैं । पू. शिवाजी वटकर की आगे की उन्नति भी इसी प्रकार से तीव्र गति से होगी, इसके प्रति मैं आश्‍वस्त हूं ।’

– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी 

पू. शिवाजी वटकरजी

देवद (पनवेल) : व्यष्टि साधना के साथ ही समाज में धर्मरक्षा के प्रति जागृति लाना काल के अनुसार आवश्यक साधना ही है । परात्पर गुरुदेवजी की इस सीख का अनुकरण कर सनातन संस्था के साधक आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं । ‘धर्म हेतु श्रीरामजी ने ही हमें इस जगत में भेजा । इसे जानकर लेकर रामभक्ति हेतु ऐश्‍वर्य यह प्राप्त हुआ ॥’, इस वचन के अनुसार निष्ठापूर्वक धर्मकार्य करनेवाले देवद आश्रम के साधक श्री. शिवाजी वटकर (आयु ७२ वर्ष) के रूप में सनातन संस्था को क्षात्रतेजयुक्त संतरत्न की प्राप्ति हुई है ।

१६ जुलाई के गुरुपूर्णिमा के मंगल दिवसपर यहां के सनातन आश्रम में संपन्न एक भावसमारोह में इसकी घोषणा की गई । ‘धर्म की रक्षा करना’, ईश्‍वर द्वारा निहित विहित कार्य है’, इस भाव के साथ आयु के सभी बंधन पार कर अखंडित उत्साह के साथ कार्य करनेवाले पू. वटकरकाकाजी ने सभी के सामने एक आदर्श ही रखा है । भाव एवं तडप का अपूर्व संगम, विनम्रता, दृढता एवं सिखने की वृत्ति आदि व्यष्टि गुणों के साथ धर्मरक्षा का निदिध्यास इस समष्टि गुण के कारण उन्होंने ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया । पू. वटकरकाकाजी तो राष्ट्र एवं धर्मकार्य में सदैव सतर्क रहनेवाले एक आदर्श धर्मरक्षक ही हैं !

सनातन संस्था के संत पू. रमेश गडकरीजी ने पू. शिवाजी वटकरजी को माल्यार्पण कर, साथ ही भेंटवस्तु प्रदान कर, शॉल एवा श्रीफल प्रदान कर सम्मानित किया । इस भावसमारोह का सूत्रसंचालन महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कु. तेजल पात्रीकर ने भावपूर्ण पद्धति से किया ।

 

  ऐसे हुई श्री. शिवाजी वटकर के संतपद की घोषणा !

परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने अपने गुरुदेव की सेवा कैसे की होगी, इसका कौतुहल सभी साधकों को होता है । श्री. शिवाजी वटकरकाकाजी ने परात्पर गुरुदेवजी की शिष्यावस्था की साधनायात्रा का बहुत निकटता से अनुभव किया है । मानो साधकों की इस जिज्ञासा को जानकर लेकर पू. (श्रीमती) अश्‍विनी पवारजी ने ‘जैसे कैलास पर्वत की उच्चता है, वैसे ही गुरुदेवजी की सीख भी उच्च है; परंतु मैं स्वयं उनके सामने एक कण के जितना भी नहीं था’, इस प्रकार से भावपूर्ण शब्दों से अपने मनोगत का आरंभ कर परात्पर गुरुदेवजी एवं संत भक्तराज महाराज के आध्यात्मिक नाते का वर्णन किया । यह मुग्ध करानेवाली भाववाणी को सुनकर साधक जब श्री गुरुदेवजी के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रहे थे, तब पू. (श्रीमती) अश्‍विनीदीदीजी ने कहा, ‘‘वटकरकाकाजी की भावावस्था एवं उनकी वाणी में विद्यमान चैतन्य के कारण उनके द्वारा बताए जानेवाले शब्द अंतकरणतक पहुंचकर गुरुदेवजी का अस्तित्व अनुभव हुआ । इसमें काकाजी में विद्यमान अहंशून्यता के दर्शन हुए । गुरुदेवजी ने जिस प्रकार से संत भक्तराज महाराज की सेवा की; उसी भाव से वटकरकाकाजी ने भी प.पू. डॉक्टरजी की  सेवा की ।’’ इससे उन्होंने काकाजी के संतत्व का रहस्य उजागर कर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा श्री. शिवाजी वटकर के संदर्भ में भेजे गए संदेश का वाचन किया और उनके द्वारा ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर सनातन संस्था के १०२वें समष्टि संतपदपर विराजमान होन की घोषणा की ।

 

पू. शिवाजी वटकरजी का सनातन के साधकों को संदेश !

साधकों, अपना सबकुछ समर्पित कर प्रयास करें !

परात्पर गुरु डॉक्टरजी को पहचानना ही हमारी उच्च कोटि की साधना है । केवल इसी से हमारा चैतन्य बढनेवाला है । उसके लिए साधकों को तन,मन, धन और अपना सबकुछ समर्पित कर प्रयास करने होंगे ।

क्षणिका : कु. तेजल पात्रीकर जब गुरुमहिमा का वर्णन कर रही थीं, तब अकस्मात ही वर्षा आरंभ हुई । इस समय साक्षात वरुणदेवता ने अपनी उपस्थिति दर्शाई, ऐसा सभी को प्रतीत हुआ और मानो वरुणदेवता ही गुरुदेवजी का महिमा सुनने हेतु पृथ्वीपर अवतरित हुए हैं, ऐसा प्रतीत हुआ ।

 

पू. शिवाजी वटकरजी का मनोगत

संतपद की घोषणा होते ही पू. वटकरजी ने भावपूर्ण मनोगत व्यक्त किया । साधना का आरंभ करने से लेकर संतपद तकी आध्यात्मिक यात्रा में गुरुदेवजी द्वारा की गई कृपा, साधक एवं संतों से प्राप्त अमूल्य सहयोग के संदर्भ में बताते हुए पू. वटकरकाकाजी का भाव उमड गया था । भावभक्ति से ओतप्रोत यह हृद्य मनोगत उन्हींके शब्दों में दे रहे हैं –

१. केवल कृतज्ञता का भाव एवं कृतज्ञता का ही स्मरण है !

इस समारोह को देखकर कुछ भी ध्यान में नहीं आता, केवल कृतज्ञता का भाव और कृतज्ञता का ही स्मरण होता है । मैने अपनी आयु के ४५वें वर्षतक साधना आदि कुछ भी नहीं किया था । प.पू. डॉक्टरजी के संपर्क में आने के पश्‍चात उनका सत्संग एवं चैतन्य के कारण मुझ में परिवर्तन आए । साधकों ने मेरी चूकें और दोष बताकर मेरी सहायता की । सहसाधक ही मेरे गुरु हैं । मुझे बनाने में उनका बडा योगदान है । अब संतपद घोषित हुआ, इसका अर्थ मैं संत नहीं बना, अपितु मेरी वास्तविक परीक्षा आज आरंभ हुई है । संतपद मिलने का अर्थ उसके अनुसार आचरण कर टिके रहने हेतु और प्रयास करने हेतु मुझे वह दिया गया है । इसके लिए मुझे बल एवं प्रेरणा दें, यह गुरुदेवजी एवं सभी संतों के चरणों में मेरी प्रार्थना है ।

२. कु. रत्नमाला दळवी ने व्यष्टि साधना में बहुमूल्य सहयोग दिया !

पिछले १ वर्ष से ६९ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त साधिका कु. रत्नमाला दळवी मेरी व्यष्टि साधना की समीक्षा करती हैं और वे मुझे मैं कहां अल्प पडता हूं, यह बताती हैं ।

३. सद्गुरु राजेंद्रभैय्या के कारण दोष एवं अहं का निर्मूलन हो सका !

मेरे चित्तपर दोष एवं अहंम का बहुत बडा आवरण (संस्कार) था । उसे निकालना किसी के लिए संभव नहीं था; परंतु सद्गुरु राजेंद्रभैय्या (शिंदे) ने उसे दूर किया । केवल सद्गुरु भैय्याजी में विद्यमान चैतन्य एवं प्रयासों के कारण वह दूर हो सका । इसके लिए उनके चरणों में जितनी भी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, उतनी वह अधुरी ही है । (इस समय पू. वटकरकाकाजी का गला उमडकर आया था ।)

४. परात्पर गुरु पांडे महाराज का ऋण शब्दातीत है !

मुझे परात्पर गुरु पांडे महाराज का ३.५ वर्षोंतक सत्संग मिला । उन्होंने मेरे अहंनिर्मूलन हेतु बहुत परिश्रम उठाए । उन्होंने हंसते-खेलते मेरा अहं दूर किया । उनका मुझपर जो ऋण है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता ।

५. समाज के संतों ने भी मेरी बहुत सहायता की है ।

प.पू. जोशीबाबा (घाटकोपर) एवं प.पू. मलंगशहा बाबा ने भी मुझे सत्संग प्रदान किया ।

६. सद्गुरु एवं संतों का मैं ऋणी हूं !

प्रसार में होते समय सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी ने मेरी बहुत सहायता की है । पू. गडकरीकाका, पू. सदाशिव (भाऊ) परबजी एवं देवद आश्रम के अन्य संतों ने भी मेरी बहुमूल्य सहायता की है । मैं इन सभी का ऋणी हूं ।

७. पू. (श्रीमती) अश्‍विनीदीदी मेरे लिए संत मुक्ताई जैसी हैं !

आयु में छोटी होते हुए भी सभी क्षेत्रों में उच्च स्थानपर विराजमान पू. (श्रीमती) अश्‍विनीदीदी मेरे लिए संत मुक्ताई जैसी हैं । मेरी कोई पात्रता न होते हुए भी उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया । मुझे उनके सत्संग का लाभ मिला ; इसलिए मैं उनके चरणों में अनंत कोटि कृतज्ञ हूं !

८. मेरे सभी परिवारजनों का सहयोग मिलने से ही मैं साधना कर सका !

मेरी बहन जनाबाई नारायणकर ने मुझे बहुत प्रेम दिया । वे सदैव सकारात्मक होती हैं । समस्याओं के समय उसने मेरी मां को संभाला; इसी कारण मैं साधना कर सकता । मेरे परिवारजनों ने भी मुझे आश्रम में रहकर साधना की अनुमति दी । इन सभी का अमूल्य सहयोग मिलने के कारण मैं साधना कर सका; इसके लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूं ।

स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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