पाप-पुण्य लगने के नियम

१. पुण्य के लिए विचार पर्याप्त होना;
परंतु पाप के लिए क्रिया आवश्यक होना

१ अ. कर्मफलन्यायानुसार प्रत्येक कर्म का फल होता है और उसे भुगतना ही पडता है । अच्छे कर्म का फल है पुण्य और अनिष्ट कर्म का फल है पाप । पाप-पुण्यप्रद कर्मों की विशेषता है कि पुण्यप्रद कर्म का केवल विचार मन में आए, तो भी पुण्य मिलता है; परंतुु पाप लगने के लिए प्रत्यक्ष क्रिया का फलीभूत होना आवश्यक है । केवल विचार से पाप नहीं लगता । कारण, यदि मन में पुण्यप्रद कर्म करने का विचार आए; परंतुु कुछ कठिनाईवश वह न हो पाए, तो भी ईश्‍वर तक वह विचार पहुंच जाता है । ईश्‍वर भी विवशता को भांप लेते हैं । इसलिए वे मान लेते हैं कि पुण्यकर्म हो गया और व्यक्ति को उसका फल मिलता है । इसके विपरीत पाप के संदर्भ में प्रत्यक्ष क्रिया का फलीभूत होना आवश्यक है । इसलिए कि, पापकर्म का विचार मन में आया, फिर भी उस व्यक्तितक वह विचार नहीं पहुंचता है, उसी प्रकार उस व्यक्ति को कुछ हानि नहीं पहुंचती है; इसलिए पाप नहीं लगता ।

 

२. साधक को इच्छा से भी पाप लगता है, जबकि
सामान्य व्यक्ति को पाप लगने के लिए क्रिया करनी पडती है ।

समान कृत्य के लिए समान दंड, यह धर्म का तत्त्व नहीं है । अतएव सामान्य मनुष्य एवं साधक के संदर्भ में यह अंतर होता है ।

उदाहरणार्थ, एक व्यक्तिको एक स्थान पर रखा अनार खाने की इच्छा हुई । उसने प.पू. भक्तराज महाराजजी से (प.पू. बाबा से ) इस संदर्भ में पूछा । तब प.पू. बाबाने कहा, वह चोरी हुई; क्योंकि तुमने मन से पहले ही अनार चुरा लिया है । यहां ध्यान में आता है कि इच्छा होना, यही संतों की दृष्टि से अयोग्य है ।

 

३. धर्मशास्त्र के अनुसार ही कृत्य पाप-पुण्यात्मक सिद्ध होना

कौनसा कर्म पाप अथवा पुण्य निर्माण करता है, यह बताने का अधिकार मात्र धर्मशास्त्र का है; क्योंकि कौनसा कर्म अच्छा है अथवा बुरा, यह निर्धारित करने के लिए अपनी बुद्धि अल्प सिद्ध होती है ।

अ. कर्तव्य

धर्मशास्त्र में बताए अनुसार किसीने अपना कर्तव्य नहीं निभाया, तो उससे पाप की निर्मिति होती है, उदा. कुलदेवता की पूजा न करने से पाप लगता है; परंतु अपने कर्तव्य निभाने से पुण्य निर्मित नहीं होता ।

आ. सत्य

प्रत्येक को जीवन में अलग-अलग भूमिकाएं निभानी पडती हैं, उदा. एक ही मनुष्य पिता, पुत्र, सेवक, अधिकारी एवं पडोसी भी होता है, उसी तरह वह स्वामी भी हो सकता है । प्रत्येक भूमिका के अंतर्गत कर्तव्य निभाते समय संघर्ष होना स्वाभाविक है, उदा. पत्नी को प्रसन्न करने का प्रयास करें, तो मां को दुःख हो सकता है । ऐसी परिस्थिति में सत्य का पक्ष लेकर चलना ही योग्य होगा ।

इ. आश्रम के अनुसार पाप-पुण्य निर्धारित होना

गृहस्थाश्रम : इस आश्रम में स्त्रीसंग करना कर्तव्य है, धर्माचरण है ।

संन्यासाश्रम : संन्यासाश्रम में स्त्रीसंग पाप है ।

 

४. उद्देश्य के अनुसार पाप-पुण्य लगना

अ. किसी की द्वेषभावना से हत्या करना और राष्ट्र की रक्षा हेतु राष्ट्रशत्रु को मारना; सत्य एवं असत्य बोलना, इनमें उद्देश्य के अनुसार पाप-पुण्य लगना : ईर्ष्या अथवा द्वेष की भावना से ग्रस्त होकर किसी की हत्या करनेवाले को मृत्युदंड मिलता है । चारपहिया वाहन से दुर्घटनाग्रस्त होकर किसी की मृत्यु होने पर , उसके चालक को थोडा-सा दंड देकर छोड दिया जाता है । इसके विपरीत कोई सैनिक शत्रुराष्ट्र के १०० सैनिकों को मारता है, तो उसे बहुत पुण्य मिलता है, जनता और शासन की ओर से सम्मान किया जाता है तथा युद्ध में मृत्यु होने पर स्वर्ग जाता है । जब कोई सैनिक अपने लाभ के लिए १०० शत्रु-सैनिकों को मारता है, तब तो उसे पाप लगता है ।

आ. असत्य बोलना पाप है; परंतु जब कोई दुष्ट व्यक्ति किसी अच्छे व्यक्ति की हत्या करने के लिए उसे ढूंढ रहा हो और हम उसका सही पता उसे बता दें, तो यह पाप होगा । क्योंकि, ऐसा कर हम अप्रत्यक्ष रीति से एक सज्जन को क्लेश देते हैं, इसलिए यहां सत्य बोलना पाप है । – (सद्गुरु) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले, चेंबूर, मुंबई. (वर्ष १९९०)

 

५. उन्नत पुरुषों की सेवा करनेवाले को पुण्य
तथा उनसे द्वेष करने वालेको पाप मिलता है

इस विषय में वेदों तथा उपनिषदों में बहुत-कुछ लिखा है । उपासक, ज्ञानी, योगी, गुरुदेव तथा संत की सेवा करनेवाला तथा उनके (उन्नत पुरुषों के) लिए कष्ट सहनेवाला पुण्य का भागी होता है; परंतु उनसे द्वेष करनेवाला पाप का भागी बनता है । संत के तपोबल व पुण्यकर्मों के प्रभाव से शासक, अर्थात राजा की रक्षा अवश्य होती है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (३२)

 

६.  कुछ अन्य नियम

अ. केवल परोपकार से पुण्य प्राप्त कर, परपीडा से किया पाप समाप्त नहीं होता ।

आ. जप करना पुण्य है; परंतु परोपकार नहीं ।

इ. परस्त्री कामेच्छा से विरूल हो, तब अनिच्छा से किया संभोग पाप ही है ।

ई. हिंसा एवं चोरी करने से पाप लगता है; परंतु न करने से पुण्य नहीं मिलता ।

 

७. संतों के पाप एवं पुण्य

संतों का पुण्य उनके भक्तोंको मिलता है एवं संतों के संचित का पाप उनकी निंदा करनेवालों को भुगतना पडता है ।

संदर्भ : पुण्य-पाप के प्रकार एवं उनके परिणाम

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