कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का सुंदर संगम बने बेळगाव (कर्नाटक) के डॉ. नीलकंठ दीक्षितजी (आयु ९० वर्ष) सनातन के ८७ वें व्यष्टि संतपदपर विराजमान !

पति को गुरु मानकर साधना के रूप में उनकी सेवा करनेवाली
श्रीमती विजया दीक्षित (आयु ८६ वर्ष) ने प्राप्त किया ६७ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर !

पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितजी को सम्मानित करते हुए पू. रमाकांत गौडाजी, बाजू में श्रीमती विजया दीक्षित
श्रीमती विजया दीक्षित को सम्मानित करते हुए पू. शंकर गुंजेकरजी
पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितजी एवं श्रीमती विजया दीक्षित के साथ १. उनके पौत्र श्री. सत्यकाम कणगलेकर २. जामात श्री. यशवंत कणगलेकर ३. पुत्री श्रीमती अंजली कणगलेकर
पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितजी एवं श्रीमती विजया दीक्षित के साथ १. उनकी बडी बहू श्रीमती अनघा जयंत दीक्षित तथा २. छोटी बहू श्रीमती स्मिता प्रसाद दीक्षित

बेळगाव (कर्नाटक) : २५.४.२०१९ को यहां संपन्न सत्संगसमारोह में डॉ. नीलकंठ अमृत दीक्षितजी के सनातन के ८७ वें संत बन जाने की तथा उनकी पत्नी श्रीमती विजया नीलकंठ दीक्षित द्वारा ६७ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किए जाने की घोषणा की गई । इस कार्यक्रम में कर्नाटक राज्य धर्मप्रसारक पू. रमाकांत गौडाजी तथा बेळगाव के सनातन के ५६वें संत पू. शंकर गुंजेकरजी की वंदनीय उपस्थिति थी । पू. (डॉ.) दीक्षितदादाजी को पू. रमानंदभैय्या ने, तो श्रीमती विजया दीक्षित को पू. गुंजेकरमामाजी ने सम्मानित किया । पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितजी के निवासपर अत्यंत भावपूर्ण वातावरण में संपन्न इस समारोह का बेळगाव जनपद के साधकों ने संगणकीय प्रणाली के माध्यम से लाभ उठाया ।

 

जीवन के प्रत्यक्ष क्षण को व्रतस्थता से व्यतीत करनेवाले पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितजी
तथा साधना के रूप में पतिसेवा करनेवाली श्रीमती विजया दीक्षित आदर्श गुरु-शिष्य हैं !

‘बेळगाव के डॉ. नीळकंठ दीक्षित का संपूर्ण जीवन ही आदर्शवत् है । जीवनभर तत्त्वनिष्ठता से आचरण कर तथा आवश्यकता पडनेपर रोगियों की निःशुल्क चिकित्सा करनेवाले डॉ. दीक्षितदादाजी ने इसके द्वारा आजकल के चिकित्सकों के सामने बडा आदर्श स्थापित किया है । बचपन से ही संतों के सान्निध्य में रहने के कारण उन्हें साधना के संस्कार मिले । उनकी विशेषता यह कि उन्होंने संतों की मनोभाव से सेवा कर संतसंगति का लाभ उठाया । उसके कारण निष्काम कर्मयोग साधते हुए ज्ञानयोग एवं भक्तियोग इन मार्गों से भी उनकी साधना होती रही । इस आयु में भी उनमें विद्यमान ज्ञान ग्रहण करने में रूचि तथा जिज्ञासा प्रशंसनीय है ।

पू. दीक्षितदादाजी सदैव निर्विचार अवस्था में तथा अखंड भाव की स्थिति में होते हैं । दादाजी के शरीर में दैवीय परिवर्तन आए हैं तथा उनके अस्तित्व के कारण उनके निवास में भी परिवर्तन आए हैं । कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का सुंदर संगम बने डॉ. नीलकंठ अमृत दीक्षितजी ने ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर अब वे सनातन के ८७वें संत बन गए हैं ।

पू. दीक्षितदादाजी की साधनायात्रा में उनकी पत्नी श्रीमती विजया नीलकंठ दीक्षित ने उन्हें बहुमूल्य साथ दी है । उनकी विशेषता यह कि उन्होंने १०-१५ वर्ष पूर्व ही दादाजी में विद्यमान संतवृत्ति को पहचाना और उन्हें गुरु मानकर उनकी सेवा की । अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को व्रतस्थता के साथ व्यतीत करनेवाले पू. दीक्षितदादाजी एवं दादीजी आदर्श गुरु-शिष्य हैं । ऐसा उदाहरण तो दुर्लभ होगा । पतिसेवा को साधना के रूप में निभानेवाली श्रीमती दीक्षितदादीजी की आध्यात्मिक उन्नति भी तीव्रगति से हो रही है और उन्होंने भी ६७ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है । इन दोनों द्वारा दिए गए अच्छे संस्कारों के कारण उनका परिवार, साथ ही उनकी पुत्री का समस्त कणगलेकर परिवार भी साधनारत है ।

 

‘पू. दीक्षितदादाजी एवं श्रीमती दीक्षितदादीजी की आगे की उन्नति भी इसी
प्रकार से तीव्रगति से होगी, इसके प्रति में आश्‍वस्त हूं ।’  – परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी

पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितदादाजी को संत घोषित किए जाने के पश्‍चात उनके द्वारा व्यक्त मनोगत ‘मैने कुछ भी नहीं किया; किंतु मेरी उन्नति कैसे हुई ? यह सब करनेवाले प.पू. डॉक्टरजी के चरणों में कृतज्ञता ! (इस समय भाव से ओतप्रोत पू. दीक्षितदादाजी की भावजागृति होने से उन्हें इससे अधिक बोलना संभव नहीं हुआ ।)

ऐसे हुई डॉ. नीलकंठ दीक्षितदादाजी के संत बनने की तथा उनकी पत्नी
श्रीमती विजया दीक्षितदादीजी द्वारा ६७ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किए जाने की घोषणा !

बेळगाव के डॉ. दीक्षितजी के निवासपर सत्संग की सिद्धता आरंभ हुर्स । वयोवृद्ध दीक्षित दंपति के साथ ही बेळगाव के सभी साधकों को ‘इस सत्संग में क्या मार्गदर्शन होगा ?’, इसकी जिज्ञासा लगी थी । गुरुदेवजी की कृपा के क्या कहने ? दीक्षित दंपति के मुखमंडलपर प्रत्येक क्षण को इसके लिए आत्यंतिक कृतज्ञता प्रतीत हो रही थी कि हमें उन्हें सत्संग समारोह के स्थानपर जाने के लिए प्रवास के कष्ट न हों; इसके लिए परमदयालु श्रीगुरुदेवजी ने उनके निवासपर ही इस सत्संग समारोह का आयोजन किया । देखते-देखते सत्संग समारोह आरंभ होने का समय आ गया । व्हीलचेयरपर बैठे डॉ. दीक्षितजी की बाईं ओर जीवनभर किसी छाया की भांति उनके साथ रहकर उनकी सेवा करनेवाली उनकी पत्नी श्रीमती विजया दीक्षित बैठी थीं । पू. रमानंद गौडाजी डॉ. दीक्षितजी की दाहिनी ओर बैठ गए । उनके साथ कुछ क्षण अनौपचारिक बातें करने के पश्‍चात पू. रमानंदभैय्याजी ने बताया, ‘‘प.पू. डॉक्टरजी ने हमारे लिए एक विशेष भेंट भेजी है । आईए, हम उसे देखते हैं !’’ और उन्होंने गोवा के सनातन आश्रम में एक संतजी के साथ दीक्षित दंपति की हुई भेंट की ध्वनिचित्रचक्रिका दिखाने के लिए कहा । उस ध्वनिचित्रचक्रिका को देखकर दीक्षित दंपति के साथ उपस्थित सभी साधकों का भाव जागृत हुआ ।

तत्पश्‍चात पू. रमाकांतभैय्याजी ने डॉ. दीक्षितदादाजी से कहा, ‘‘दादाजी, आपने एक बार प.पू. डॉक्टरजी से पूछा था न, ‘आप मुझे सम्मानित क्यों कर रहे हैं ?’ प.पू. डॉक्टरजी ने उस प्रश्‍न का उत्तर यह दिया है अब आपका आध्यात्मिक स्तर ७१ प्रतिशत हुआ है और आप संत बन गए हैं ।’’ इसके पश्‍चात पू. रमानंदभैय्याजी ने पू. (डॉ.) दीक्षितदादाजी को माल्यार्पण कर, साथ ही प.पू. डॉक्टरजी का छायाचित्र, शॉल एवं श्रीफल प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया ।

पू. दीक्षितदादाजी के संदर्भ में उनके परिजनों द्वारा मनोगत व्यक्त किए जाने के पश्‍चात अंत में श्रीमती विजया दीक्षितदादीजी ने अपना मनोगत व्यक्त किया । इस विषय में बोलते हुए पू. रमानंदभैय्याजी ने पू. (डॉ.) दीक्षितदादाजी की इतने वर्षों से भावपूर्ण सेवा कर रहीं दादीजी का आध्यात्मिक स्तर विगत २ वर्षों में बढकर ६७ प्रतिशत होने की घोषणा की । तत्पश्‍चात पू. शंकर गुंजेकरमामाजी के हस्तों श्रीमती दीक्षितदादीजी को सम्मानित किया गया ।

 

ध्वनिचित्रचक्रिका को देखकर डॉ. नीलकंठ
दीक्षितजी एवं श्रीमती विजया दीक्षित द्वारा व्यक्त मनोगत

१. ‘ध्वनिचित्रचक्रिका के माध्यम से पुनः गुरुदेवजी के दर्शन हुए ।’ – पू. (डॉ.) दीक्षितदादाजी

२. ‘हमारा संपूर्ण परिवार प.पू. गुरुदेवजी के ऋणी हैं । प.पू. गुरुदेवजी के साथ व्यतीत क्षणों का हमारे जीवन के अंततक स्मरण रहेगा । सभी साधकों ने भी हमें बहुत प्रेम दिया । प.पू. गुरुदेवजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !’ – श्रीमती विजया दीक्षित, बेळगाव, कर्नाटक

 

पू. (डॉ.) नीलकंठ दीक्षितदादाजी को संत
घोषित किए जाने के पश्‍चात उनके परिजनों द्वारा व्यक्त मनोगत

१. ‘आचारः परमो धर्मः’ अर्थात ‘आचार परम धर्म है’, इस वचन के अनुसार जीवन व्यतीत कर आध्यात्मिक उन्नति की जाने का मूर्तिमंत उदाहरण हैं मां-पिताजी (ससुर पू. (डॉ.) दीक्षितजी एवं सासू मां श्रीमती दीक्षित) । उन्होंने जीवनभर आचारधर्म का कठोरता से पालन किया । मेरे विवाह के पश्‍चात उनके रूप में मुझे मेरे माता-पिता ही मिल गया और अब तो उनके रूप में मुझे संत मिल गए हैं । मेरे द्वारा उनकी अधिकाधिक सेवा हो ।’ – श्री. यशवंत कणगलेकर (जमाई), बेळगाव, कर्नाटक

२. ऐसा कहा गया है ‘माता-पिता ही पहले गुरु होते हैं ।’ माता-पिता ने हमें अच्छे संस्कार दिए । उनके कारण हम साधना में आए । इसके लिए कृतज्ञता के अतिरिक्त मेरे पास अन्य कोई शब्द नहीं है ।’ – श्रीमती अंजली कणगलेकर (पू. (डॉ.) दीक्षित एवं श्रीमती दीक्षित की पुत्री), बेळगाव

३. ‘आज का यह दिन बहुत आनंद का दिन है । पू. पिताजी (पू. (डॉ.) दीक्षितजी) से हमने साधना सीखी और शरणागत होना सीखा । मुझे लगता है कि अब हमें मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं है । मेरे द्वारा उनकी सेवा हो । गुरुदेवजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता!’ – श्रीमती अनघा जयंत दीक्षित (बडी बहू), बेळगाव

४. ‘दादाजी के स्थानपर कभी मुझे पू. वैशंपायनदादाजी (योग विशेषज्ञ दादाजी वैशंपायनजी) के, तो कभी प.पू. डॉक्टरजी के दर्शन होते थे । संतों का चैतन्य अलग-अलग माध्यम से कार्यरत होता है । इसलिए मुझे दादाजी के स्थानपर इस प्रकार से दर्शन होते हैं । प.पू. डॉक्टरजी ने इस सत्संग समारोह के माध्यम से यह सिखाया । उनके प्रति में कृतज्ञ हूं ।’ – डॉ. अंजेश कणगलेकर (पौत्र), बेळगाव

५. ‘गरमी की छुट्टीयों में जब हम ननिहाल जाते थे, तब मैं दादाजी को प्रातः ३ बजे से देवतापूजन करना, पेडों को पानी देना आदि कृतियां नियमितरूप से करते हुए देखा है । वे प्रातः उठने से लेकर रात को सोनेतक आचारधर्म का कठोरता से पालन करते थे । दादाजी द्वारा दिए गए प्रेम के कारण कई लोगों को वे अपना आधार लगते हैं । ‘डॉ. दीक्षितजी के घर जाना है’, केवल इतना ही बताने से अनेक ऑटोवाले संबंधित व्यक्ति को अचूकता से दादाजी के घरतक लेकर आते हैं । मुझे संस्कार देनेवाले दादा-दादी मिलें; इसके लिए मैं गुरुदेवजी के चरणों में कृतज्ञ हूं ।’ – श्री. सत्यकाम कणगलेकर (पौत्र), बेळगाव

६. मेरे पति (पू. (डॉ.) दीक्षितजी) अत्यंत संतुष्ट हैं । उन्हें कभी किसी विषयपर शिकायत नहीं होती । खाना-पीना, औषधियां लेना आदि किसी भी विषय में वे कभी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते । वे स्वयं एक डॉक्टर हैं; किंतु वे अन्य डॉक्टरों का सुझाव मानते हैं । वे अत्यंत शांत हैं । मुझे उनमें यह परिवर्तन प्रमुखता से दिखाई देता है । मुझे समाजसेवा में बहुत रूचि थी; परंतु इनके (पू. डॉ.) दीक्षितजी) की सेवा हेतु समय देना संभव हो; इसके लिए मैने समाजसेवा बंद की ।’ – श्रीमती विजया दीक्षित (पत्नी), बेळगाव, कर्नाटक

व्यंगात्मक प्रसंग : श्रीमती दीक्षित का मनोगत सुनने के पश्‍चात पू. दादाजी ने व्यंगात्मक पद्धति से श्रीमती दीक्षित से कहा, ‘‘तुम्हें मेरे विषय में बोलने के लि, कहा गया था; किंतु तुमने तो स्वयं की ही प्रशंसा कराई ।’’ इसपर दादीजी ने कहा, ‘‘जी हां; किंतु वह आप ही के विषय में तो था ।’’

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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