‘कोरोना’ जैसे महासंकट और साधना

आज हम सभी जण ‘कोरोना’ नामक एक महासंकट का सामना कर रहे हैं । गत सदी में पोलियो, प्लेग, मलेरिया जैसी भयंकर महामारी के कारण लाखों लोगों की मृत्यु हुई थी, ऐसा हमने केवल सुना था । उसके उपरांत वैज्ञानिकों के विभिन्न शोध कर उन पर टीके तथा दवाईयां खोज कर निकालीं । इससे इन महामारियोंपर उपाय भी मिला । विज्ञान की प्रगति की यह कहानियों सुनने के पश्‍चात सभी की ऐसी मानसिकता ही बन गई थी कि अब भविष्य में ऐसी स्थिति निर्माण ही नहीं होगी । उसके साथ मानवी बुद्धि और प्रभुत्व का अहंकार आदि के कारण हमे देवता-धर्म यह संकल्पना पिछडी, अंधश्रद्धा लगने लगी । ऐसे समय ही प्रकृति मानव को उसकी मर्यादा का भान करवाती है । अनेक संत-महापुरुष सतत स्वार्थ त्यागकर धर्म के मार्ग पर चलने का आवाहन कर रहे है । आगामी काल में नैसर्गिक आपदाएं तथा महामारी जैसा संकट आने की पूर्वसूचना वो दे रहे थे; परन्तु हम सभी ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया । आज प्रत्यक्ष में ‘कोरोना’ (कोविड-१९) नामक एक वायरस के कारण मानव ने की हुई प्रगति, विज्ञान की आधुनिकता इन सब अहंकार के चिथडे उड गए हैं । मानवद्वारा ही निर्मित इस आपदा के कारण आधुनिक हवाई जहाज भूमि पर उतर आए हैं, बुलेट ट्रेन यार्ड में खडी हैं, कारें-बसें बंद हैं और इनका निर्माण करनेवाला मानव आज अपने ही घर में कैद हो बैठा है । इस वायरस का संसर्ग न हो इसलिए वह सारे प्रयास कर रहा है, क्योंकि आज के दिन तक तो इस भयंकर महामारी पर आधुनिक विज्ञान के पास भी कोई दवाई उपलब्ध नहीं है । ऐसी स्थिति में प्रकृति में विद्यमान दैवी शक्ति की शरण जाने के सिवाय हम मानवों के पास अन्य कोई पर्याय भी तो नहीं है । यह प्रकृति ईश्‍वरनिर्मित माया है तथा उसका निर्माता ईश्‍वर, विश्‍व का चालक है । यद्यपि हम ईश्‍वर और प्रकृति को भिन्न मानते हैं, पर धर्म के अनुसार ईश्‍वर और प्रकृति एक ही है । इसलिए विश्‍व पर का यह संकट दूर होने के लिए हम सामान्य जन उस सर्वशक्तिमान ईश्‍वर की शरण तो निश्‍चितरूप से जा सकते हैं । ईश्‍वर सूक्ष्म, अर्थात आखों से दिखाई न पडनेवाला होने के कारण उसे हमसे नारियल, फूल, मिठाई, धन ऐसे किसी चीज की अपेक्षा नहीं होती । वह तो चाहता है कि हम अपने जीवन को जन्म-मृत्यु के फेर से मुक्त होने के लिए प्रयास करें ।

हम जानने का प्रयास करेंगे कि आपदा क्या होती है, आपदा क्यों आती है, उसपर क्या उपाय है, कौनसी साधना करें और कैसे करें, साधना में गुरु का महत्त्व इत्यादि समझने का प्रयास करेंगे ।

आपातकाल का अर्थ एवं स्वरूप क्या है ? जानने हेतु पढें https://www.sanatan.org/hindi/a/27544.html

 

१. वर्तमानकाल की आपदाएं

१ अ. ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के कारण विश्‍व मे सागर के जलस्तर का बढना

आसान शब्दों में समझें तो ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ‘पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसके कारण मौसम में होनेवाले परिवर्तन’ । पृथ्वी के तापमान में हो रही इस वृद्धि (जिसे १०० सालों के औसत तापमान पर १० फारेनहाईट आँका गया है।) के परिणाम स्वरूप बारिश के तरीकों में बदलाव, हिमखंडों और ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और वनस्पति तथा जंतु जगत पर प्रभावों के रूप के सामने आ सकते हैं।

ग्रीन हाउस गैस वो गैस होती है जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर यहां का तापमान बढाने में कारक बनती है ।  वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो २१वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान ३ डिग्री से ८ डिग्री सेल्सियस तक बढ सकता है । अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे । दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल सकती हैं, इससे समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर बढ जाएगा । इससे दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो सकते हैं, भारी तबाही मच सकती है । यह तबाही किसी विश्‍वयुद्ध या किसी ‘ऐस्टेरॉइड’ के पृथ्वी से टकराने के बाद होने वाली तबाही से भी बढ़कर होगी । हमारे ग्रह पृथ्वी के लिये भी यह स्थिति बहुत हानिकारक होगी ।

इस चेतावनी को गंभीरता से लेकर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विदोदोने २०१९ में ट्वीट कर कहा था ‘वर्तमान राजधानी जाकार्ता शहर पानी के नीचे जाने की संभावना होने से हमारे देश की राजधानी बोर्नियो द्वीपपर स्थानांतरित हो जाएगी ।’ किसी देश को अपनी राजधानी में बदलाव करना पडे, इससे हम परिस्थिति की गंभीरता समझ सकते हैं ।

१ आ. ‘कोरोना’ गुट के ‘कोविड-१९’ वायरस की विश्‍वमारी

वर्तमानकाल में हम इसी महामारी के आपातकाल से गुजर रहे हैं । चीन से प्रारंभ हुए इस महामारी को आज २ महिने में ही विश्‍वमारी घोषित किया गया है । आज तक इसके प्रकोप से हजारों लोगों की मृत्यु हो चुकी है और लाखों लोग इसके चपेट में आ चुके हैं । अब यह आंकडा कहां तक जाता है, यह हम भविष्य मे देखेंगे, पर आज तक तो इस महामारी के पर कोई दवाई उपलब्ध नहीं है ।

 

२. आपातकाल क्यों आता है ?

पिछले एक दशक से हम पूरे विश्‍व में प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता में वृद्धि होते देख रहे हैं । प्रकृति के इस भयावह सामर्थ्य को अनुभव कर रहे हैं । कुछ समय पूर्व दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं जापान में आई त्सुनामी, पाकिस्तान, हैती तथा चीन में हुए भूकंप, साथ ही कटरिना एवं उत्तर और मध्य अमरीका में आई अन्य चक्रवात आदि द्वारा हुए प्राकृतिक संकट देखे हैं । इन की तीव्रता के कारण हुआ घोर विध्वंस तथा जन-हानि हमारे मन पर अंकित हो गई है । हमें समझना होगा कि प्रकृति के इस कोप का कारण क्या है ?

२ अ. सेमेटिक विचारधारा के पंथ

अन्य पंथों में पुण्य की कोई संकल्पना ही नहीं है । उनके पंथ निर्माता के मार्गपर चलना पुण्यकारक माना गया है, तथा उसके विरुद्ध कृति करना पाप माना गया है । इन पंथों की धारणा है कि मानव सर्वश्रेष्ठ है और सारी सृष्टि केवल भोग के लिए है । इस कारण प्रकृति को अलग मानकर उसका दोहन करने की प्रवृत्ती बढी है । दुर्भाग्य से भारत मे भी पश्‍चिमी देशों के लोगों द्वारा बनाई गई शिक्षा प्रणाली चल रही है । इसलिए भारत मे भी आज की पीढी की भी वही प्रवृत्ति हो गई है । इसी कारण पर्यावरण का प्रदूषण करना, जंगल का विनाश करना आदि प्रवृत्तियां बढ रही हैं । जंगल का नाश होगा, तो वन में रहनेवाले प्राणी नागरी बस्तियों मे प्रवेश करेंगे, वर्षा अनियंत्रित होगी तथा ग्लोबल वॉर्मिंग में बढोतरी होगी । इस प्रकार मानव आपदाओंको आमंत्रित कर रहा है ।

२ आ. मानव का स्वार्थ

मानव की अपने हित को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति भी बढ गई है । अपने स्वार्थ के लिए सागर तथा नदी के क्षेत्र पर अतिक्रमण करना, पशुओं की हत्या करना, रासायनिक तथा जैविक शस्त्र बनाना, वायु तथा जल का प्रदूषण करनेवाले केमिकल्स बनाना, ऊर्जा का अतिरिक्त उपयोग करना आदि इसके उदाहरण हैं । इनके कारण भी अनेक आपदाओं का सामना करना पड रहा है । वर्तमानकाल की कोरोना वायरस की महामारी भी इसी का एक उदाहरण है ।

इसी स्वार्थ की प्रवृत्ति के कारण आज सागरतट पर खारे पानी में उगनेवाली तथा तट की प्राकृतिक सुरक्षा करनेवाली मँग्रोव के जंगल काटकर उस जमीन पर अतिक्रमण किया जा रहा है । इससे त्सुनामी के प्रकोप से मानव की सुरक्षा के लिए प्रकृति द्वारा दिया सुरक्षाकवच ही हम नष्ट कर रहे हैं । इसका भयंकर परिणाम हमने त्सुनामी के समय देखा भी है ।

 

३. आध्यात्मिक परिपेक्ष्य से क्यों आता है वैश्‍विक संकट ?

कोरोना जैसी महामारी हो अथवा अन्य नैसर्गिक आपदा, हर कोई अपने ढंग से उसका कारण ढूंढता है । जैसे वैज्ञानिक हो, तो वह अपना तर्क बताते हैं कि यह आपदा क्यों आई और इसका परिणाम क्या होगा ? जबकि पत्रकार अपना तर्क लगाते हैं । पर हमें आपदा का आध्यात्मिक परिपेक्ष्य देखना है । इसलिए कि बिना आध्यात्मिक परिपेक्ष्य समझे हम आपदाओं को समझ नहीं पाएंगे ।

३ अ. आध्यात्मिक परिपेक्ष्यकी विशेषता !

क्योंकि सृष्टि का संचालन किसी सरकार या आर्थिक महासत्ता द्वारा नहीं होता । सृष्टि का संचालन परमात्मा द्वारा होता है । इस संचालन का विज्ञान यदि हम नहीं समझेंगे, तो वैश्‍विक संकट को और उसके समाधान को कैसे समझ पाएंगे ? हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे धर्मग्रंथों में सृष्टि तथा उसके संचालन के विषय में स्थूल अध्ययन के साथ-साथ सूक्ष्म की भी स्पष्ट जानकारी दी गयी है ।

कौशिकपद्धति नामक ग्रंथ में आपातकाल के कारण का वर्णन है ।

अतिवृष्टिः अनावृष्टिः शलभा मूषकाः शुकाः ।
स्वचक्रं परचक्रं च सप्तैता ईतयः स्मृताः ॥

इस श्‍लोक का अर्थ इसप्रकार है । राज्यकर्ता तथा प्रजा के धर्मपालन न करने से अतिवृष्टि, अनावृष्टि (अकाल), टिड्डियों का आक्रमण, चूहों अथवा तोतों (पोपट) का उपद्रव, एक-दूसरे में लढाइयां और शत्रु का आक्रमण, इस प्रकार के सात संकट राष्ट्र पर आते हैं ।

तात्पर्य : प्रजा एवं राजा, दोनों को धर्मपालन एवं साधना करनी चाहिए । तब ही आपातकाल की तीव्रता अल्प होकर आपातकाल सुसह्य होगा ।

आध्यात्मिक परिपेक्ष्य के कुछ पहलु समझकर लेते हैं ।

३ आ. युगों का कालचक्र

हमारे शास्त्रों में सत्ययुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलियुग, ऐसे चार युगों का स्पष्ट उल्लेख है । वर्तमान में कलियुग के अंतर्गत चल रहे पांचवें कलियुग के अंत का समय है । इसके बाद कलियुग के अंतर्गत एक छोटासा सत्युग आएगा । अभी का समय छोटे कलियुग के अंत का है । कल्कि अवतार के समय के कलियुग का नहीं ।

३ इ. उत्पत्ति, स्थिति एवं लय, यह कालचक्र का नियम

युगपरिवर्तन, यह ईश्‍वरनिर्मित प्रकृति का एक नियम है । जो भी वस्तु उत्पन्न होती है, वह कुछ समय तक रहकर अंत में नष्ट हो जाती है । इसे उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का नियम कहते हैं । उदाहरण के रूप में, हिमालय पर्वतशृंखला की उत्पत्ति हुई, वह कुछ काल तक रहेगी और अंत में नष्ट हो जाएगी । इस का अर्थ यह है कि जब इस विश्‍व में किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है, कुछ काल तक रहने के पश्‍चात वह अवश्य नष्ट होगी । केवल निर्माता अर्थात ईश्‍वर ही चिरंतन एवं अपरिवर्तनीय है ।

इस नियम के अनुसार अभी का समय कालचक्र में एक परिवर्तन का समय है । अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आपदाओं से प्रकृति अपना संतुलन बना रही है ।

इसमें समझना होगा कि आपदाओं से जो नष्ट हो रहा है उसके अनेक मार्ग हैं, इसमें एक मार्ग है प्राकृतिक आपदाएं । नाश की इस प्रक्रिया में मानवजाति भी व्यवहार एवं आचरण द्वारा अपना योगदान देती है, जो युद्ध के रूप में सर्वनाश लाता है । इसकी मात्रा ७० % होती है ।

इसमें, उत्पत्ति-स्थिति-लय (विनाश) इस कालचक्र के नियमानुसार रज-तम गुणी (पापी) लोगों की सबसे अधिक प्राणहानि होगी । इससे, वातावरण की एक प्रकारसे शुद्धि ही होती है । इस काल का उल्लेख अनेक भविष्यवेत्ताआें ने भी अपनी भविष्यवाणियों में किया है ।

३ ई. मनुष्य के कर्म तथा समष्टि प्रारब्ध !

वर्तमान कलियुग में मनुष्य का ६५ प्रतिशत जीवन प्रारब्ध के अनुसार और ३५ प्रतिशत क्रियमाण कर्म के अनुसार होता है । ३५ प्रतिशत क्रियमाण द्वारा हुए अच्छे-बुरे कर्मों का फल प्रारब्ध (भाग्य)के रूप में उसे भोगना पडता है । वर्तमान में धर्मशिक्षा और धर्माचरण के अभाव में समाज के अधिकांश लोगों से स्वार्थ या बढते तमोगुण के कारण समाज, राष्ट्र और धर्म की हानि हो रही है । यह गलत कर्म संपूर्ण समाज को भुगतने पडते हैं; क्योंकि समाज उसकी ओर अनदेखी करता है । इसीप्रकार, समष्टि के बुरे कर्मों का फल भी उसे प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सहना पडता है । जैसे आग में सूखे के साथ गीला भी जल जाता है । उसी प्रकार यह है ।

इसके साथ ही समाज, धर्म और राष्ट्र का भी समष्टि प्रारब्ध होता है । २०१३ से २०२३ के कालखंड में मनुष्यजाति को कठिन समष्टि प्रारब्ध भोगना पड सकता है ।

३ उ. प्रकृति कैसे कार्य करती है ?

जिसप्रकार धूल तथा धुएं से स्थूल स्तर पर प्रदूषण होता है, उसीप्रकार बुद्धिअगम्य सूक्ष्म स्तर पर रज-तम का प्रदूषण होता है । समाज में सर्वत्र फैले अधर्म एवं साधना के अभाव के कारण मानव में रज-तम बढ जाने से वातावरण में भी रज-तम बढ गया है । इससे प्रकृति का ध्यान भी नहीं रखा जा रहा है ।

रज-तम बढने का अर्थ है, सूक्ष्म स्तर पर पूरे विश्‍व में बुद्धिअगम्य आध्यात्मिक प्रदूषण होना । जिसप्रकार हम जिस घर में रहते हैं, वहां की धूल-गंदगी समय-समय पर स्थूलरूप में निकालते रहते हैं, उसीप्रकार प्रकृति भी सूक्ष्म स्तर पर वातावरण में रज-तम के प्रदूषण को हटाने एवं स्वच्छ करने के लिए प्रतिसाद देती है ।

वास्तविकता यह है कि जब वातावरण में रज-तम का पलडा भारी हो है, तब यह अतिरिक्त रज-तम मूलभूत पांच वैश्‍विक तत्त्वों के माध्यम से (पंचमहाभूत) प्रभाव डालता है । इन पंचमहाभूतों के माध्यम से यह भूकंप, बाढ, ज्वालामुखी, चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि करता है ।

मूलभूत पृथ्वीतत्त्व प्रभावित होने से उसकी परिणति भूकंप में होती है । मूलभूत आपतत्त्व प्रभावित होने से पानी में वृद्धि (बाढ आना अथवा अतिरिक्त हिमवर्षा होकर हिमयुग आना) अथवा न्यूनता (उदा. अकाल) होती है ।

 

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४. मनुष्य के स्वभाव में छुपा है, आपदाओं का कारण !

आज विश्‍व की आपदाओंका कारण कहीं न कहीं हमारे अनुचित व्यवहार का यह परिणाम है । लोग पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का बिना सोचे-समझे दुरुपयोग करते हैं । अनेकों को पता होते हुए भी वो अनुचित व्यवहार करते हैं, इसलिए कि उनका अहंकार और स्वार्थ उनको समाज का विचार नहीं करने देता । तीव्र अहंकार तथा स्वार्थी वृत्ति होने से, वे प्रकृति, मनुष्य तथा अन्य जीवों को कष्ट देकर अधिकतर समय केवल अपने लिए ही सुख जुटाने में लगे रहते हैं । सरकार कितना भी प्रयास करे । कानून बना ले, परंतु जब तक वह स्वयं अपने समाज ऋण को नहीं पहचानेगा, तब तक परिवर्तन असंभव है ।

समाज में चुनिंदा लोग ही प्रकृति और समाज का विचार करते है । यदि उनके जीवन में हम झांककर देखें, तो वे धर्माचरण करनेवाले, दयालु स्वभाव के और सभी के प्रति प्रेम रखनवाले हैं । उनके व्यवहार में व्यापकता है । उनका आचरण हम सबको लोककल्याण करने की प्रेरणा देता है । उन्हें अधर्म का परिणाम पता है । कानून के दंड से भी अधिक प्रभावी है, व्यक्ति का आत्मसंयम ! जो केवल धर्म को समझने से और उसको जीवन में उतारने से आ सकता है ।

 

५. क्या आपातकाल रोकना संभव है ?

अब काल तो भीषण है, यह विज्ञान भी कह रहा है । कुछ लोगों के गलत कर्म और उसकी अनदेखी करनेवाले अन्य लोगों के कारण आज पूर्ण समाज को इस आपातकाल का परिणाम भुगतना पडेगा । मानव ने प्रकृति को इतना असंतुलित किया है कि अब प्रकृति अपना संतुलन बनाएगी । पर उसका परिणाम हम सभी को भुगतना पडेगा ।

हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारी संस्कृति ही प्रकृति की पूजा करनेवाली थी । गोमाता, गंगानदी, बरगद, पीपल, गंगासागर, कैलाश पर्वत, मानसरोवर इस प्रकार हम वृक्ष से x`लेकर महासागर तक प्रकृति की पूजा करते थे । हमारी संस्कृति इस भूमि को पवित्र भारतमाता माननेवाली, पत्थर में भी भगवान देखकर उसे पूजनेवाली थी, परंतु विदेशी शिक्षापद्धति तथा कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण हमने इसे निम्न दर्जे का मानना प्रारंभ किया । गौमाता को संभालने में हमें लाभ-हानि दिखाई देने लगी । धीरे धीरे हमने पश्‍चिम की और आकर्षित होकर अपने ऋषि-मुनियों और अपने पुरखों द्वारा संजोई आचरण पद्धति को ठुकरा दिया । विदेश में जो हो रहा है, वह अच्छा और हमारे प्रौढ व्यक्ति जो धर्म का ज्ञान देते हैं, वह पिछडा, यह मनोभाव भी हर भारतीय को संकेत दे रहा है, अब तो जाग जाओ ।

  • हमारे मनोभाव में केवल परिवर्तन ही नहीं हुआ, अपितु वह नीचे गिर गिर गया है ।
  • तुलसी की जगह मनीप्लांट ने ले ली ।
  • गोमाता की जगह कुत्तों ने ले ली ।
  • हमने हाथ जोडकर नमस्ते, राम-राम कहना छोडकर शेकहैंड करना प्रारंभ किया ।
  • जन्मदिनपर आरती उतारना छोडकर, केक काटना और फूंक मारकर मोमबत्ती बुझाना प्रारंभ किया ।
  • बाहर से घर में आते समय पैर धोना तो दूर की बात, जूते पहनकर हम घर में घूमने लगे ।
  • क्या खाना है, कब खाना है, कैसे खाना है, इसका भी हमनें ध्यान रखना छोड दिया ।
  • जूठा अथवा प्राणियों द्वारा सूंघा भोजन न खाना, जन्म-मृत्यु के समय सूतक रखना, आदि सभी हमारे आचारधर्म की बाते हमने पिछडेपन के नाम पर ठुकरा दीं । मंदिर जाने में हमें कमीपना लगने लगा ।
  • खेद है कि अज्ञानवश जिन बातों को हमने छोडा, उसको आज विदेश अपना रहा है ।

‘स्वाइन फ्ल्यू’ और अब ‘कोरोना’ के बाद पूरा विश्‍व नमस्ते कर रहा है !

डिस्कवरी चैनल यह शोध बता रहा है कि बच्चा जब जन्मदिन पर केक पर रखी मोमबत्ती बुझाता है, तो उसके मुंह के जिवाणु जाकर केकपर गिरते हैं । ऐसा केक खाना सेहत के लिए गलत है ।

कोरोना के बाद अब बाहर से आनेपर लोग स्नान कर रहे है, बार बार हाथ-पैर धो रहे हैं । परंतु हम क्यों भूल गए हमारे यहां संध्या होती थी । हमारे यहां बाहर से आने पर जूते निकालकर, हाथ-मूंह धोकर ही घर में प्रवेश होता । घर में होते, तो भी संध्या के समय हाथ-मूंह धोना एक नित्य आचार था ।

हमारे धर्माचरण को स्वच्छता तक ही सीमित नहीं रखा था, स्वच्छता के साथ पवित्रता भी कैसे रहेगी, इतना गहरा चिंतन हमारा था ।
पर हमने सब छोड दिया और अब उसके परिणाम हम भुगत रहे हैं ।

केवल भोजन की बात करें । तो हमारे यहां केवल बाह्य सफाई का तो पूरा ध्यान था ही । पर भोजन बनाते समय मन में पवित्रता आए, इसलिए भगवान को भोग लगाने की व्यवस्था थी । भोजन को यज्ञ का स्थान देकर उससे पहले प्रार्थना होती थी । भोजन बनाना, परोसना, खाना आदि सभी के विषय में कुछ नियम थे । भोजन का एक अंश गोमाता और कुत्ते के लिए निकाला जाता था । इतना विलक्षण आचरण छोडकर, आज हमने अपनी क्या स्थिति बना ली है ? आज तो घर का ताजा भोजन छोडकर होटल, स्वीगी, झोमैटो से आ रहा खाना हमें पसंद है । विवाह और पार्टियों में हमें खडे होकर खाने में प्रतिष्ठा लगती है । फिर रोग तो होंगे ही न ? मानसिक बिमारियां भी आएंगी ही ।

अभी भी समय है, हमें हमारे धर्म, संस्कृति की ओर लौटना होगा और पूरे विश्‍व को राह दिखानी होगी कि प्रकृति को संतुलित होना है, तो पूरब की ओर लौट चलें  ।

 

अ. आपातकाल की तैयारी कैसी करनी चाहिए ?

आपातकाल की दृष्टि से भौतिक तैयारी

आपातकाल में चक्रवाती तूफान, भूकंप आदि के कारण बिजली की आपूर्ति बंद हो जाती है । पेट्रोल-डीजल आदि इंधन की किल्लत होने से यातायात की व्यवस्था भी रुक जाती है । उसके कारण रसोई गैस, खाने-पीने की वस्तुएं भी कई मास तक नहीं मिलतीं अथवा मिली, तो भी उनकी नियंत्रित आपूर्ति (रेशनिंग) की जाती है । आपातकाल में डॉक्टर, वैद्य, औषधियां, चिकित्सालय आदि की उपलब्धता होना लगभग असंभव होता है । यह सब ध्यान में लेते हुए आपातकाल का सामना करने हेतु सभी को शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, आध्यात्मिक इत्यादि स्तरों पर पूर्वतैयारी करना आवश्यक है ।

अधिक पढने हेतु यहा भेंट दे : भावी भीषण आपातकाल का सामना करने हेतु विविध स्तरों पर अभी से प्रयास आरंभ करें !

 

आ. आपातकाल की दृष्टि से आध्यात्मिक स्तर पर क्या व्यवस्था करनी चाहिए ?

आगामी काल में आनेवाली भीषण आपदाओं से रक्षा होने के लिए अच्छी साधना करना और भगवान का भक्त बनना आवश्यक है । इसके लिए अभी से प्रयत्न आरंभ करें ।

आ १. हम पर देवता की कृपादृष्टि होने के लिए और अपने सर्वओर सुरक्षा-कवच बनने के लिए आगे बताई बातें प्रतिदिन करें । देवपूजा करें । सायंकाल देवता और तुलसी के पास दीया जलाकर उसे नमस्कार करें । संध्याकाल दीया जलने बाद घर के सब लोग आराम से बैठकर स्वास्थ्य और सुरक्षा-कवच प्रदान करनेवाला श्‍लोक / स्तोत्र पाठ (उदा. रामरक्षास्तोत्र, मारुतिस्तोत्र, हनुमान चालीसा, देवीकवच आदि) करें । रातमें सोते समय बिछौने के चारों ओर देवताओं केे नामजप की सात्त्विक पट्टियों का चौकोर मंडल बनाएं और सुरक्षा के लिए उपास्यदेवता से प्रार्थना करें !

आ २. आगामी तीसरे विश्‍वयुद्ध के समय छोडे जानेवाले परमाण्विक अस्त्रों के विकिरणों का वातावरण पर जो प्राणघातक प्रभाव पडेगा, उससे बचने के लिए प्रतिदिन अग्निहोत्र करें ।

आ ३. कोरोना विषाणुओं के विरुद्ध स्‍वयं में प्रतिरोध शक्‍ति बढाने के लिए आध्‍यात्मिक बल प्राप्‍त हो, इसके लिए ईश्‍वर द्वारा सुझाया नामजप करें !

नामजप सुनने हेतु यहा भेंट दें –  https://www.sanatan.org/mr/helpful_chant_in_corona

Disclaimer : At the outset, Sanatan Sanstha advises all our readers to adhere to all local and national directives to stop the spread of the coronavirus outbreak (COVID-19) in your region. Sanatan Sanstha recommends the continuation of conventional medical treatment as advised by medical authorities in your region. Spiritual remedies given in this article are not a substitute for conventional medical treatment or any preventative measures to arrest the spread of the coronavirus. Readers are advised to take up any spiritual healing remedy at their own discretion.

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