झारखंड स्थित विश्वविख्यात श्री छिन्नमस्तिका देवी का अति प्राचीन मंदिर !

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श्री छिन्नमस्तिका देवी का मंदिरझारखंड की राजधानी रांची से ८० किलोमीटर दूर रामगढ जनपद के रजरप्पा गांव में श्री छिन्नमस्तिका देवी का विश्वविख्यात मंदिर है । भारत के अनेक प्राचीन मंदिरों में एक  यह मंदिर, भैरवी तथा दामोदर इन नदियों के संगम पर स्थित है ।

१. मंदिर स्थापना का इतिहास

इस मंदिर की स्थापना ६ सहस्त्र वर्ष पहले हुई । भारत में मुगल शासनकाल में अनेक बार  मंदिर तोडने का प्रयास किया गया; किंतु वह सफल नहीं हुआ । भारत में जब अंग्रेजों की सत्ता थी, तब वे देवी के दर्शन हेतु आते थे ।

 

२. श्री छिन्नमस्तिका देवी की प्रतिमा !

मंदिर में देवी की प्रतिमा स्वयंभू है । मंदिर की रचना गोलाकार है । मंदिर का प्रवेश द्वार पूरब में है । देवी की प्रतिमा का मुख दक्षिण दिशा में है । मंदिर में उत्तर दिशा में स्थित शिला पर देवी के त्रिनेत्र हैं । देवी के गले में सर्पमाला तथा मुंडमाला है । यह देवी असुरोंका नाश करनेवाली है । देवी के बाल खुले हैं । उसकी जीभ मुख के बाहर है । देवी के दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही सिर है । इसके दोनों ओर ‘डाकीनी’ तथा ‘शाकीनी’ देवियां खडी हैं । देवी के शरीर से रक्त की तीन धाराएं निकलती हैं । दो धाराएं ‘डाकीनी’ तथा ‘शाकीनी’ देवियां पीती हैं और तीसरी धारा श्री छिन्नमस्तिका देवी पीती हैं ।

 

३. मंदिर की कुछ अन्य विशेषताएं

१. पूर्णिमा तथा अमावस्या पर यह मंदिर देर रात तक खुला रहता है ।

२. आसाम की कामाख्या देवी तथा बंगाल की तारा देवी के पश्चात झारखंडकी श्री छिन्नमस्तिका देवी का मंदिर है । यह मंदिर तांत्रिक साधना करनेवालों का मुख्य स्थान है ।

३. देश-विदेश के अनेक भक्त नवरात्रि में तथा प्रत्येक अमावस्या की रात्रि में देवी के दर्शन हेतु आते हैं ।

४. मंदिर के सामने बलि चढाने का स्थान है । यहां देवी को प्रतिदिन बकरे की बलि चढाई जाती है । इसमें आश्चर्य की बात यह है कि वहां बलि देने के स्थान पर एक भी मक्खी नहीं आती ।

५. मंदिर के सामने पापनाशिनी कुंड है । श्रद्धालुओं की श्रद्धा है कि जो रोगी इस कुंड में स्नान करता है, वह रोगमुक्त हो जाता है ।

(संदर्भ : ‘भारत डिस्कवरी’ का संकेतस्थल )

 

४. श्री छिन्नमस्तिका देवी की उत्पत्ति

सहस्रों वर्ष पहले जब राक्षस और दानवों से मानव तथा देवता भयभीत थे, तब पीडित मानव ने देवी को पुकारा । उस समय पार्वती माता श्री छिन्नमस्तिका देवीके रूप में प्रकट हुई तथा उन्होंने खड्ग से असुरों का संहार किया । यह देवी अन्न-पानी लेना भूल गई और केवल असुरों का संहार करती रही । इससे, पृथ्वी पर रक्त की नदियां बहने लगीं । पृथ्वी पर हाहाःकार मच गया । देवी ने प्रचंड रूप धारण किया था । इसलिए, देवी का नाम ‘प्रचण्डचण्डिका’ पडा । दुष्टों के संहार के पश्चात् भी देवी का क्रोध शांत नहीं हो रहा था । तब भयभीत देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की,‘हे महादेव ! देवी के प्रचंड रूप को शांत करें, अन्यथा पृथ्वी नष्ट हो जाएगी ।’ देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव देवी के पास गए । देवी ने भगवान शिव से पूछा, ‘हे देवता, मैं बहुत भूखी हूं । भूख शांत करने के लिएमैं क्या करूं ?’’  भगवान शिव ने कहा, ‘‘हे देवी, आप संपूर्ण ब्रह्यांड की माता हैं । आप शक्तिस्वरूपा हैं । अपनी गर्दनखड्ग से काटकर, उससे बहनेवाले रक्त को जब आप पीएंगी, तब आपकी भूख शांत होगी ।’’ यह सुनकर देवी ने तुरंत अपनी गर्दन काटकर, सिर बाएं हाथ में लिया । गर्दन से रक्त की तीन धाराएं बहने लगीं । देवी के बाएं तथा दाएं खडी शाकिनी तथा डाकीनी देवियों ने दो रक्तधाराओं का तथा तीसरी रक्तधारा का पान स्वयं देवी ने किया । तब देवी की भूख शांत हुई ।

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