कर्मस्थान – मनुष्यजन्म को सार्थक बनानेवाला कुंडली में निहित अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान !

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मनुष्य का जीवन कर्ममय है । कर्मफल अटल होते हैं । अच्छे कर्माें के फलस्वरूप पुण्य तथा बुरे कर्माें के फलस्वरूप पाप लगता है । परमेश्वर प्रत्येक जीव के साथ उसके कर्माें के अनुसार न्याय करते हैं । इसलिए मनुष्य द्वारा होनेवाले प्रत्येक अपराध का उसे दंड मिलता है और इस दंड को उसे भोगकर ही समाप्त करना पडता है ।

जन्म लेते समय मनुष्य अपने साथ अच्छे-बुरे कर्म लेकर जन्म लेता है और उन कर्माें का हिसाब पूरा करता है । यह हिसाब यदि एक जन्म में पूर्ण नहीं हुआ, तो उसे पूर्ण करने हेतु उसे अगला जन्म लेना पडता है । मनुष्य को स्वयं के कर्माें के साथ ही उसके जीवन में आनेवाले व्यक्तियों से संबंधित कर्माें का भी ऋण चुकाना पडता है । इसका अर्थ प्रत्येक जन्म के सहचारी व्यक्तियों से लेन-देन हिसाब पूरे करने पडते हैं । केवल मनुष्य प्राणी को ही अपनी बुद्धि की सहायता से कुंडली के माध्यम से कर्माें के विषय में ज्ञात करना, साथ ही उचित कर्म कर जन्म का सार्थक (मोक्षप्राप्ति) करना संभव होता है । कर्माें के परिणाम अटल होते हैं, जिनमें परमेश्वर भी हस्तक्षेप नहीं करते । देवों के लिए भी कर्मभोग अटल होते हैं ।

कर्माच्या गति असती गहना । जें जें होणार तें कदा चुकेना ।
तें तें भोगल्यावीण सुटेना । देवादिकां सर्वांसी ॥ – शनिमाहात्म्य १३८

अर्थ : कर्माें की गति गहन होती हैं । जो होनेवाला है, वह कभी नहीं टल सकता । कर्मभोग किसी को भी अर्थात देवताओं को भी नहीं छोडता ।

 

१. कर्माें के प्रकार

१ अ. संचित कर्म

पिछले अनेक जन्मों में किए गए पाप-पुण्यादि कर्माें को संचित कर्म कहा जाता है ।

१ आ. प्रारब्ध कर्म

पूर्वजन्मों में किए गए कर्माें के फल इस जन्म में भोगने पडते हैं । उनका कार्यकारणभाव ध्यान में न आने से उन्हें दैव, नसीब अथवा प्रारब्ध कहा जाता है ।

१ इ. क्रियमाण कर्म

हम अपनी बुद्धि अथवा इच्छा से जो कर्म करते हैं, उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं ।

श्रीमती प्राजक्‍ता जोशी

 

२. कर्म का उद्देश्य

कीडे-चींटीयों से लेकर प्रत्येक प्राणी के जीवन का उद्देश्य है ‘निरंतर सुख प्राप्त करना और दुख टालना ।’ सुखदायक विषयों को प्राप्त करने और दुखदायक विषयों को टालने हेतु मनुष्य निरंतर प्रयास अर्थात कर्म करता रहता है । केवल मनुष्यप्राणी को ही उसकी पत्रिका अर्थात कुंडली में निहित कर्मस्थान से अपने कर्म का बोध हो सकता है ।

 

३. कर्मयोग के संबंध में विवेचन

३ अ. भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कर्मयोग का महत्त्व विशद किया है । इस योग में ईश्वर की प्राप्ति कैसे होती है ?, इसका वर्णन किया गया है । कर्मयोगी कर्म त्यागते नहीं, अपितु कर्मफलों को त्याग देते हैं और अंततः जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होते हैं ।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्। – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ४७

अर्थ : मनुष्य को केवल कर्म करने का अधिकार है, कर्म का फल उसके हाथ में नहीं है ।

३ आ. संत रामदास स्वामी

मना त्वाचि रे पूर्वसंचीत केले ।
तयासारिखे भोगणे प्राप्त झाले ॥ – मनाचे श्लोक, श्लोक ११

अर्थ : हे मन, तुमने पूर्व जन्मों में जो पाप अथवा पुण्य किए हैं, उसके अनुसार तुम्हें इस जन्म में भोग भोगने पड रहे हैं ।

३ इ. स्वामी स्वरूपानंद

कर्म तैसे फळ लाभते केवळ । आणिकांते बोल लावू नये ॥
पेरोनिया साळी गव्हाचे ते पीक । घ्यावया निःशंक धावू नये ॥
उत्तरासारखे येते प्रत्युत्तर । करावा विचार आपणाशी ॥
पहावे ते दिसे दर्पणी साचार । आपुला आचार ओळखावा ॥
स्वामी म्हणे होसी सर्वथैव जाणे । तुझ्या तू कारण सुखदुःखा ॥

अर्थ : हम जैसे कर्म करते हैं, उसके अनुरूप हमें फल मिलते हैं । उसके लिए अन्यों को दोष नहीं देना चाहिए । यदि हमने चावल बोया है, तो उससे गेहूं निकलें, ऐसी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । हम जो उत्तर देते हैं, वैसा ही प्रत्युत्तर हमें मिलता है, ऐसा विचार करें । हम जैसा देखते हैं, वैसे ही हमें दर्पण में दिखाई पडता है । इसलिए अपना आचरण कैसा है ?, इसकी ओर ध्यान देना चाहिए । स्वामी (स्वरूपानंद) कहते हैं, ‘यह ध्यान रखो, तुम्हारे सुख और दुख का कारण सर्वथा तुम ही हो ।’

३ ई. मराठी भाषा के साहित्यकार तथा कवि राम गणेश गडकरी

आहे जो विधिलेख भालिं लिहिला कोणास तो ना कळे ।
आहे जो सुखदुःखभोग नशिबीं कोणास तो ना टळे ॥

आहे जीवित हा हिशेब सगळा हा बोध चित्तीं ठसे ।
देणें हें गतकालिचे सकळही सव्याज देणें असे ॥

अर्थ : किसी के भाग्य में जो लिखा है, उसे कोई भी टाल नहीं सकता । भाग्य में निहित सुख-दुख के भोग टल नहीं सकते । इससे यह जीवन तो पूर्वकर्माें का हिसाब है, यह बोध मिलता है और पूर्वजन्मों के इस सब ऋण को इस जन्म में ब्याजसहित चुकाना पडता है ।

 

४. कुंडली में निहित कर्मस्थान

व्यक्ति की जन्मतिथि, जन्म का समय और जन्म के स्थान पर आधारित जो कुंडली तैयार की जाती है, वह होती है जन्मकुंडली ! यह कुंडली जन्म के समय आकाश में जो ग्रहों की स्थिति होती है, उनका मानचित्र होती है । जन्मकुंडली के १०वें अर्थात दशम स्थान को कर्मस्थान कहते हैं । दशम स्थान को केंद्रस्थान अथवा उपचयस्थान भी कहते हैं । कुंडली के १, ४, ७ एवं १० ये केंद्रस्थान होते हैं, जो अत्यंत शक्तिशाली स्थान होते हैं । कार्यशक्तियों की दृष्टि से केंद्रस्थान के पहले स्थान की अपेक्षा चौथा, चौथे की अपेक्षा ७वां और सातवें की अपेक्षा १०वां स्थान बलवान होता है ।

 

५. कर्मस्थान से किन बातों का बोध मिलता है ?

दशम स्थान से जातक का विश्व में परिचय, पितृसुख, गोद लिया हुआ पुत्र, सास, नौकरी अथवा व्यवसाय, कार्यक्षमता, अधिकार के योग, पद, प्रतिष्ठा, सामाजिक सफलता, कीर्ति, शासन से मिलनेवाला सम्मान, प्रतिकूलता के विरुद्ध लडने की क्षमता, राजनीति, यज्ञयाग, सामर्थ्य, संन्यास आदि का बोध मिलता है ।

 

६. कुंडली का कर्मस्थान (दशम स्थान) दर्शानेवाली आकृति

 

७. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रत्येक कर्म से संबंधित ग्रह

७ अ. शनि

व्यक्ति के स्वकर्म का स्वामी ‘शनि’ ग्रह है ।

७ आ. रवि

पितृकर्म (पिता के शुभ-अशुभ पूर्वकर्म) का स्वामी ‘रवि’ ग्रह है ।

७ इ. चंद्रमा

मातृकर्म (माता के शुभ-अशुभ पूर्वकर्म) का स्वामी ‘चंद्र’ ग्रह है ।

७ ई. शुक्र

पति-पत्नी से संबंधित पूर्वकर्म का स्वामी ‘शुक्र’ ग्रह है । साथ ही संपूर्ण कुल का पूर्वकर्म दर्शानेवाला स्वामी भी ‘शुक्र’ ही है ।

७ उ. गुरु

संतति संबंधित पूर्वकर्म का स्वामी ‘गुरु’ ग्रह है ।

७ ऊ. मंगल

वास्तुदोष अथवा भूमिदोष से संबंधित कर्म का स्वामी ‘मंगल’ ग्रह है ।

 

८. कर्मस्थान के कारक ग्रह अर्थात उस स्थान
में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होनेवाले ग्रह तथा उस ग्रह से संबंधित
व्यक्तियों के कर्मस्थान के कारक ग्रह रवि, शनि, बुध एवं गुरु

८ अ. कर्मस्थान के कारक ग्रह

८ अ १. रवि

आत्मिक तेज का कारक ग्रह ‘रवि’ कर्मस्थान में शुभ हो, तो व्यक्ति उत्तम नेतृत्व करता है । यह ग्रह सत्ता में रूचि दिखाता है ।

८ अ २. शनि

कर्म का कारक ग्रह ‘शनि’ कर्मस्थान में शुभ हो, तो व्यक्ति कठोर परिश्रम से फलप्राप्ति करनेवाला, साथ ही अन्यों से कर्म करवानेवाला होता है ।

८ अ ३. बुध

बुद्धि का कारक ग्रह ‘बुध’ कर्मस्थान में शुभ हो, तो व्यक्ति अध्ययन वृत्तिवाला और तर्कशास्त्र का विचार कर कृत्य करनेवाला होता है ।

८ अ ४. गुरु

विद्या एवं ज्ञान का कारक ग्रह ‘गुरु’ कर्मस्थान में हो, तो व्यक्ति आध्यात्मिक प्रगति करनेवाला, ज्ञान का प्रसार करनेवाला और शुभकर्म करनेवाला होता है ।

८ अ ५. मंगल

कर्मस्थान का शुभ मंगल व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी सिद्ध होता है ।

८ आ. कारक ग्रह से संबंधित देवता, संत और माननीय व्यक्ति

८ आ १. कर्मस्थान में रवि होना

प्रभु श्रीरामचंद्र, आद्य शंकराचार्य, संत रामदास स्वामी, बिडकर महाराज, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महर्षि धोंडो केशव कर्वे, सुप्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. नीतू मांडके, पंडित शौनक अभिषेकी इत्यादि

८ आ २. कर्मस्थान में शनि होना

महान तत्त्वज्ञ जे. कृष्णमूर्ती, गुरुनानक, संन्यासी, स्वामी, करपात्री महाराज, स्वामी विवेकानंद, मेहरबाबा, प.पू. श्रीधर स्वामी, संत साहित्य के अध्ययनकर्त्ता ले. रा. पांगारकर, इतिहासकर्ता वि.का. राजवाडे, प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक भालजी पेंढारकर, यशवंतराव चव्हाण इत्यादि

८ आ ३. दशम स्थान में बुध होना

प्रभु श्रीरामचंद्र, संत रामदास स्वामी, ‘भूदान आंदोलन’ के जनक आचार्य विनोबा भावे, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्री, पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पद्मविभूषण प्राप्त महान वैज्ञानिक डॉ. वामन पटवर्धन, इतिहास विशेषज्ञ वासुदेवशास्त्री खरे, इतिहासकर्ता पु.ना. ओक, महर्षि धोंडो केशव कर्वे इत्यादि

८ आ ४. दशम स्थान में गुरु होना

रामदास स्वामी, श्री स्वामी समर्थ, स्वामी लोकनाथ तीर्थ, खगोल विज्ञानी डॉ. जयंत नारळीकर, महर्षि धोंडो केशव कर्वे, उद्योगपति धीरुभाई अंबानी इत्यादि

९. कर्मस्थान के ग्रहों का स्वगृह में होना

कुंडली के कर्मस्थान का अधिपति कर्मस्थान में अर्थात स्वगृह में हो, तो व्यक्ति कर्तृत्ववान होता है । ऐसे कुछ नाम आगे दिए हैं –

 

 

नाम कर्मस्थान की राशि कर्मस्थान का स्वग्रह
१. श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज मंगल
२. संत रामदास स्वामी १२ गुरु
३. स्वामी लोकनाथ तीर्थ १२ गुरु
४. गुरुदेव रानडे शुक्र
५. आचार्य विनोबा भावे बुध

 

१०. दशमस्थान के परिप्रेक्ष में कुंडली के स्थानों का विचार दर्शानेवाली आकृति

११. जन्मकुंडली ६५ प्रतिशत ‘प्रारब्धकर्म’ और ३५ प्रतिशत ‘क्रियमाण कर्म’ दर्शाती है !

व्यक्ति की जन्मकुंडली ‘व्यक्ति ने पूर्वजन्म के कौन-से कर्माें का संग्रह लेकर जन्म लिया है ? और इस जन्म में उसे उस संग्रह का किस प्रकार भोग और उपभोग लेना है ?’, यह दर्शाता है । कर्म का प्रत्युत्तर देने का काम भले ही नियति करती हो, तब भी सद्सद्विवेकबुद्धि का उपयोग कर और ईश्वरीय अधिष्ठान द्वारा कार्य करने से सत्-चित-आनंद की प्राप्ति होती है । कुंडली में निहित पूर्वकर्माें के अनुसार प्राप्त गतिविधियां (प्रारब्धकर्म) ६५ प्रतिशत, तो इस जन्म में की जानेवाली गतिविधियां (क्रियमाण कर्म) ३५ प्रतिशत होती हैं ।

 

१२. पूर्वकर्माें के अनुसार मिली बातों को दर्शानेवाले कुंडली के स्थान

१२ अ. प्रथम स्थान

इससे ‘व्यक्ति का रंगरूप, साथ ही ऊंचाई कैसे होगी ?’, यह समझ में आता है ।

१२ आ. द्वितीय स्थान

स्वयं के परिजन कैसे होंगे ? क्या पारिवारिक धन मिलेगा ?

१२ इ. तृतीय स्थान

भाई-बहन कितने और कैसे होंगे ?

१२ ई. चतुर्थ स्थान

किस माता-पिता के गर्भ में जन्म होगा ? घर का सुख कैसा रहेगा ?

१२ उ. पंचम स्थान

शिक्षा में रूचि, साथ ही संतानों की संख्या और वह कैसे होंगे ?, प्रेमसंबंध कैसे होंगे ?

१२ ऊ. छठा स्थान

संभावित रोग और अनुवंशिकता

१२ ए. सप्तम स्थान

पति अथवा पत्नी का सुख कितना मिलेगा ?

१२ ऐ. अष्टम स्थान

आयु कितनी होगी?

कुंडली के १२ में से ८ स्थान अर्थात ६५ प्रतिशत भाग ‘प्रारब्ध’ को दर्शाते है और शेष ४ स्थान ‘क्रियमाण कर्म’ दर्शाते हैं । इस जन्म में व्यक्ति जो कर्म करेगा, उसे भाग्यस्थान का साथ मिलकर उसके द्वारा शुद्ध भावना से किए गए कर्म के अनुसार उसे मिलनेवाले लाभ एवं व्यय का क्रमशः लाभस्थान एवं व्ययस्थान के आधार पर अध्ययन किया जाता है ।

 

१३. कर्मस्थान के लिए पोषक अन्य स्थान

कर्मस्थान का विचार किया जाए, तो अकर्मकर्म होने हेतु कुंडली के निम्न ३ स्थानों का विचार करना आवश्यक है –

१३ अ. तृतीय स्थान कर्मस्थान का छठा स्थान !

तृतीय स्थान से भाई-बहन, पडोसी, पराक्रम आदि का अध्ययन किया जाता है । छठे स्थान से प्रतियोगी, शत्रु, रोग आदि का अध्ययन करते हैं । तृतीय स्थान कर्मस्थान का छठा स्थान होने से उचित कर्म होने हेतु भाई-बहन, साथ ही पडोसियों का अच्छा संग होना और उससे उचित पराक्रम घटित होना आवश्यक होता है । जब कोई व्यक्ति स्वयं को सिद्ध करने के लिए परिश्रम उठाता है, तब अनेक स्वभावदोषों के कारण वह अज्ञानवश कर्मबंधन में फंस जाता है । इसीलिए तृतीय स्थान कर्मस्थान का शत्रु स्थान है ।

१३ आ. चतुर्थ स्थान कर्मस्थान का सप्तम स्थान !

चतुर्थ स्थान से माता, मन, सुख आदि का बोध होता है । सप्तम स्थान से जीवनसाथी का बोध मिलता है । व्यक्ति के हाथों उचित कर्म होने हेतु निरंतर उसके संग रहनेवाला उसका ‘मन’ ही जीवनसाथी होता है । प्रत्येक कर्म करते समय बाह्य मन के स्थान पर अंतर्मन की सहायता लेने से व्यक्ति से उचित कर्म होते हैैं ।

१३ इ. पंचम स्थान कर्मस्थान का अष्टम स्थान !

पंचम स्थान से विद्या, संतति, साथ ही पिछले जन्मों की साधना का बोध मिलता है । अष्टम स्थान मृत्यु दर्शाता है । उचित साधना के आधार से कर्म करने पर व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से सहजता से मुक्त हो सकता है ।

कुंडली में निहित धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन ४ चतुष्कोणों के माध्यम से व्यक्ति ईश्वर के चरणों में नतमस्क होने का प्रयास करता है । इस हेतु व्यक्ति के द्वारा उचित कर्म होना आवश्यक है ।’

– श्रीमती प्राजक्ता जोशी, ‘ज्योतिष फलित विशारद’ एवं महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की ज्योतिष विभाग की प्रमुख, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा

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