अपने कार्य और आचरण से सबके सामने आदर्श रखनेवाली सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडये !

पिछले कुछ दिनों से मैं और श्री. आदित्य शास्त्री सदगुरु (कुमारी) स्वातीजी के साथ महाराष्ट्र के विविध जनपदों में प्रसारकार्य सीखने के लिए जा रहे हैं । इन दिनों मैंने सद्गुरु स्वातीजी से जो कुछ सीखा है, उसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रही हूं ।

 

१. साधक के घर पर रहते समय उसके परिजनों से बातचीत करना, उनकी
साधना से संबंधित शंकाएं और कठिनाइयां हल करने का भरसक प्रयास करना

‘सद्गुरु स्वातीजी तीन बडे सत्संग करती हैं । वे साधकों, हितैषियों और हिन्दुत्ववादियों से व्यक्तिगत संपर्क के लिए भी समय देती हैं । जब कभी कोई साधक अथवा जनपदसेवक उनसे अपनी कठिनाइयां बताता है, तब वे उनकी सहायता करती हैं । जब उनकी निवासव्यवस्था किसी साधक अथवा जिज्ञासु के घर होती है, तब वे उसके सभी परिजनों से प्रेमपूर्वक बात करती हैं । उनकी साधना-संबंधी संदेह और कठिनाइयों का निवारण करने का अधिक से अधिक प्रयास करती हैं और उन्हें कोई खाद्य पदार्थ (खाऊ) भेंट करती हैं । वे, सत्संग अथवा किसी से मिलने की योजना निजी कारणों से कभी लंबित अथवा स्थगित नहीं करतीं ।

 

२. योजना और समय की बचत का महत्त्व सीखने को मिला

समय की बचत हो और सेवा की फलोत्पत्ति बढे, इसके लिए सद्गुरु स्वातीजी अगले तीन महिने की योजना बनाती हैं और उसकी प्रतिलिपि सद्गुरु (श्रीमती) बिंदाजी तथा जनपदसेवकों को देती हैं । जब पता चलता है कि साधक भ्रमणभाष (मोबाइल) पर अनावश्यक बातें करते हैं, तब वे साधकों को निर्धारित समय पर ही भ्रमणभाष करने की सूचना देती हैं; परंतु यह भी कहती हैं कि जब आवश्यक लगे, तब कभी भी संपर्क कर सकते हैं । इससे हमें योजना बनाने और समय की बचत का महत्त्व सीखने को मिला । उनकी आवश्यकताएं अल्प हैं । वे, नींद का समय और व्यक्तिगत कार्य का १ घंटा छोडकर, शेष ६ से १८ घंटे का समय समाज को देती हैं ।

 

३. निरपेक्षता और दूसरों की व्यष्टि साधना बढाने की चिंता

समष्टि सेवा में व्यस्त रहने पर भी, उनके साथ सीखने के लिए रहनेवाले साधकों से उनकी कोई अपेक्षा नहीं रहती । सेवा के कारण व्यष्टि साधना की उपेक्षा न हो, वह नियमित होती रहे, इस बात के लिए वे सतर्क रहती हैं । इसीलिए वे हमारी व्यष्टि साधना के विषय में हमसे पूछती हैं और उसके लिए निरंतर प्रेरित करती हैं ।

 

४. दूसरों की प्रशंसा करना और अपनी चूकों के लिए प्रायश्चित करना

सद्गुरु स्वातीजी जनपदों में जाती हैं, तब कोई अधिक तीखा भोजन बनाता है, तो कोई अल्प तीखा । उस समय वे साधकों पर क्रोध न कर, उन्हें प्रेम से अपने भोजन के विषय में बताती हैं कि अधिक तीखे भोजन से मुझे कष्ट होता है । इसी प्रकार, जब कोई साधक बहुत श्रद्धा से भोजन बनवाता है, तब वे उसकी प्रशंसा करती हैं । स्वयं सद्गुरु होने पर भी, वे अपनी चूक के लिए तुरंत क्षमा मांगती हैं और प्रायश्चित करती हैं ।

 

५. साधकों की चूकों पर तत्त्वनिष्ठा और नम्रता से मार्गदर्शन करना

स्वातीजी स्वयं सद्गुरु होने पर भी, मार्गदर्शन करते समय साधकों के मन पर साधना का महत्त्व अंकित हो, इसके लिए वे हाथ जोडकर उनसे विनती भी करती हैं । साधकों की संख्या अल्प-अधिक होने पर भी, उनकी लगन में कोई अंतर नहीं पडता । जब साधक सत्संग में अपनी चूकें बताते हैं, तब वे उन्हें तत्त्वनिष्ठा से समझाती हैं कि उनसे गुरुकार्य और साधना की किस प्रकार हानि हो रही है । सत्संग में कठोर निर्णय लेने पर भी, सत्संग की समाप्ति पर वे साधकों से प्रेमपूर्वक बोलती हैं, जिससे साधकों को उनके प्रति कृतज्ञता लगती है ।

६. निर्णयक्षमता

अ. एक बार एक धर्माभिमानी के यहां सद्गुरु स्वातीजी को भोजन का निमंत्रण मिला था । उनमें श्रद्धाभाव होने के कारण वे सद्गुरु स्वातीजी के चरण धोकर आरती उतारनेवाले थे । सद्गुरु स्वातीजी जब गाडी से उतरीं, तब उन्हें यह सब तैयारी दिखी । उन्होंने परात्पर गुरु डॉक्टरजी का एक बडा छायाचित्र सामने रखते हुए उनकी आरती उतारने के लिए कहा । उस धर्माभिमानी ने उनकी यह बात तुरंत मान ली ।

आ. एकबार एक साधक ने उन्हें चांदी के वर्क में लिपटी काजूकतली (मिठाई) दी । तब उन्होंने कहा कि ‘‘यह वर्क गाय की चरबी से बनता है’’ और वह मिठाई नहीं खाई ।

इ. एक जनपद में मतदान के दिन सवेरे ११ बजे सत्संग रखा गया था । साधकों को अपना सब काम पूरा कर, सत्संग में आना था । इसलिए बहुत से साधक मतदान न कर, सत्संग में आनेवाले थे । यह समझने पर, सद्गुरु स्वातीजी ने सत्संग का समय आगे बढा दिया और सबको मतदान के पश्चात आने के लिए कहा ।
ऐसे अनेक अवसरों पर सद्गुरु स्वातीजी से अनेक बातें मुझे सीखने के लिए मिलीं । इसके लिए मैं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी और सद्गुरु स्वातीजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करती हूं ।

– श्रीमती राजश्री देशमुख, सोलापुर

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