योगमाया द्वारा श्रीविष्णु से नरकासुर का वध करवानेवाली श्री कामाख्यादेवी

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योगमाया द्वारा श्रीविष्णु से नरकासुर का वध
करवानेवाली श्री कामाख्यादेवी एवं सर्वोच्च तंत्रपीठ : श्री कामाख्या मंदिर !

अनुक्रमणिका

१. श्री कामाख्यादेवी मंदिर का इतिहास एवं महत्त्व !

मंदिर के परिसर में श्री कामाख्यादेवी की प्रतिकात्मक मूर्ति

असम की राजधानी गुवाहाटी है । इसका प्राचीन नाम प्रागज्योतिषपुर है । द्वापरयुग में यही नगरी ‘नरकासुर’ राजा की राजधानी थी । इस नगरी में ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी, इसलिए इस नगर का नाम ‘प्रागज्योतिषपुर’ पड गया । गुवाहाटी शहर से १० किलोमीटर दूर नीलाचल पर्वत पर श्री कामाख्यादेवी का मंदिर है । पृथ्वी पर जहां-जहां सती के अवयव गिरे थे, उस स्थान पर एक-एक शक्तिपीठ निर्माण हो गया । जिस स्थान पर देवी की योनी गिरी, वह स्थान ‘कामाख्या’ है । संपूर्ण पृथ्वी पर कामाख्या, यह स्थान ‘सर्वोच्च तंत्रपीठ’ के रूप में पहचाना जाता है । यह ५१ शक्तिपीठों में से एक महत्त्वपूर्ण पीठ है । मंदिर में जाने पर लगभग ३० फुट नीचे उतरना पडता है । वहां योनीसमान आकार का एक योनीकुंड (जलकुंड) है । इस नीलाचल पर्वत पर श्री कामाख्यादेवी के मंदिर के निकट दशमहाविद्याओं के भी मंदिर हैं । मंदिर के निकट ही श्री कामदेव मंदिर है । तंत्र-मंत्र उपासकों के लिए यह महत्त्वपूर्ण स्थान है । ‘तंत्र उपासना करने पर शीघ्र ही सिद्धी प्राप्त होती है’, ऐसी इस स्थान की महिमा है । ६ मुख एवं १२ हाथवाली देवी, ऐसा देवी का रूप प्रचलित है ।

 

२. पौराणिक कथा

२ अ. श्री कामाख्यादेवी की माया से श्रीविष्णु द्वारा नरकासुर का वध

‘राजराजेश्वरी कामाख्या रहस्य’ एवं ‘दशमहाविद्या’, इस ग्रंथ के रचनाकार एवं श्री कामाख्यादेवी के भक्त, ज्योतिषी एवं वास्तुतज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा ने इस स्थान के संदर्भ में पौराणिक कथा आगे दिए अनुसार बताई ।

नरकासुर ने एक दिन श्री कामाख्यादेवी को पत्नी के रूप में पाने की हठ पकड ली । देवी ने उससे कहा, ‘‘तू यदि एक रात में नील पर्वत के चारों ओर पत्थर के ४ रास्ते एवं कामाख्या मंदिर के निकट एक विश्रामगृह का निर्माण कर दे, तो मैं तेरी पत्नी बनूंगी । यदि तू ऐसा नहीं कर सका, तो तेरी मृत्यु निश्चित है ।

गर्व से उन्मत नरकासुर ने चारों रास्ते बना दिए और विश्रामगृह का काम पूर्ण करते समय ही महामाया के मायावी कुक्कुट (मुर्गे ने) सूचित किया कि रात समाप्त हो गई है । इससे नरकासुर क्रोधित हो गया । उसने मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे तट पर उसका वध किया । यह स्थान आज भी ‘कुक्टाचकी’ नाम से प्रसिद्ध है । तदुपरांत देवी भगवती की माया से भगवान श्रीविष्णु ने नरकासुर का वध किया । उसकी मृत्यु के उपरांत उसका लडका भगदत्त, कामरूप का राजा बना । उसका वंश नष्ट होने के पश्चात कामरूप राज्य विविध राज्यों में विभाजित हो गया और सामंत राजा कामरूप पर राज्य करने लगा । नरकासुर के नीच कामों के कारण एवं एक विशिष्ट मुनि के शाप के कारण देवी अप्रकट हो गई और कामाख्या मंदिर का लय हो गया ।

आठवीं शताब्दी में तत्कालीन राजाओं ने पुन: देवी के मंदिर का निर्माण किया । तदुपरांत १७ वीं शताब्दी तक, अनेक बार मंदिरों पर आक्रमण हुए और वे पुन: बनाए गए । वर्तमान में जो मंदिर है, वह अहोम राजा के काल में वर्ष १५६५ में निर्माण किया गया है ।

२ आ. कामदेव को जिस स्थान पर जीवनदान मिला, वह नीलांचल पर्वत !

आदिशक्ति महाभैरवी श्री कामाख्यादेवी के दर्शन के पूर्व गुवाहाटी के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्यभाग के टापू पर स्थित ‘महाभैरव उमानंद’का दर्शन लेना आवश्यक है । यह एक प्राकृतिक शैलद्वीप है । इस टापू को ‘मध्यांचल पर्वत’ के नाम से भी जाना जाता है; यहीं पर समाधिस्त सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर जागृत किया था । इसलिए सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था । तदुपरांत भगवती के महातीर्थ (योनीमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन: जीवदान मिला; इसलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से पहचाना जाता है ।

 

३. श्री कामाख्या मंदिर में होनेवाले उत्सव एवं विशेष पूजा

३ अ. श्री कामाख्यादेवी के मंदिर में वर्षभर श्रद्धालुओं की भीड होती है; परंतु दुर्गाउत्सव, पोहान बिया, दुर्गादेऊल, वसंतपूजा, मदानदेऊल, अम्बुवा की एवं मनासा पूजा आदि उत्सव यहां विशेषरूप से मनाए जाते हैं ।

३ आ. मनोकामना पूर्ण करने के लिए भक्तों द्वारा यहां कन्यापूजन एवं भंडारा किया जाता है ।

३ इ. श्री काली एवं श्री त्रिपुरसुंदरी देवी के उपरांत श्री कामाख्यादेवी तांत्रिकों की सबसे महत्त्वपूर्ण देवी है । श्री कामाख्यादेवी का पूजन भगवान शिव की नववधु के रूप में किया जाता है ।

३ ई. श्री कामाख्या मंदिर ३ भागों में विभाजित है । प्रथम भाग सबसे बडा है । इसमें निर्धारित लोगों को ही प्रवेश मिलता है । दूसरे भाग में देवी के दर्शन होते हैं, जहां एक पत्थर से सतत पानी रिसता रहता है । ऐसा कहते हैं कि महीने में ३ दिन देवी रजस्वला होती है । ये ३ दिन मंदिर का द्वार बंद होता है । तदुपरांत बाजे-गाजे के साथ मंदिर का द्वार खोला जाता है ।

 

४. अम्बुवाची पर्व

४ अ. अम्बुवाची पर्व एक वरदान

विश्व के सभी तांत्रिक, मांत्रिक एवं सिद्धपुरुषों के लिए वर्ष में एक बार आनेवाला अम्बुवाची पर्व एक वरदान है । यह अम्बुवाची पर्व देवी का (सती का) रजस्वला पर्व होता है । पुराण के शास्त्रों के अनुसार कलियुग में प्रत्येक वर्ष की जून (आषाढ) मास में तिथिनुसार मनाया जाता है ।

४ आ. अम्बुवाची पर्व के काल में गर्भगृह में जलस्राव होेना

पौराणिक सत्य है कि अम्बुवाची पर्व के काल में श्री देवी रजस्वला होती है ओैर देवी के गर्भगृह में महामुद्रा से (योनी-तीर्थ से) सतत ३ दिन जलप्रवाह से रक्त प्रवाहित होता है । कलियुग का यह अद्भुत आश्चर्य है कि यह अपनेआप होता है ।

इस संदर्भ में डॉ. दिवाकर शर्मा ने जानकारी देते हुए कहा कि अम्बुवाची योगपर्व के समय देवी के गर्भगृह के द्वार स्वयं बंद हो जाते हैं और देवी के दर्शन नहीं होते । इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना करने के लिए सभी प्रकार की सिद्धियां एवं मंत्रों का पुरश्चरण करने के लिए जगभर से उच्च कोटि के तांत्रिक-मांत्रिक यहां भारी संख्या में आते हैं । ३ दिनों के रजस्वला पर्व के उपरांत श्री कामाख्यादेवी की विशेष पूजा एवं आराधना की जाती है ।’ (संदर्भ : जालस्थल)

– श्री. विनायक शानभाग, चेन्नई, तमिळनाडु. (२०.११.२०१९)

 

सप्तर्षियों की आज्ञा से
श्रीसत्‌शक्‍ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ एवं श्रीचित्‌शक्‍ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ
ने ‘कामाख्या’ जाकर लिए श्री कामाख्यादेवी के दर्शन !

मंदिर के परिसर में श्री गणेशमूर्ति की दीप से आरती करते हुए श्रीसत्‌शक्‍ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ एवं श्रीचित्‌शक्‍ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

अ. सद्गुरुद्वयी द्वारा कामाख्यादेवी के दर्शन एवं महर्षि के
बताए अनुसार देवी को सनातन का कुंकू अर्पण कर प्रसादरूप में पुन: लेना

१५.११.२०१९ को पू. डॉ. ॐ उलगनाथन्जी बोले, ‘दोनों सद्गुरु जब कामाख्यादेवी के दर्शन के लिए जाएंगी, तब वे सनातन का कुंकू लेकर जाएं और उसे देवी को अर्पण करें । तदुपरांत प्रसाद के रूप में वह कुंकू पुन: लें । दोनों सद्गुरू वह कुंकू प्रसाद अपने साथ रखें और प्रतिदिन उसका उपयोग करें । १६.११.२०१९ को सवेरे सद्गुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ एवं सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ कामाख्यादेवी के दर्शन के लिए गए । महर्षि के बताए अनुसार मंदिर में जाने पर उन्होंने देवी को सनातन का कुंकू अर्पण किया और प्रसाद के रूप में वापस ले लिया । तदुपरांत सद्गुरुद्वयी ने मंदिर की प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा के मार्ग की भीत (दीवार) पर ‘योनी के आकार की देवी की मूर्ति’ है । मंदिर में आनेवाले श्रद्धालु देवी को प्रार्थना अवश्य करते हैं ।

आ. कामाख्यादेवी के परिसर के ‘तंत्र गणपति’के
दर्शन लेने पर सद्गुरुद्वयी के मस्तक पर श्रद्धालुओं द्वारा
मूर्ति को चिपकाया गया सिक्का गिरना और उस द्वारा गणपति का आशीर्वाद देना

मंदिर की भीत पर ‘तंत्र गणपति’ नामक गणपति है । कामाख्यादेवी के दर्शन के लिए जाते समय श्रद्धालु जलकुंड के निकट स्थित गणपति के दर्शन लेते हैं और देवी के दर्शन होने पर इस तंत्र गणपति के दर्शन लेते हैं । इस तंत्र गणपति को श्रद्धालु सिक्के चिपकाते हैं । कामाख्यादेवी के दर्शन होने पर सद्गुरुद्वयी ‘तंत्र गणपति’के दर्शन करने गए और उन्होंने मूर्ति के चरणों पर मस्तक रखा । तब उनके मस्तक पर सिक्का गिरा । ‘उनके मस्तक के मध्यभाग पर सिक्का गिरना’, यह ईश्वरीय नियोजन ही था । ऐसी मान्यता है कि इस गणपति के दर्शन लेने के उपरांत ही कामाख्यादेवी के दर्शन का पूरा फल मिलता है । सद्गुरुद्वयी के मस्तक पर सिक्का गिरना अर्थात गणपति द्वारा लक्ष्मी के रूप में सनातन के कार्य को संपन्नता एवं समृद्धता का आशीर्वाद दिया ।’

– श्री. विनायक शानभाग, चेन्नई, तमिळनाडु. (२०.११.२०१९)

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