अत्यंत ही अल्प उपयोगी विदेशी सेब की अपेक्षा भारतीय फल खाएं !

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वैद्य सुविनय दामले

 

१. सेब भारत की मिट्टी का नहीं !

भारत में केवल हिमाचलप्रदेश एवं कश्मीर, इन दो राज्यों में ही होनेवाला सेब, यह फल आज सर्व राज्यों में बारहों महीने उपलब्ध है । उसका वृक्ष कैसा होता है ? उसके पत्ते कैसे दिखाई देते हैं ? उसका बौर कैसा होता है ? इस विषय में हमें कोई जानकारी नहीं; इसलिए कि वह मूलत: भारत का फल है ही नहीं । अंग्रेज अपने साथ उसे भारत में लाए और इन दो राज्यों के अत्यंत ठंडा वातावरण इस फल के लिए पोषक होने से, यह वृक्ष यहां रह गया, जैसे कि चाय !

 

२. स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत अल्प उपयोगी,
परंतु केवल व्यापारी गुणधर्म के कारण जगभर प्रसिद्ध फल !

अन्य फलों समान ही सेब कब कच्चा है और कब पका, यह ध्यान में ही नहीं आता; कारण उसका रंग, रूप, गंध और स्वाद भी नहीं बदलता । शेष फल पकने के उपरांत मुलायम हो जाते हैं, उदा. कच्चे आम के पकने पर उसका रंग बदल जाता है । मुलायम फल पकने के पश्चात ठोस हो जाते हैं, उदा. मुलायम कच्चा नारियल पकने के पश्चात कठोर हो जाता है । केवल अधिक काल टिकना, सेब के इस व्यापारी गुणधर्म के कारण ही वह वैश्विक स्तर का फल हो गया है । वास्तव में उस फल में कोई भी विशेष औषधीय गुणधर्म नहीं हैं । भारतीय फलों में अनेक औषधीय गुणधर्म हैं ।

 

३. ‘प्रतिदिन एक सेब, डॉक्टर को दूर रखे’, यह कहावत निरर्थक है !

अत्यंत शीत प्रदेशों में सेब के अतिरिक्त अन्य बडा कोई फल होता ही नहीं । लिची, स्ट्रॉबेरी, मलबेरी, चेरी जैसे अन्य फल जो वहां होते हैं, वे एकदम ही लेचीपेची, नाजुक और न टिकनेवाले होते हैं । उन सभी में सेब थोडा बडा और टिकाऊ; इसलिए उस पर शोध हुआ और यह कहावत प्रचलित हुई, ‘एन एपल अ डे, कीप्स द डॉक्टर अवे’ अर्थात प्रतिदिन एक सेब डॉक्टर को दूर रखता है । यह कहावत वहां लागू नहीं होती, जहां यह फल होता है । कारण प्रतिदिन सेब खाया जाता है, ऐसे शीत प्रदेशों में विकारों और रोगियों की संख्या भारत की तुलना में अधिक है । फलों के गुणों पर आधारित यदि कोई कहावत भारत के लिए बनानी हो, तो ऐसी होनी चाहिए ‘एन आवला अ डे, कीप्स द डॉक्टर अवे’ अर्थात प्रतिदिन एक आवला डॉक्टर को दूर रखता है !

 

४. भारतीय फलों की तुलना में सेब अनउपयुक्त !

आयुर्वेद के अनुसार आम यदि फलों का राजा है, तो अनार फलों का महाराजा ! आज अंग्रेजों की परंपरा निभानेवाले वैद्यों के अनुसार हमारा आवला और अनार बेचारे पीछे रह गए । उनका कोई गॉड फादर नहीं ! फिर भी, इससे उनके गुणों में कोई अंतर नहीं पडता । उनके गुण कम नहीं होंगे । भारत में सर्वत्र मिलनेवाले किसी भी फल की तुलना में सेब फेंकने योग्य ही है ।

 

५. शीत प्रदेशों को छोडकर अन्यत्र कहीं भी
सेब खाना, अर्थात विविध विकारों को आमंत्रण देना !

सेब के प्रशंसक यह ध्यान में रखें कि जहां जिसकी पैदावार हो, उस फल का सेवन उस क्षेत्र में रहनेवालों के लिए उत्तम होता है, यह आयुर्वेद का एक सूत्र है । जहां सेब का पेड होता है, वहां बारहों महीने अत्यंत ठंडा वातावरण होता है । उन पेडों की जडों में बर्फ होती है । इससे स्वयं में वात बढानेवाला गुणधर्म लेकर ही यह फल जन्म लेता है ! इसलिए सेब खानेवाले व्यक्तियों एवं बालकों को बारंबार सर्दी होना, नाक बहना, कान से पानी आना, गले की गांठ बढना, मूत्र के विकार, मधुमेह जैसे रोग प्रकृति अनुसार अल्प-अधिक मात्रा में होते ही रहेंगे । उनके आहार से केवल सेब यदि बंद कर दिया जाए, तो ये विकार बहुतांश में न्यून हो जाएंगे, ऐसा अनेक वैद्यों का अनुभव है ।

 

६. मोम की परत देकर कृत्रिमता से टिकाऊ बनाया गया सेब पेट के विकारों को आमंत्रण देनेवाला

सेब अधिक काल टिकने के लिए उस पर कुछ रासायनिक प्रक्रिया की जाती है । उस पर पतले मोम की परत दी जाती है । इसलिए वे सूखे हुए दिखाई नहीं देते । मोम के कारण वे चिकने दिखाई देते हैं । मोम की परत के कारण बाह्य वातावरण का फल के छिलके से संपर्क नहीं आता । उसके पानी का अंश भी अधिक दिन रहता है और वे टिकाऊ बनते हैं । परंतु यही टिकाऊपणा शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है ! पतली मोम की परत और अन्य फफूंद आंखों को नहीं दिखाई देती । इसलिए ऐसे सेब मलावरोध, मूत्र विकार एवं अंतडियों के विकारों के कारणीभूत होते हैं । मोम की परत पहचानने के लिए सेब को गरम पानी में डालने पर, मोम स्पष्टरूप से पानी में तैरता दिखाई देता है अथवा खरीदते समय धीमे से नखों से कुरेदने पर मोम नखों को लगता है ।

 

७. पश्चिमी सेब से भी अधिक सरस भारतीय पर्याय

भारत में प्रत्येक ऋतु के अनुसार निर्माण होनेवाले करौंदे एवं जामुन समान फल हैं । कोकण में कटहल, आम, काजू; तो घाटी वाले प्रदेशों में अंगूर और चीकू हैं । इसके साथ ही बारह माह पकनेवाले केले हैं, अनानास, पपीता जैसे अनेक सस्ते फलों का सक्षम पर्याय सेब के लिए उपलब्ध है, तब भी बाहर से आयात किए जानेवाले पाश्चात्यों के मंहगे फलों के पीछे लोग और डॉक्टर भी क्यों लगते हैं, यही ध्यान में नहीं आता !

– वैद्य सुविनय दामले, कुडाळ, सिंधुदुर्ग.

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