स्वभावदोष निर्मूलन और अहं निर्मूलन प्रक्रिया

(परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

‘साधको, यह लेख संग्रह करो । ऐसा करने से, स्वभावदोष निर्मूलन और अहं निर्मूलन प्रक्रिया करने के लिए सनातन के आश्रमों में जाने की आवश्यकता नहीं पडेगी । यह प्रक्रिया, घर रहकर भी की जा सकेगी और साधना में प्रगति शीघ्र होगी । मुझे जिज्ञासा थी कि रामनाथी आश्रम में साधक स्वभावदोष निर्मूलन और अहं निर्मूलन शीघ्र कैसे करते हैं ? श्रीमती सुप्रिया माथुर ने इस विषय में सरल लेख लिखकर, मेरी जिज्ञासा पूर्ण की । मैं यह लेख इतनी सरल भाषा में नहीं लिख सकता था । श्रीमती सुप्रिया माथुर का अभिनंदन !’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

श्रीमती सुप्रिया माथुर

१. सेवा के सूत्र

अ. जब हम अपने को श्रेष्ठ समझते हैं, तब सेवा के समय सुझाव मिलने पर हमारे मन में प्रतिक्रिया आती है और हम उसे नहीं स्वीकारते । यह हमारा सूक्ष्म अहं है, जो हमें पता नहीं चलता ।

आ. एक साधक ने एक प्रसंग बताया । एकबार उसे रसोईघर में भोग बनाने की सेवा मिली । तब, उसके मन में अहंकारयुक्त विचार आया कि ‘मुझमें श्रद्धाभाव अधिक है, इसलिए मुझे यह सेवा मिली है ।’
‘‘ऐसा सोचना, हमारे मन का खेल है । हम अपने विषय में झूठा मत बना लेते हैं । सेवा के प्रति हमारा दृष्टिकोण अनुचित होता है । प्रत्येक सेवा के माध्यम से ईश्‍वर हमें कुछ सिखाना चाहते हैं ।

इ. हम कभी-कभी सोचते हैं कि ‘मुझे छोटी सेवा मिली है ।’ ऐसा विचार नहीं करते कि यह सेवा देकर ईश्‍वर ने हम पर बडी कृपा की है । प्रत्येक सेवा विधिलिखित होती है । इसलिए मन से सेवा स्वीकारनी चाहिए । सेवा मिलने पर मन में यह भाव होना चाहिए कि ‘ईश्‍वर हमें सीखने के लिए ही सेवा देते हैं ।’

ई. सेवा मन से न स्वीकारने पर चूक होती है । इसीलिए, हम सेवा का दायित्व नहीं लेना चाहते । कभी-कभी सेवा का पूर्ण ज्ञान न होने से भी हम उसका दायित्व नहीं लेना चाहते । इसलिए, सेवा मिलने पर मन में भाव रखें कि ‘यह मेरे कल्याण के लिए है ।’ तदुपरांत सेवा की व्याप्ति समझकर करें ।

उ. किसी सेवा के विषय में कोई अच्छा विचार सूझे, तब उसे अपने तक न रखकर, अन्य साधकों को भी बताएं । बताते समय मन में कर्तापन का अहंकार नहीं आना चाहिए । उस समय, सेवा परिपूर्ण होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए, यह सोचने से अंतर्मुखता बढेगी ।

 

२. संघर्ष का महत्त्व

संघर्ष हमारा अच्छा मित्र है । मन के विरुद्ध करना ही संघर्ष है । इससे हमारा अहंकार टूटता है । इसलिए संघर्ष को शत्रु नहीं, मित्र समझना चाहिए ।

 

३. प्रशंसा से संतुष्ट न होकर अगले प्रयत्नों पर विचार करना चाहिए !

व्यष्टि ब्योरा देते समय कभी-कभी साधक बताते हैं कि अमुक संत से मिलने पर उन्होंने कहा, ‘मेरी साधना के प्रयत्न अच्छे हैं और भाव भी अच्छा है ।’ इसपर ब्योरा लेनेवाले सेवक ने कहा, ‘ऐसा सोचकर, हमें संतुष्ट नहीं होना चाहिए । संत, पहले की स्थिति से तुलना कर, साधक की वर्तमान स्थिति बताते हैं । इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हमें प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है । व्यष्टि ब्योरे में श्रीगुरु हमें ब्योरासेवक के माध्यम से हमारे स्वभावदोष और अहंकार का बोध कराते हैं ।

 

४. सीखने की लगन बढाना

अहं के कारण हम छोटी-छोटी बातों से मिलनेवाला आनंद नहीं ले पाते; उदा. आश्रम के भोजनकक्ष में विविध विभाग के साधकों की बनाई हुई कुछ कलात्मक वस्तुएं देखने के लिए रखी जाती हैं; पर, हमारे अहं के कारण हमें लगता है कि ‘इसमें विशेष क्या है !’ यह तो मैं जानता ही हूं । हम नहीं समझ पाते कि ‘ईश्‍वर हमारी सीखने की वृत्ति बढाकर, इन कलाकृतियों से आनंद लेना सिखा रहा है ।’ सीखने की मनोवृत्ति न्यून होने से हमें तनाव आता है । ‘मुझे यह पता है’ इस अहं के कारण हम सीखने का प्रयास नहीं करते ।

 

५. तनाव न लेना

एक साधक ने बताया कि मेरी पीठ में कष्ट है । (ब्योरा में) मन की विचार-प्रक्रिया के विषय में बताते समय उसे तनाव आ रहा था । संत ने कहा, ‘पीठ का कष्ट शरीर से संबंधित है । तनाव मानसिक है । हम जितना निराश होंगे, कष्ट उतना बढेगा ।’

 

६. अंतर्मुखता बढाना

अपने को सदैव अंतर्मुख रखने के लिए, ‘मुझे क्या करना चाहिए और मैं वह नहीं कर पा रहा हूं’ यह निरंतर सोचते रहना चाहिए ।’ मन का भ्रम दूर करने के लिए अंतर्मुख होना आवश्यक है । अंतर्मुख होने पर, कठिनाइयों के विषय में केवल चर्चा नहीं होती, मार्ग भी निकलता है । भावनाशीलता से अंतर्मुखता घटती है; इसलिए मानसिक आधार की आवश्यकता होती है । हमें लगना चाहिए कि हमारा आधार केवल ईश्‍वर हैं ।

 

७. अंतर्मुखता के लिए दैनंदिनी लिखने का महत्व

दैनंदिनी लिखना, अंतर्मुख होने की पहली सीढी है । दैनंदिनी, ‘हम कैसे हैं’, यह बतानेवाला दर्पण भी है । इसमें हमें अपने मन की विचार-प्रक्रिया दिखाई देती है । दैनंदिनी से हमें चिंतन में सहायता मिलती है; उदा. १० मिनिट की सेवा के लिए यदि २० मिनिट लगते हैं, तब हम सोच सकते हैं कि ‘उस समय हमारे मन में क्या चल रहा था ।’ दैनंदिनी से हम समय का सदुपयोग करना सीखते हैं । ‘मेरी साधना ठीक से हो रही है’ अथवा ‘मेरे समय का सदुपयोग हो रहा है’, यह भ्रम दैनंदिनी पढने सेे दूर होता है ।

 

८. बहिर्मुखता से बचें

कभी-कभी हम साधक की चूक बताने की पद्धति देखते हैं । वह हमारी बहिर्मुखता है । उस साधक का दोष देखकर, हम और चूकें करने लगते हैं । ऐसे समय, ‘मुझे अपनी चूक मान लेनी चाहिए,’ यह दृष्टिकोण मन को देना चाहिए ।

८ अ. साधक की बहिर्मुखता के स्तर

१. प्रथम स्तर : प्रारंभ में हम अपरिचित साधक से संभलकर बोलते हैं । उस समय मन में विचार रहता है कि ‘हमसे कोई चूक न हो जाए ।’

२. दूसरा स्तर : परिचय होने पर हम एक-दूसरे के स्वभावदोष और अहं समझने लगते हैं । उस समय खुलकर बात न करने पर, मन में पूर्वाग्रह रहता है ।

३. तीसरा स्तर : मन में पूर्वाग्रह होने पर, हम बार-बार उसे उसके स्वभावदोष परोक्षरूप से दिखाते हैं ।

४. चौथा स्तर : पश्‍चात, हम उस साधक की हंसी उडाकर, उसे दुःख पंहुचाते हैं । इससे बहिर्मुखता दोष बढता है ।

 

९. अपनी छवि बचाना

अपनी छवि बचाने और मनानुसार करने के कारण हम पूछ-पूछकर नहीं करते ।

 

१०. चिंतन का महत्त्व

‘हमारे चारों ओर स्वभावदोष और अहं का आवरण है’, इसका ज्ञान हमें होना चाहिए । चिंतन से ही उस आवरण को नष्ट किया जा सकता है । इसलिए, चिंतन करना आवश्यक है । प्रक्रिया आरंभ करने पर उसके विषय में चिंतन हो सकता है ।

 

११. चूकों के विषय में दृष्टिकोण

११ अ. चूक ज्ञात होना

चूक होते समय ईश्‍वर हमें उसका ज्ञान करते हैं । किंतु, अपने स्वभावदोष के कारण हम उस पर ध्यान नहीं देते । उदा. नामजप पूरा न होने पर भी उसपर ध्यान न देना, कार्यपद्धति टालना, समय पर न लिखना इत्यादि । यदि हम उसी समय सचेत रहकर अपने को सुधारने का प्रयत्न करेंगे, तो साधना की हानि नहीं होगी ।

११ आ. प्रशंसा की ओर अधिक ध्यान रहने से चूकों को अनदेखा करना

कभी-कभी हमें लगता है कि ‘हमारी चूकें अल्प हैं ।’ उस समय हमारा ध्यान अपनी प्रशंसा सुनने की ओर अधिक रहता है । ऐसे समय यदि हमें अपनी चूकों का ज्ञान हो जाए, तब हम ‘किसी की प्रशंसा सुनकर इतराएंगे नहीं और अपनी चूकें सुधारने के लिए उचित प्रयत्न करेंगे ।

११ इ. चूक मानना

१. जबतक हम अपनी चूक नहीं मानते, तबतक हमारे पाप नहीं धुलते ।
२. अपनी प्रत्येक चूक से हमें सीखना चाहिए, उसपर चिंतन करना चाहिए । ऐसा कर, हम आगे होनेवाली दस चूकों को रोक पाएंगे ।
३. एक साधिका को लगता था कि ‘कोई मेरी चूक बताए, इसके पहले ही मैं अपनी चूक बता देती हूं ।’ यह अपनी छवि चमकाने का प्रयत्न है । जब दूसरे साधक हमारी चूक बताते हैं, तब अधिक मात्रा में अहं-निर्मूलन होता है । इसलिए हमें ही अपनी चूकें दूसरों से पूछनी चाहिए ।

११ ई. भावजागृति के प्रयत्न अधिक हो रहे हों और स्वभावदोष-
अहं निर्मूलन प्रक्रिया की उपेक्षा हो रही हो, तब प्रक्रिया को महत्त्व देकर आनंद प्राप्त करें

एक साधिका के भावजागृति के प्रयत्न अच्छे थे; किंतु स्वभावदोष-अहं का निरीक्षण करने में वह पीछे थी । भावजागृति के लिए प्रयत्न करना मन को अच्छा लगता है; किंतु स्वभावदोष और अहं का निरीक्षण करना, उसके निर्मूलन हेतु स्वयंसूचना देना और लिखना, मन को नहीं भाता । इसलिए हम इस पर ध्यान नहीं देते । इसलिए, भगवान से प्रार्थना कर यह प्रक्रिया स्वीकारनी चाहिए और शरणागतभाव बढाकर इसका आनंद लेना चाहिए ।

११ उ. कठिनाई अथवा प्रसंग में अटकना

कठिनाई आनेपर उसी के विषय में अधिक समय तक सोचते रहने से मन अशांत होता है और समस्या अधिक विकट बनती है । समस्या आनेपर मन से स्थिर रहकर सोचिए कि ‘इसे हल करना मेरी साधना है । इस कठिन समय में ईश्‍वर मेरी सहायता अवश्य करेंगे ।’ ऐसा विचार होने पर, हम उपाय ढूंढने के लिए अन्य साधिका से सहायता लेते हैं । कर्तापन के कारण हम दूसरों से सहायता नहीं मांगते, स्वयं ही प्रयत्न कर समस्या को उलझा देते हैं । जब हमारे मन के अनुसार नहीं होता, तब हम उस प्रसंग में अटक जाते हैं । अहंकार न बढे, इसके लिए अन्यों से ‘पूछना’ आवश्यक है । प्रसंग अथवा घटना मन के विरुद्ध होने पर, हम उसमें अटक जाते हैं और हमारा उत्साह घट जाता है । यदि प्रसंग को सीखने की दृष्टि से देखा जाएगा, तब हम उसमें नहीं अटकेंगे ।

११ ऊ. विचारों की सकारात्मकता

‘विचार करना’ मन का कार्य है । इन विचारों पर ध्यान न देकर, नामजप करना चाहिए । सदैव सकारात्मक विचार करना चाहिए । अनेक नकारात्मक विचारों की तुलना में एक सकारात्मक विचार अधिक शक्तिशाली होता है । अपने मत पर अडे रहने पर, हम नकारात्मक विचारों से बाहर नहीं निकल सकते । ऐसे समय हम दूसरों की बात नहीं मानते । नकारात्मक विचारों के कारण अनिष्ट शक्तियां हमारी बुद्धि पर आवरण डाल देती हैं । इस आवरण के कारण, जब कोई साधक सहायता के लिए हमें कुछ बताता है, तब उसकी बात हमारी समझ में नहीं आती । सदैव सीखते रहने से, दूसरों की बात मानने से और पूछकर सेवा करने से यह कष्ट नहीं होता, आवरण नहीं आता तथा अल्पसंतुष्टता नहीं आती । ईश्‍वर की शरण में जानेपर ही यह बात समझ में आती ।

११ ए. अनुचित दृष्टिकोण छोडना महत्त्वपूर्ण

१. हमारा ‘साधना-संबंधी दृष्टिकोण उचित तो है न’, इस विषय में दूसरों से पुष्टि कर लेनी चाहिए । उसी प्रकार, ‘क्या हमारे विचारों की दिशा उचित है’, यह भी पूछ लेना चाहिए । ऐसा न करने पर, हमारे दोष बढ सकते हैं । सकारात्मक सोच और उचित दृष्टिकोण से मन स्वच्छ होता है ।

२. एक साधिका ने आत्मीयता बढाने के उद्देश्य से अपना सारणी लिखने का समय अन्य साधकों से बोलने में लगा दिया । हमें ध्यान रखना चाहिए कि आत्मीयता बढाते समय हमारी व्यष्टि साधना की हानि न हो । आत्मीयता बढाते समय यह भी विचार करना चाहिए कि ‘हम भावना में तो नहीं बह रहे हैं ।’ अपनी चूकें प्रामाणिकता से और सहयोगी साधकों की चूकें खुले मन से बताना ही आत्मीयता बढाना है । ऐसा सोचने से अंतर्मुखता बढती है ।

११ ऐ. अन्य सूत्र

१. अहंनिर्मूलन प्रक्रिया का ब्योरा देते समय, अहंकारयुक्त विचारों के प्रति हममें अपराधी भाव न होना, धोकादायक होता है । ‘मैं मन का छोटा विचार भी बता सकता हूं’, ऐसा सोचना कर्तापन है, इससे बचना चाहिए ।

२. ‘दिखावा’ करना, अहं का एक प्रकार होने के कारण, इससे सेवा उत्तम नहीं होती है । ‘मैंने ब्योरे में अपने अहं के विषय में खुले मन से बताया है’, ऐसा धोकादायक अहं होने की आशंका रहती है । इससे अहंनिर्मूलन प्रक्रिया की दिशा भटक सकती है ।

३. हममें जितना अहं होगा, उतनी हमारी अधोगति होगी । अहं का विचार सब को बताने से प्रगति होती है ।

४. मन शुद्ध रहने से आवरण न्यून होता है और अनिष्ट शक्ति के आक्रमण भी अल्प होते हैं ।

५. यदि हम भावनावश किसी की सहायता करते हैं, तब ‘समय आने पर हम भी सोचते हैं कि उसे मेरी सहायता करनी चाहिए ।’ भावना में तत्त्वनिष्ठा नहीं होती । इसलिए भावनाशील होकर कार्य करने से भाववृद्धि नहीं होती ।

६. छूट लेना, अर्थात परिस्थिति से डरकर भागना है ।

७. ‘ब्योरा देने का विशेष महत्त्व है । इसलिए कि ब्योरा न देने पर सेवा अपने मन के अनुसार होने लगती है ।’

– श्रीमती सुप्रिया माथुर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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