आनंदी जीवन के लिए आयुर्वेद समझ लें !

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जागतिक आरोग्य संगठन की भी आरोग्यविषयी व्याख्या केवल ‘रोग न होना अर्थात आरोग्य’ ऐसी न होकर, अपितु उसमें दैवीय उपायों का समावेश है । इसमें मंत्रोपचार भी आता है । कुछ असाध्य रोग तीव्र प्रारब्ध के कारण होते हैं । व्यक्ति को असाध्य रोग होना, यह उसके गत कुछ जन्मों के पापकर्म का फल भी होता है । अध्यात्मशास्त्र यह भी बताता है कि किस पापकर्म के कारण कौनसा रोग होता है । ‘करनी’ अथवा ‘नजर लगना’ आदि के कारण भी कुछ रोग हो जाते हैं । उस पर उतारा देना अथवा दृष्टि उतारने जैसे उपाय करने पडते हैं ।

एक ही रोग हो, तब भी रोगी की आयु, बल, बढे हुए दोष, ऋतु, प्रकृति इत्यादि अनेक बातों का विचार कर, उपचार करना पडता है । इसलिए आयुर्वेद ने ‘युक्ति’ को भी एक प्रमाण माना है ।

१. आयुर्वेद का अंतिम उद्देश्य : भवरोग से मुक्ति !

आयुर्वेद केवल रोग से ही नहीं, अपितु भवरोग से भी मनुष्य को मुक्ति देने के लिए है । शरीरस्वास्थ्य टिकाए रख, साधना करते हुए ईश्वरप्राप्ति करना, यही आयुर्वेद का अंतिम उद्देश्य है । इससे ऋतुचर्या एवं दिनचर्या आयुर्वेद के अनुसार आदर्श रखने पर धर्माचरण एवं साधना होती है और उस माध्यम से मनुष्य सात्त्विक बनते जाता है और उसे सहजसुलभ ईश्वरप्राप्ति होती है ।

परात्पर गुरु डॉ. आठवले

भावी हिन्दू राष्ट्र में आयुर्वेद ही मुख्य उपचारपद्धति होगी ! – (परात्पर गुरु) डॉ. जयंत बाळाजी आठवले

 

२. शरीर में रोग क्यों एवं कैसे निर्माण होते हैं ?

आयुर्वेद में धातु (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्र) एवं अवयव की कार्यपद्धति वात, पित्त एवं कफ की भाषा में बताई है । शरीर में वात, पित्त एवं कफ की मात्रा, उनकी गुणवत्ता में अंतर पडने से रोग कैसे निर्माण होते हैं और उन्हें साम्यावस्था में लाने पर रोग कैसे दूर हो जाते हैं, इसका वर्णन आयुर्वेद ने किया है । हम जो अन्नग्रहण करते हैं, पानी पीते हैं एवं श्वास द्वारा जो वायु लेते हैं, पचन होने के पश्चात, उनका रूपांतर वात, पित्त एवं कफ में होता है । धातुओं को अन्न अर्थात शक्ति पहुंचाने का कार्य, इसके साथ ही पेशियों की विविध क्रिया करने का कार्य भी यही कण करते हैं । शरीर के इन कणों की मात्रा बढने अथवा अल्प होने पर अथवा उनके गुणों में परिवर्तन होने से यदि वे दूषित हो जाएं, तो यही कण शरीर में रोग उत्पन्न करते हैं । ऐसी अवस्था में उन्हें वात, पित्त अथवा कफ दोष (बढ गए हैं) कहते हैं ।

शरीर का कार्य समाप्त होने पर इन्हीं कणों का रूपांतर मल में होता है और शौच, पेशाब, उच्छ्वास इत्यादि के रूप में ये कण शरीर से बाहर निकलते हैं । इस अवस्था में उन्हें वात, पित्त अथवा कफ मल कहते हैं ।

अन्न एवं औषधियों से शरीर के उनके समान गुण एवं रचनायुक्त दोष, धातु एवं मल भी कम होते हैं; उदाहरणार्थ उष्ण गुणों का आहार एवं औषधियों द्वारा शरीर का पित्त बढता है और कफ एवं वात दोष न्यून होते हैं । इसके साथ ही शीतल गुण के द्रव्यों से शरीर का पित्त न्यून होता है । इसके साथ ही वात एवं कफ दोष बढता है । रोग के विशिष्ट कारण और उनपर विशिष्ट उपचार के बारे में यदि जानकारी मिले तो ही आधुनिक वैद्यकशास्त्र द्वारा बताए उपचार करें । अन्यथा आयुर्वेद द्वारा बताए उपचार करना अधिक हितकारी होता है ।

 

३. आयुर्वेद द्वारा किए गए वात-पित्त-कफ का वर्गीकरण पूर्णरूप से वैज्ञानिक !

आयुर्वेद का मूलभूत सिद्धांत शाश्वत तत्त्वों पर आधारित होने से आयुर्वेद कभी भी कालबाह्य नहीं होगा । याउलट आधुनिक प्रगतीचा आयुर्वेद नीट समजण्यासाठी उपयोग होईल !/अपितु अब तो आधुनिक आयुर्वेद ने इतनी प्रगति की है कि अब इसे समझना सरल होगा !

अ. स्वस्थ अर्थात आरोग्यवान मनुष्य कौन ?

समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः ।
प्रसन्नत्मेद्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥ – सुश्रुत सूत्रस्थान १५-४८

अर्थ : जिसके रस, रक्त इत्यादि सात धातु, ३ दोष अर्थात वात, पित्त एवं कफ; शौच, पेशाब, पसीना इत्यादि मल एवं अग्नि, पचनशक्ति योग्य मात्रा में कार्यरत है और जिसकी इंद्रियां, मन एवं आत्मा प्रसन्न है । उसे स्वस्थ, अर्थात आरोग्यवान मनुष्य समझें ।

 

४. आहार-विहार का कटाक्ष से पालन करने पर प्रकृति ‘सम’ होती जाती है !

आहार, विहार, वातावरण, देश (रहने का स्थान) इत्यादि का भी प्रकृति पर परिणाम होता है, उदा. विश्राम एवं अधिक ऊर्जा देनेवाला आहार एवं विहार वात तथा पित्त प्रकृति के लोगों के लिए हितकर होता है । इसके विपरीत कफ प्रकृति के व्यक्तियों को ठंडी हवा अच्छी लगती है, जबकि वात एवं कफ प्रकृति के लोगों को ठंडी हवा सहन नहीं होती । योग्य आहार – विहार का कडा पालन करने से धीरे-धीरे प्रकृति ‘सम’ प्रकृति की बनने लगती है ।

 

५. समप्रकृति करने के लिए प्रयत्न करें !

वात, पित्त एवं कफ के कण गुणवत्ता से अच्छे एवं योग्य मात्रा में जिनमें है, ऐसे व्यक्ति समप्रकृति के होते हैं । वास्तव में देखा जाए तो समप्रकृति के लोग ही आरोग्यवान होते हैं । वात, पित्त एत्तं कफ प्रकृति को रोगी प्रकृति कहते हैं ।

समप्रकृति का व्यक्ति शरीर से सुदृढ एवं मन से स्थिर एवं शांत होते हैं । गर्मियों में गर्म हवा, कडाके की सर्दी एवं मुसलाधार वर्षा का आनंद से स्वागत करता है । वह अन्न भी सहजता से पचा सकता है और भूख, प्यास भी सहन कर सकता है । क्वचित ही उसे रोग होते हैं । उसका स्वभाव शांत एवं आनंदी होता है । समप्रकृति के व्यक्ति बदलनेवाली परिस्थिति का भी दृढता से सामना करते हैं ।

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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