कल्याण का ऐतिहासिक त्रिविक्रम देवस्थान तथा हिन्दुआें को एकसंध रखनेवाले वैकुंठ चतुर्दशी का महत्त्व !

संपूर्ण विश्‍व में अलग-अलग देवताआें के मंदिर खडे रहे । प्रत्येक साधक अपनी देवता तथा संप्रदाय का गुणगान और प्रसार करने लगा । अपनी देवता की अपेक्षा दूसरी देवता को कनिष्ठ मानकर उन देवताआें की उपासना करनेवाले साधकों से शत्रुता करने लगा । इसके फलस्वरूप शैव-वैष्णव संप्रदाय एक-दूसरे के विरुद्ध खडे रह गए । इस भेदभाव को नष्ट करने के लिए अनेक ग्रंथ लिखे गए ।

श्री कालभैरव वरद स्तोत्र में देवताआें की एकरूपता के विषय में उल्लेख है –

३३ कोटि हैं देवता । हर कोई स्वयं ही श्रेष्ठ कहता । सामान्य मति मग्न हो जाती ॥६॥

गाणपत्य कहते गणपति । शक्तिवाले कहतें महाशक्ति । स्मार्त कहते पशुपति । वैष्णव कहते श्री विष्णु ॥७॥

नाना देव देवता । प्रत्येक की श्रेष्ठ-कनिष्ठता । अपनी अपनी क्षमता से भक्तों को । आकर्षित करते ॥

यह श्रेष्ठ अथवा वह श्रेष्ठ कौन किससे कनिष्ठ । न समझने से यह स्पष्टता से । मन को संदेह होता ॥९॥

कभी-कभी यह विवाद शीर्षपर पहुंचकर दंगे होने लगे । उस समय जगद्गुरु श्री शंकराचार्यजी ने पंचायतन देवतापद्धति का आरंभ कर मतभेदों को दूर कर सभी को एकजुट करने का प्रयास किया । ऐसे अनेक प्रयास ऋषियों के समय से चलते आ रहे हैं ।

संस्कारों के कारण गुणों की वृद्धि तथा दोषों का क्षय होता है, यह ज्ञात होने से ही हिन्दू संस्कृति टिकी रही है । हिन्दू संस्कृति ने ही जीवनपद्धति का अध्ययन कर राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक विकास किया । उन्हीं में से एक वैकुंठ चतुर्दशी एक महान प्रयोग है ।

कार्तिक शुद्ध चतुर्दशी को वैकुंठ चतुर्दशी के नाम से तथा इस मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है । विष्णु एवं शिव एक ही परमात्मा के कार्य के अनुरूप प्रकट २ रूप हैं । हम केवल अज्ञानवश इन दो देवताआें की कल्पना कर एक-दूसरे के साथ पंथभिन्नता रखते हैं । शास्त्र ने इस मतभिन्नता को दूर कर विष्णुशिवात्मक एकता को दर्शाने हेतु उपर्युक्त योजना बनाई है । पंचांग में इस दिन के लिए वैकुंठ चतुर्दशी का उपवास, आमला के पेड के नीचे विष्णुपूजन, मध्यरात्रि में विष्णुपूजन कर उसके पश्‍चात सूर्योदय के समय शिवपूजन करें, यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है । अनेक लोग वैकुंठ चतुर्दशी के दिन व्रत रखते हैं । वैकुंठ बाति लगात हैं और रात में हरिहर भेंट का आनंद उठाते हैं ।

त्रिविक्रम देवस्थान में वैकुंठ चतुर्दशी के दिन शिवजी को तुलसी तथा श्री विष्णु को बेल समर्पित करने की पद्धति है । संत नरहरि के समय में शैव एवं वैष्णवों के बीच से चिंगारी भी नहीं जाती थी । वहींपर पांडुरंग ने लिंग दर्शन कराया । इस लिंगपर जगद्गुरु श्री शंकराचार्यजी ने श्री पांडुरंग्ष्टम् स्तोत्र की रचना की । श्री विष्णुजी ने वामन अवतार के समय राजा बली को जो दर्शन कराया, वही श्री त्रिविक्रम के रूप में प्रसिद्ध हुआ । श्री त्रिविक्रम अपने मस्तकपर लिंग धारण करते हैं ।

ऐतिहासिक कल्याण नगर में श्री त्रिविक्रम का मंदिर हैं तथा इस मंदिर में बडी मात्रा में चतुर्दशी का उत्सव मनाया जाता है । यह मंदिर पेशवाकालीन है तथा पेशवाआें के अधिकारी श्रीमंत बळवंतराव मेहेंदळे १८वीं शताब्दी में गुजरात अभियान से आते समय इस मूर्ति को साथ ले आए थे । यह गंडकी पाषाण की मूर्ति है तथा उसके आसपास प्रभामंडल है । इस प्रभामंडल की दोनों बाजुआें में दशावतार अंकित किए गए हैं, साथ ही जय-विजय तथा राई-रखुमाई हैं । यह मूर्ति चतुर्भुज है तथा पद्म, चक्र और शंख धारण की हुई है, साथ ही नियम के अनुसार मस्तकपर शिवलिंग धारण किया है । यहां शिव-विष्णु का संगम होने से भक्तों को एक ही समय में सभी देवताआें के दर्शन होते हैं ।

– श्री. दिनेश देशमुख (न्यासी)

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