परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शनानुसार श्री गणेशमूर्ति बनाते समय मूर्तिकार साधक श्री गुरुदास खंडेपारकर को सीखने के लिए मिले सूत्र

श्री. गुरुदास खंडेपारकरजी को मार्गदर्शन करते हुए प.पू. डॉ. आठवले (२००५)

१. प्रतीत हुआ कि ‘परम पूज्य डॉक्टरजी गणपति हैं ।’

अ. ‘परम पूज्य डॉक्टरजी स्वयं गणपतिस्वरूप हैं और वे मूर्ति में सुधार-संबंधी बातें बता रहे हैं’, ऐसा लगना : सात्विक गणेशमूर्ति निर्माण के समय परम पूज्य डॉक्टरजी मुझे मूर्ति में सुधार के विषय में बताते रहते थे । जब वे मुझे मार्गदर्शन करते थे, तब लगता था कि ‘परम पूज्य डॉक्टरजी गणपति हैं और गणपति  ही अपनी मूर्ति बनाने के विषय में मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं ।’

 

२. सहजता से स्वीकारे गए परम
पूज्य डॉक्टरजी के मूर्ति निर्माण के सुझाव

अ. व्यवसाय के रूप में काम करते समय दूसरों के बताए हुए सुधार न स्वीकार पाना; पर, परम पूज्य डॉक्टरजी के सुझाए हुए सब सुझाव तुरंत स्वीकार पाना : गणेशजी की सात्त्विक मूर्ति बनाते समय परम पूज्य डॉक्टरजी मूर्तिनिर्माण के प्रत्येक चरण में अनेक सुधार बताते थे । तब, मुझे लगता था कि ये ठीक कह रहे हैं और इनके बताए अनुसार सुधार कर, मूर्ति बनानी चाहिए ।’ इसलिए, मूर्ति में अनेक सुधार करना पडा । फिर भी, केवल उन्हीं की कृपा से मूर्ति को अधिकाधिक सात्त्विक बनाने के लिए प्रयत्न हो पाए ।

आ. गोवा के मूर्तिकारों के मूर्ति में सुधार के सुझाव परम पूज्य डॉक्टरजी को उचित लगना और उन्होंने उसके अनुसार सुधार करने की स्वीकृति देना : एक बार गोवा के एक मूर्तिकार मेरी बनाई हुई श्री गणेशमूर्ति देखने आए थे । मूर्ति देखकर उन्होंने मुझे सुझाया कि ‘गणेशजी के दोनों चरण दिखने चाहिए ।’ उस समय मुझे लगा कि ‘परम पूज्य डॉक्टरजी ही सुधार करने का सुझाव दे रहे हैं ।’ पश्‍चात, मैंने उनसे इस विषय में पूछा, तब उन्हें वह सुझाव अच्छा लगा और उन्होंने वैसा करने के लिए कहा भी । उन्होंने कहा , ‘‘इस परिवर्तन से, मूर्ति के दर्शन करनेवालों को श्री गणपति का चैतन्य अधिक मात्रा में मिलेगा ।’’ उस समय मुझे लगा कि ‘मुझमें स्वीकारने और पूछ-पूछ कर करने का गुण बढाने के लिए ही परम पूज्य डॉक्टरजी ने यह प्रसंग निर्माण किया ।’ इस घटना से उनके प्रति कृतज्ञता का बोध हुआ ।

 

३. श्री गणेशमूर्ति को अधिकाधिक सात्त्विक बने इस
हेतु परम पूज्य डॉक्टरजी का स्पंदनों के विषय में अध्ययन !

श्री गणेशमूर्ति का निरीक्षण करते समय परम पूज्य डॉक्टरजी मूर्ति बनाने का उपकरण मूर्ति के एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाते थे । बीच में कोई रुकावट लगने पर, वे मूर्ति के संबंधित स्थान पर चिन्ह करते और उसके अगले भाग की जांच करते । कुछ समय पश्‍चात, पहले जहां चिन्ह किया होगा, वहां आकर वहां से निकलनेवाले स्पंदनों को परखते । उसके अनुसार वे मूर्ति में परिवर्तन करने के लिए कहते । इससे मूर्ति अधिकाधिक सुंदर बनने के साथ-साथ उससे गणेशतत्व भी अधिक प्रक्षेपित होने लगा । इससे सीखने के लिए मिला कि ‘सेवा करते समय उसकी जांच बीच-बीच में करते रहने से वह उत्तम होने में सहायता होती है ।’

– श्री गुरुदास सदानंद खंडेपारकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा 

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