सात्त्विक, सहनशील वृत्ति, निरपेक्ष प्रेम आदि दैवीय गुणों से युक्त शालिनी माईणकरदादीजी (आयु ९२ वर्ष) संतपदपर विराजमान !

नम्रता, निरपेक्ष प्रेमभाव और अनासक्तवृत्ति के कारण गृहस्थि में रहकर भी
तीव्रगति से आध्यात्मिक उन्नति करना संभव है, इसका उत्तम उदाहरण हैं शालिनी माईणकरदादीजी !

पू. मालिनी माईणकरदादीजी को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का छायाचित्र प्रदान कर उन्हें सम्मानित करते हुए पू. रमानंद गौडा

मूलतः सात्त्विक वृत्ति तथा अल्प अहं से युक्त माईणकरदादीजी ने गृहस्थी के प्रत्येक प्रसंग का सहनशीलता के साथ सामना किया । प्रत्येक प्रसंग को उन्होंने ईश्‍वरेच्छा के रूप में स्वीकार किया और अध्यात्म को प्रत्यक्षरूप से आचरण में कैसे लाना है ?, इसकी सीख सभी को दी । ‘होते हुए गृहस्थी में चित्त सदा रहे चरणों में’ की स्थितिवाली दादीजी की अंतर्मन से साधना होती रही । नम्रता, निरपेक्ष प्रेम तथा अनासक्त वृत्ति के कारण ‘गृहस्थी में रहते हुए भी तीव्रगति से आध्यात्मिक उन्नति कर लेना संभव है’, इसका उदाहरण है माईणकरदादीजी !

उनके मुखमंडलपर विलसते भाव, प्रेम एवं निर्मल आनंद, ये सभी बातें उनमें विद्यमान संतत्व का दर्शन कराते हैं । कारवार के साधक, साथ ही दादीजी के परिजनों की भी जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी अल्प है; क्योंकि उन्होंने दादीजी में आए, साथ ही उनके निवास में आए परिवर्तनों को अचूकता से पहचाना ।

अल्प अहं, निरपेक्ष प्रेमभाव आदि गुणों के कारण दादीजी ने ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया है और अब वे सनातन की ८६वीं संत बन गई हैं ।

‘पू. माईणकरदादीजी की आगे की उन्नति भी इसी तीव्रगति से होगी, इसके प्रति मैं आश्‍वस्त हूं ।’

– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी

पू. शालिनी माईणकरदादीजी के साथ बाईं ओर से प्रपौत्री कु. अनन्या जोशी, नातिबहू (बेटी की बहू) श्रीमती दिव्या जोशी, पू. दादीजी की बडी पुत्री श्रीमती मेधा जोशी, द्वितीय पुत्री श्रीमती सुधा जोशी, छोटी पुत्री श्रीमती अनुराधा पुरोहित तथा नातिन कु. सोनल जोशी

कारवार (कर्नाटक) : कर्नाटक का एक प्राकृतिक दृष्टि से बहुत सुंदर नगर है कारवार ! कारवार में वर्ष १९९७ में सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ‘गुरुकृपायोग के अनुसार साधना’ के संदर्भ में मार्गदर्शन करनेवाले एक सत्संग का आयोजन किया गया था । तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने जो साधना का बीज बोया, आज उसका वटवृक्ष बन गया है । संत और साधक मानो इस वटवृक्ष के फल हैं । परात्पर गुरुदेवजी के मार्गदर्शन में साधकों ने तन, मन एवं धन का त्याग कर घर-घर जाकर साधना का प्रसार किया । उससे अनेक परिवार संस्था के कार्य से जुड गया । अनेक साधकों ने तडप के साथ तथा भावपूर्ण साधना कर अध्यात्म में उन्नति कर ली । इसी कारवार को २३.४.२०१९ के दिन पू. शालिनी माईणकरदादीजी (आयु ९२ वर्ष) के रूप में एक संतरत्न प्राप्त हुआ । यहां के एक सत्संगसमारोह में सनातन के कर्नाटक राज्य धर्मप्रसारक पू. रमानंद गौडाजी ने माईणकरदादीजी के सनातन की ८६वीं संत बन जाने की घोषणा की । इस शुभसमाचार की घोषणा होते ही सभी साधकों के हाथ अज्ञातवश जुड गए और उनके द्वारा कृतज्ञता व्यक्त हुई । तत्पश्‍चात पू. रमानंदभैय्या ने पू. दादीजी को माल्यार्पण कर, साथ ही शॉल, श्रीफल एवं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का छायाचित्र (प्रतिमा) प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया ।

 

ऐसे हुई शालिनी माईणकरदादीजी द्वारा संतपद प्राप्त किए जाने की घोषणा !

कारवार के साधकों को अकस्मात ही एक सत्संग समारोह का शीघ्रता से आयोजन करने का संदेश मिला । कारवार में कई वर्ष पश्‍चात गुरुपूर्णिमा समारोह के अतिरिक्त समारोह होना था । संदेश मिलते ही साधकों ने तुरंत ही सत्संग समारोह की सिद्धता आरंभ कर अत्यंत अल्प अवधि में ही सिद्धता पूर्ण की । इस समय सभी साधकों के मन में ‘इस सत्संग समारोह में हमें क्या सीखने को मिलेगा ? तथा ‘आज प.पू. गुरुदेवजी हमें किस प्रकार से आनंद देनेवाले हैं ?, यह जिज्ञासा थी । इस समारोह में कारवार, शिरसी, शिवमोग्गा आदि स्थानों से भी साधक एकत्रित हुए थे । इस सत्संग में सनातन के कर्नाटक धर्मप्रसारक पू. रमानंद गौडा का मार्गदर्शन हुआ । इस मार्गदर्शन से साधकों को गुरुपूर्णिमा हेतु समर्पित भाव से साधना की प्रेरणा मिली । कुछ साधकों ने गुरुपादुका पूजन समारोह में उन्हें प्राप्त अनुभूतियां बताईं । तत्पश्‍चात पू. रमाकांतभैय्या ने इस सत्संग समारोह में पहली ही पंक्ति में बैठी हुईं तथा मुखमंडलपर सात्त्विक एवं निष्पाप भाव से युक्त शालिनी माईणकरदादीजी को व्यासपीठपर आने का अनुरोध किया । तब सभी की व्याकुलता शीर्ष को जा पहुंची । अब पू. रमानंदभैय्या क्या बतानेवाले हैं, इसकी ओर सभी का ध्यान केंद्रित था, तो कुछ साधकों को आज कोई तो शुभसमाचार मिलनेवाला है, इसकी भनक लगी थी । तब पू. रमाकांतभैय्या ने साधकों को ‘व्यासपीठपर विराजमान श्रीमती माईणकरदादीजी की ओर देखकर क्या लगता है ?’, इसका अनुभव करने के लिए कहा । तब एक-एक कर के साधक बताने लगे । साधकों ने दादीजी की ओर देखकर निरपेक्ष प्रेम, भाव, चैतन्य एवं आनंद प्रतीत होने की बात कही । तत्पश्‍चात पू. रमाकांतभैय्याजी ने माईणकरदादीजी के सनातन की ८६वीं संत बन जाने की घोषणा की और तब सभागार में एक आनंद की लहर ही फैल गई । यह सुनकर उपस्थित साधकों के मुखमंडलोंपर आनंद विलस गया और कृतज्ञता से उनके हाथ जुड गए ।

 

अल्प अहंवाली पू. (श्रीमती) माईणकरदादीजी !

वर्ष २०१७ में रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में माईणरदादीजी प.पू. डॉक्टरजी से मिली थीं । तब वे उन्हें झुककर प्रणाम करने लगीं, तब प.पू. डॉक्टरजी ने कहा, ‘‘दादीजी, अब आपको मुझे प्रणाम करने की आवश्यकता नहीं है । जिन में अहं होता है, उसका अहं न्यून हो; इसके लिए उसे झुककर प्रणाम करना आवश्यक होता है; किंतु अब आपकी स्थिति उससे परे हैं । आपमें मूलतः अहं बहुत ही अल्प है ।’’

– कु. सोनल जोशी (पू. दादीजी की नातिन), फोंडा, गोवा

 

पू. माईणकरदादीजी के संदर्भ में उनके परिजनों द्वारा व्यक्त मनोगत

१. ‘मां तो प्रेम का (निरपेक्ष प्रेम का) महासागर है । – श्रीमती मेघा जोशी (पू. दादीजी की बडी बेटी), कारवार, कर्नाटक

२. मां ने हमें बचपन से अच्छे संस्कार दिए ।’ – श्रीमती सुधा जोशी (पू. दादीजी की द्वितीय बेटी), वास्को, गोवा

३. ‘आज मैं इतनी आनंदित हूं कि मां के विषय में बोलने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं ।’ – श्रीमती अनुराधा पुरोहित (पू. दादीजी की छोटी बेटी), फोंडा, गोवा

४. ‘दादीजी में प.पू. डॉक्टरजी के प्रति बहुत भक्ति है । ‘परेच्छा से कैसे आचरण करना चाहिए’, यह हमने दादीजी से सीखा । उन्होंने सदैव मन का त्याग किया है । प्रत्येक बार उन्होंने हमें साधना हेतु प्रोत्साहित किया; इसी कारण मुझे पूर्णकालीन साधना की प्रेरणा मिली ।’ – कु. सोनल जोशी (पू. दादीजी की नातिन), फोंडा, गोवा 

पू. शालिनी माईणकरदादीजी द्वारा उनके सम्मान समारोह में साधकों को दिया गया संदेश !

पू. दादीजी को साधकों को मार्गदर्शन हेतु प्रार्थना करनेपर उन्होंने अपने मार्गदर्शन का आरंभ ‘गुरुदेवजी को नमस्कार तथा परमपूज्यजी को नमस्कार’ कहते हुए कर कहा, ‘‘प.पू. डॉक्टरजी के मन में साधकों के प्रति जो प्रेम है, उसे हम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते । परमपूज्यजी ही हमारे ईश्‍वर हैं । वे जो साधना बताते हैं, उसे साधकों को करते रहना चाहिए । उनके द्वारा बताए जाने के अनुसार बहुत नामजप करना चाहिए ।’’ पू. दादीजी को इतना बोलते समय ही दम लग रहा था । उनका स्वर अस्पष्ट था; परंतु उनमें विद्यमान कृतज्ञताभाव सभी को प्रतीत हो रहा था । उनके द्वारा उच्चारित प्रत्येक वाक्य का आरंभ ‘परमपूज्य’ शब्द से हो रहा था । गुरुस्मरण तो उनकी प्रत्येक सांस में समाया है, इसका मानो यह प्रतीक है ।

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