अनेक विकारों पर औषधि : पान का बीडा

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भारतीय संस्कृति में अनमोल ‘पान’, अर्थात खाने का ‘पान’ अर्थात बीडा । आयुर्वेदानुसार एवं व्यवहारानुसार इसके गुण-दोष हम देखेंगे ।

 

१. बीडा के पान का भारतीय संस्कृति में महत्त्व

‘सर्व देवकार्याें में बीडे के पान का अत्यधिक महत्त्व है । विवाह, उपनयन, वास्तुशांति हो अथवा सत्यनारायण की अथवा अन्य कोई भी पूजा हो, पान एवं सुपारी, उसके अविभाज्य घटक हैं ! भोजन की पूर्णता पान खाने से ही होती है । अन्यथा ‘भोजन पूर्ण हो गया’, ऐसा नहीं लगता । पहले घर में आए अतिथियों का स्वागत करने की भारतीय पद्धति अर्थात, पान की छोटी थाली आगे करना । अब उसका स्थान चाय ने ले लिया है । पान खाना, इसका कभी व्यसन नहीं लगता; परंतु चाय का व्यसन लगता है । उससे पहले अतिथियां को गुड के साथ पानी एवं उसके पश्चात पान की छोटी थाली सामने कर दी जाती थी । इसमें तंबाखू नहीं होती थी, अपितु चूना, कत्था, सूखी अथवा गीली सुपारी, लौंग, इलायची, सौंफ एवं नारियल का टुकडा अथवा गुलकंद होता था ! आयुर्वेदानुसार सोकर उठनेपर, स्नान के पश्चात, पूजा के पश्चात, भोजन के पश्चात, ऐसे दिन भर में १० से १२ बार पान चबाकर-चबाकर खाने के लिए बताया है । चलचित्र (सिनेमा) में पान की महिमा बतानेवाले अनेक गाने हम आज भी सुनते हैं ! ‘विडा घ्या हो नारायणा’ (मराठी भाषा में), अर्थात ‘‘पान बीडा लीजिए नारायण’’ ऐसी एक आरती भी है ।

 

२. बीडा बनाने की एवं खाने की आयुर्वेदानुसार आदर्श पद्धति

बीडा बनाने से पहले पान की डंठल एवं सिरे का भाग तोडकर फेंक दें । पान की पीछे की नसें हाथ से निकाल दें । तदुपरांत चने की दाल जितना चूना पान पर लगाएं । फिर उस पर सुपारी, इलायची, सौंफ आदि रखकर उसकी विशेष पद्धति से घडी डालकर पान बंद करें । घडी खुल न जाए, इसलिए लौंग से बंद कर दें । हो गया पान तैयार । पान चबाने पर पहली और दूसरी बार आनेवाला रस न निगलें । प्रथम आनेवाले रस के निगलने पर, वह विषसामन है । दूसरी बार आनेवाला रस पचने में भारी होने से प्रमेह (शरिर की मूत्रप्रवृत्ति बढानेवाला रोग) निर्माण करनेवाला होता है । तीसरे बार अथवा उसके आगे निकलनेवाला रस अमृततुल्य होने से उसे निगलें । जितनी बार संभव हो, उतनी बार पान चबाएं और बाद में उसे निगल लें ।

 

३. अनेक विकारों पर औषधि है यह पान !

दांतों में वेदना, हिलना, कीडा लगना, मसूडों से रक्त आना, बार-बार मुंह आना (मुंह में छाले होना), गले की गांठ में सूजन, आवाज बैठना, कानों में वेदना, कान से पानी आना, बार-बार सर्दी होना, नाक की हड्डी बढना, दृष्टिदोष जैसी अनेक व्याधियों में चिकित्सा के रूप में एवं ये रोग न हों, इसलिए पान खाएं, ऐसा आयुर्वेद में बताया है ।

 

४. पान खाने के उपरांत थूक निगलने का महत्त्व

एक बात ध्यान में रखें कि पान खाने पर पहली २ पिचकारियों के उपरांत थूकें नहीं । एक थूक की पिचकारी से मुंह से कितनी लार बाहर फेंकी जाएगी ? तो कम से कम ५ मि.लि. लार बाहर फेंकी जाती है । एक बार पान खाने पर ३ बार पिचकारी फेंकी जाती है, अर्थात १५ मि.लि. लार बाहर फेंकी जाती है । इसप्रकार १० पान खाने पर, १५० मि.लि. लार बाहर फेंकी जाएगी । लार ‘अल्कली’ (आम्ल की विरोधी) गुणधर्म एवं उत्तम जंतुनाशक होती है । भोजन के उपरांत पेट में बढा हुआ अतिरिक्त आम्ल इस लार से घटाया जाता है । यह १५० मि.लि. लार पेट में जाने पर, एसिडिटी, अपचन, गैस, अजीर्ण जैसे कष्ट अपनेआप दूर हो जाएंगे ।

 

५. पान के विविध घटकों के औषधीय गुणधर्म

५ अ. कोलेस्टेरॉल, कफ एवं कृमि (पेट के जंतु) का नाश करनेवाला हरा पान

हरा पान, यह हृदयरोग पर अप्रतिम औषधि है । रक्त में विद्यमान कफ अर्थात आज का कोलेस्टेरॉल घटाना, गले में से चिपका कफ बाहर निकालना, यह काम पान स्वयं करता है । अन्नपचन होने के लिए जो जो तंतुमय एवं रेषेदार पदार्थ आवश्यक होते हैं, वे इस पान से मिलते हैं । पान का तीखापन कृमियों का नाश करता है ।

५ आ. प्राकृतिक कैल्शियम का भंडार है कृमिनाशक चूना

पान को लगाया जानेवाला चूना एक अप्रतिम औषधि है । चूने के कारण कभी भी कृमि नहीं होते । इसका अर्थ है वह जंतुओं की वृद्धि रोकता है । इस गुणधर्म के कारण ही पान खाने से दांतों में कीडे नहीं लगते और जंतु पेट में ही मर जाते हैं । पेट में होनेवाले जंतु बहुत हठी होते हैं । वे आज की अधिकांश औषधियों को प्रतिसाद नहीं देते; परंतु इन छोटे-मोटे कृमियों के लिए चूना, अप्रतिम औषधि है । चूना, यह प्राकृतिक कैल्शियम है । इसलिए रक्त के कैल्शियम के बढने में अपनेआप सहायता होती है । प्राकृतिक होने से वह सहज पचता है और जो अतिरिक्त है वह बाहर निकल जाता है । इसलिए कोई भी अतिरिक्त दुष्परिणाम नहीं होता । आज डॉक्टरजी के समादेशानुसार (सलाहानुसार) मिलनेवाली कृत्रिम रीति से बनाई कैल्शियम की औषधियां मूत्रपिंड के (किडनी के) पित्ताशय की पथरी बढाती हैं । महंगी कैल्शियम की दवाईयों की अपेक्षा एक अथवा दो पैसे कीमत का चूना अपनी आर्थिक ‘बजट’ भी संभालता है । अर्थात, डॉक्टर के एवं औषधि कंपनियों की बहुत हानि होने से उनके पान का विरोध करना सहज ही है । चूना उत्तम अल्कली होने से लार समान ही पित्त घटाने में सहायता करता है । ऐसा यह बहुगुणी चुना प्रत्येक के घर में होना ही चाहिए ! कहीं भी मोच आई, लचक आ गई, मुक्का मार चोट लगी, तब ऊपर से चूना लगाने समान अन्य दूसरी औषधि नहीं । खाने का चूना बाहर से लगाने पर कोई अपाय नहीं होते ।

५ इ. रक्तवर्धक आणि रक्तस्तंभक कत्था

कत्था यह रक्तवर्धक एवं रक्तस्तंभक (रक्तस्राव रोकनेवाला) है । जिन्हें शरीर से किसी भी मार्ग से होनेवाला रक्तस्राव होने की आदत-सी है, उनके लिए कत्था अमृत ही है । कत्था पान में लगाकर खाने से दांतों से, मसूडों से, गले से अथवा नाक से रक्त आना तुरंत ही रुक जाता है ।

५ ई. कर्करोग का (कैन्सर का) प्रतिरोध करनेवाली एवं शुक्रधातु बढानेवाली सुपारी

सुपारी शुक्रधातु बढानेवाली है । कच्ची एवं भुनी हुई सुपारी से कर्करोग नहीं होता । बाजार में मिलनेवाली सुगंधित मीठी सुपारी गडबड करनेवाली है; कारण उसमें सैक्रिन मिलाया हुआ होता है, जो कर्करोग बढानेवाला है ।

 

६. बीडा खाना, एक आरोग्यदायी आदत

इतने गुण यदि बीडे में हों, तो कोई कुछ भी कहे, निश्चित ही बीडा खाना आरोग्यदायी आदत है । हां, केवल एक साईड इफेक्ट दिखाई देता है । वह है पान खाने पर दांत, होंठ एवं मुंह रंग जाता है ! अब ‘लीपस्टिक’ लगाकर मुंह रंगने की तुलना में बीडा खाकर रंगने में क्या बुराई है ? अब यह तो व्यक्तिगत प्रश्न है !

– वैद्य सुविनय दामले, कुडाळ, सिंधुदुर्ग.

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