श्रीलंका पर छाया अन्नसंकट एवं भारत !

श्रीलंका भारी आर्थिक संकट का सामना कर रहा है । वहां के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने आर्थिक आपातकाल घोषित किया है । जनता को सरकार द्वारा निर्धारित मूल्यों पर ही खाने-पीने की सुविधा उपलब्ध कराने का अधिकार सेना को दिया गया है । आज श्रीलंका में दाल, चावल का भाव २०० से २५० रुपये प्रति किलो है । प्रमुख खाद्यपदार्थ आयात करने में विदेशी मुद्रा खर्च हो गई है । इतने बडे अन्नसंकट का कारण है, कोरोना । देश के पर्यटन व्यवसाय पर हुआ परिणाम, कच्चे तेल की कीमत में हुई बढोतरी आदि के साथ-साथ एक और बडा कारण चर्चा में है । वास्तव में श्रीलंका सरकार देश के पूरे कृषि क्षेत्र में जैविक खेती करना चाहती है । रासायनिक खाद एवं कीटकनाशकों के बढते उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के लिए श्रीलंका सरकार ने मई माह में उनके आयात पर प्रतिबंध लगाए हैं । सरकार द्वारा अचानक प्रतिबंध लगाने से वहां के किसान अप्रसन्न हैं । सरकार का निषेध करने कुछ किसानों ने फसल ही नहीं उगाई । जिन्होंने उगाई, उन्हें रासायनिक खाद के अभाव में अल्प उपज मिली । रासायनिक खाद से अल्प अवधि में अधिक उत्पादन होता है । फसलों पर रसायनों के छिडकाव से भले ही तात्कालिक लाभ होता है, परंतु इसके भूमि बंजर होना, रसायनों के अंश से स्वास्थ्य संबंधी दुष्परिणाम जैसे भीषण दुष्प्रभाव हैं । वास्तव में जैविक खेती से भी भारी उत्पादन हो सकता है । रासायनिक खाद के विपरीत वह पर्यावरणपूरक उत्पाद है । कहा जा रहा है कि श्रीलंका के किसान जैविक खेती से अधिक उत्पादन नहीं कर पा रहे, इसलिए देश में अन्न की कमतरता हो रही है । शाक-तरकारी के भाव आसमान छू रहे हैं । श्रीलंका से जो माल निर्यात होता है, उसमें चाय का उत्पादन १० प्रतिशत है । रासायनिक खाद का उपयोग न करने के कारण चाय का कुल उत्पादन तथा निर्यात घट गया है । चावल एवं अन्य अनाज का उत्पादन घटने से अब उसे अन्य देशों से आयात करना पड रहा है । उसमें विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है । चीन ने इससे पहले ही श्रीलंका को विकास के नाम पर कर्ज तले दबा दिया है । एक ओर विविध देशों का कर्ज, दूसरी ओर देश के उत्पादन में कमी, कोरोना महामारी, उसका पर्यटन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र पर हुआ परिणाम इन सभी के परिणामस्वरूप आज श्रीलंका की यह स्थिति है । श्रीलंका में मंहगाई इतनी बढ गई है कि ५ लाख से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जा सकते हैं ।

 

जैविक खेती के लिए कालबद्ध कार्यक्रम चाहिए !

वहां के विशेषज्ञ कह रहे हैं ‘सरकार द्वारा एकाएक लिया जैविक खेती का निर्णय उचित नहीं था ।’ ‘श्रीलंका में रासायनिक खेती से संपूर्ण जैविक खेती की ओर बढने के लिए कम से कम ३ वर्ष तो आवश्यक हैं ।’ भूटान में भी रासायनिक खाद के अभाव में उत्पादन घट गया । इस कारण उसे भी अनाज अन्य देशों से आयात करना पडा । तथापि इन देशों को रासायनिक खाद से हो रही हानि का भान हुआ है और वे कुछ कर रहे हैं । उनका उद्देश्य अच्छा है ; परंतु प्रयत्न अल्प पड गए । उनके पास प्राकृतिक पद्धति से खेती करके भरपूर और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन का तंत्र समझ में आ रहा है; परंतु एकाएक निर्णय न लेते हुए चरण-दर-चरण निर्णय लिया होता और साथ ही जैविक खेती का प्रशिक्षण, सामान्य किसानों को दिया होता, तो आज श्रीलंका स्वास्थ्यवर्धक अनाज उगाने में अग्रणी होता । अभी भी रासायनिक खाद हटाने के लिए कालबद्ध कार्यक्रम निर्धारित किया जा सकता है । श्रीलंका ने भारत से अन्न आयात करने के लिए कर्ज की मांग की है । वह जैविक खेती के विषय में मार्गदर्शन भी मांगे, तो इसमें भारतीय किसान बंधु भी आनंद से सहभागी होंगे ।

 

भारत सीखे !

इस सबसे भारत भी बहुत-कुछ सीख सकता है । भारत में भी रासायनिक खाद का उपयोग बढ गया है । श्रीलंका, भूटान जैसे छोटे देशों को जो समझ में आता है, वह हमारे जैसे महाकाय देश को कब समझ में आएगा ? भारत में पहले से ही प्राकृतिक, अर्थात जैविक खेती ही की जाती थी । आज भी प्राकृतिक पद्धति से खेती करके गुणवत्तापूर्ण उत्पादन करनेवाले अनेक किसान हैं । हमने अल्प श्रम में अधिक उत्पादन करने के लोभ में पश्चिमी देशों की भांति रासायनिक खाद का उपयोग आरंभ किया । हमें भी कभी न कभी तो रासायनिक खाद का उपयोग रोकने का कठोर निर्णय लेना ही होगा । देश की जनता को स्वास्थ्यवर्धक अन्न दिलाने के लिए श्रीलंका सरकार इतनी हानि उठा सकती है, तो फिर हम अपनी प्राचीन पद्धति का प्रसार करने से पीछे क्यों हट रहे हैं ? सरकार ने अनेक क्षेत्रों में प्राचीन शास्त्र को पुनर्जीवित करने के प्रयत्न किए हैं । इसलिए ये मूलभूत परिवर्तन भी शीघ्र ही देखने मिलेंगे, ऐसी अपेक्षा है !

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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