श्रीविष्णु

श्रीविषणु
श्रीविष्णु

ईश्वर ने प्रजापति, ब्रह्मा, शिव, विष्णु एवं मीनाक्षी, इन पांच देवताओं से (तत्त्वों से) विश्व की निर्मिति की । इन पांच देवताओं में ईश्वर की सर्व विशेषताएं हैं, इसके अतिरिक्त उनमें अपनी-अपनी विशेषताएं भी हैं । वैष्णवपंथियों के शेषशायी, अनंतशयनी श्रीविष्णु अर्थात श्रीविष्णु का निर्गुण रूप ही परमेश्वर है, ‘महाविष्णु’ है । उनके लिए भक्तवत्सल श्रीविष्णु ही ‘ईश्वर’ है; एवं लक्ष्मीसहित विष्णु ‘माया’ है । ‘महा’ अर्थात निराकारता अथवा संपूर्ण ब्रह्मांड । विशिष्ट रूप के अनुसार उसकी विशेषताएं होती हैं । श्रीविष्णु की अन्य विशेषताएं आगे दिए अनुसार हैं ।

 

१. व्युत्पत्ति एवं अर्थ

अ. ‘विष् अर्थात निरंतर क्रियाशील रहना, इसी से यास्क ने विष्णु शब्द की व्हृाुत्पत्ति की है (निरुक्त, अध्याय १२, खण्ड १९) ।

आ. ‘विश् अर्थात व्याप्त होना’ से भी ‘विष्णु’ शब्द के सिद्ध होने का पर्याय यास्क ने दिया है । विष्णु का अर्थ व्यापक अथवा व्यापनशील बताकर सायणाचार्य ने भी समर्थन किया है । (ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त १५४, ऋचा १, ५ पर सायणाभाष्य) ।

विष्णुसहस्रनाम में एक स्थान पर इसी अर्थ को स्वीकारते हुए कहा है, ‘चराचरेषु भूतेषु वेशनाद्विष्णुरूच्यते ।’ अर्थात ‘चराचर भूतों में प्रविष्ट होने के कारण उसे विष्णु कहते हैं ।’

इ. ‘वेवेष्टि इति विष्णुः ।’, अर्थात जो संपूर्ण विश्व को व्याप लेता है, वह विष्णु है ।

ई. ‘विशेषेण स्नौति वा विशेषेण गच्छति इति विष्णुः ।’, स्नौति अर्थात द्रवित होना अथवा प्रेमार्द्रता । जिनके मनमें भक्तों के लिए भरपूर दया उमडती है अथवा जिनके मन में भक्तों के प्रति प्रेमार्द्रता होती है, वे विष्णु हैं । अथवा जो विशेष प्रकार से गमन करते हैं (गच्छति) अर्थात जो सर्वत्र सदैव जाते रहते हैं, जिनका संपूर्ण विश्वमें सर्वत्र संचार है वे विष्णु हैं ।

 

२. कुछ अन्य नाम

विष्णु का ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र प्रसिद्ध है । इन सहस्र नामों का उच्चारण करते हुए श्रीविष्णु को तुलसीपत्र अथवा कमल अर्पित करते हैं ।

विष्णुसहस्रनाम में से कौन से नाम का जप कब करें ?

औषधे चिन्तयेद्विष्णुं भोजने च जनार्दनम् ।
शयने पद्मनाभं च विवाहे च प्रजापतिम् ॥ १ ॥

युद्धे चक्रधरं देवं प्रवासे च त्रिविक्रमम् ।
नारायणं तनुत्यागे श्रीधरं प्रियसंगमे ॥ २ ॥

दुःस्वप्ने स्मर गोविन्दं संकटे मधुसूदनम् ।
कानने नारसिंहं च पावके जलशायिनम् ॥ ३ ॥

जलमध्ये वराहं च पर्वते रघुनन्दनम् ।
गमने वामनं चैव सर्वकार्येषु माधवम् ॥ ४ ॥

अर्थ : औषधि लेते समय श्रीविष्णु का स्मरण करें । भोजन करते समय जनार्दन का, सोते समय पद्मनाभ का, विवाह के समय प्रजापति का, युद्ध के समय चक्रधर देवता (श्रीविष्णु / श्रीकृष्ण) का, प्रवास में त्रिविक्रम का, मृत्यु के समय नारायण का, पतिपत्नी के समागमपर श्रीधर का, बुरे स्वप्न आते हों तो गोविंद का, संकट में मधुसूदन का, जंगल में नरसिंह का, अग्नि से भय हो तो क्षीरसागर में विराजमान श्रीविष्णु का, पानी में डूबने का भय हो तो वराहका (वराह अवतार का), पर्वत से गिरने का भय होने पर रघुनंदन का, चलते-फिरते अथवा कोई भी कार्य करते समय माधव का स्मरण करें ।

२ अ. भगवान

ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान एवं वैराग्य, इन षड्गुणोंको ‘भग’ कहा जाता है । जो इन गुणों से सुसंपन्न हो, उन्हें ‘भगवान’ कहते हैं । भागवत संप्रदाय में श्रीकृष्ण एवं श्रीविष्णु को भगवान कहते हैं ।

२ आ. नारायण

१. शेषशायी

‘ये नारायणका एक स्वरूप हैं । ये नागपर शयन करते हैं और नाग पाताल का राजा है । ‘पाताळम्’ शब्द में जो ‘आळम्’ शब्द है, वह तमिल भाषा से है तथा उसका अर्थ है ‘पानी’ । संस्कृत में पानी को ‘आलम्’ नहीं कहते ।

२. नर-नारायण

‘दक्षकन्या मूर्ति एवं धर्म ऋषि को श्रीविष्णु के अंश से हुए दो पुत्र । इनका निवासस्थान बद्रिकाश्रम है । यही आगे अर्जुन और श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए ।’ (श्रीमद्भागवत) नरसिंह के मानवी भाग से नर एवं सिंह मुख से नारायण निर्माण हुए हैं (कालिकापुराण, अध्याय २९) ।

३. नवनारायण एवं नवनाथ

नवनारायण विश्वकुंडलिनी के नव-नागों का पोषण करते हैं । ‘नवनाथ अर्थात नाथसंप्रदाय की नौ सिद्धियों का समूह । नवनाथ और वे जिनके अवतार हैं, उन नवनारायणों की जोडियां ‘नवनाथभक्तिसार’ ग्रंथमें बताई गई हैं ।

४. नारायणमूर्ति

‘नारायण को शिव का ही एक रूप समझा जाता था । नारायण के शिव से अभिन्नत्व की कल्पना शिवसमुद्रम्, श्रीरंगम् और श्रीरंगपट्टणम्, इन स्थानों में नारायण की मूर्ति देखने से ज्ञात होता है । दक्षिण में नारायण को ही श्रीरंग अथवा रंगनाथ कहते हैं । नारायण की मूर्ति की विशेषता यह है कि, वह सदैव लेटी हुई होती है । ‘लेटी हुई’ का अर्थ निद्रित नहीं; क्योंकि उसकी आंखें अधखुली होती हैं ।’

२ इ. किरीटधारी

किरीट अर्थात मुकुट । अत्युच्च स्तर के देवताओं में शिव मुकुट धारण नहीं करते । इस संदर्भ में श्रीविष्णु को ‘किरीटधारी’ कहा गया है ।

२ ई. लक्ष्मीपति

श्रीविष्णु के स्त्रीरूप को लक्ष्मी कहते हैं । लक्ष्मी का अर्थ है एकाग्रता । एकाग्रता द्वारा जिसे प्राप्त किया जा सकता है, वह है लक्ष्मीपति ।

२ उ. हरि एवं श्रीहरि

१. हरि

‘यस्य अनुग्रह्य इच्छामि तस्य सर्वं हराम्यहम् ।’

अर्थ : जिसपर मैं कृपा करता हूं, उसका मैं (दुःख सहित) सर्वस्व हरण करता हूं (इसलिए मेरा नाम हरि है) ।

२. श्रीहरि

श्री अर्थात शक्ति, सौंदर्य, सद्गुण इत्यादि । विष्णु का श्रीसहित रूप अर्थात ‘श्रीहरि’ ।

 

३. कार्य एवं विशेषताएं

३ अ. अन्नरसदेवता (प्राणिमात्रका पोषण करनेवाले)

अन्न – अद् — जो भूतमात्र का भक्षण करते हैं एवं जिन्हें भूतमात्र भक्षण करते हैं, उसे ‘अन्न’ कहते हैं । ‘ओषधं अन्नम् ।’, ‘ओषधे चिन्तयेत् विष्णुम् ।’, इस प्रकार के वचन हैं । ‘ओषध’ अर्थात अन्न, ‘ओषं’ अर्थात ओज एवं ध-धृ अर्थात धारण करना । ओषध अर्थात ओज को शरीर में धारण करना । विष्णुसहस्र नाममें विष्णु के बताए गए एक सहस्र नामों में एक नाम ‘वैद्य’ भी है ।

३ आ. भक्तवत्सल

‘पुराणकारों ने श्रीविष्णु की भक्तवत्सलता को सुंदर स्वरूप दिया । गजेंद्रमोक्ष के लिए वे ही दौडे आए । देवता-दैत्य संघर्ष में देवताओं को अमृत दिलवाने हेतु, वे ही मोहिनी के रूप में प्रकट हुए । उन्होंने ही ध्रुव को अडिग पद प्रदान किया । प्रह्लाद के लिए स्तंभ से नृसिंह रूप में वे ही प्रकट हुए । जब दुर्वास मुनि ने विष्णु के एकांत भक्त अंबरीष को शाप दिया कि उसे दस जन्म और लेने पडेंगे, तब अपने भक्त के हित के लिए भगवान ने वह शाप अपने ऊपर ले लिया । अपने परमभक्तों का योगक्षेम उन्होंने ही निभाया ।’

३ इ. सतत वचन देनेवाले एवं पालन करनेवाले

१. न मे भक्तः प्रणश्यति । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्‍लोक ३१

अर्थ : मेरे भक्त का कदापि नाश नहीं होता ।

२. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्‍लोक ७

अर्थ : जब-जब धर्म की ग्लानि होती है (अर्थात लोग धर्माचरण नहीं करते) तथा अधर्म का बल बढ जाता है, तब मैं अपनेआप को प्रकट करता हूं ।

३ ई. विश्व का समतोल रखनेवाले

कलियुग में मानव की प्रवृत्ति अधिक तमप्रधान हो गई है, अतएव विश्व का समतोल रखने के लिए सत्त्वगुण का बढना आवश्यक है । ऐसे में भक्ति बढाने एवं तमोगुण घटाने हेतु दुर्जनों के नाश का कार्य
श्रीविष्णु करते हैं ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्‍लोक ८

अर्थ : सज्जनों के संरक्षण हेतु, दुर्जनों के विनाश हेतु एवं धर्म की संस्थापना करने हेतु, मैं युग-युग में अवतार लेता हूं ।

३ ऊ. सर्वप्रथम गुरु

गुरु-शिष्य परंपरा श्रीविष्णु से आरंभ हुई । ब्रह्मदेव के पुत्र नारद प्रथम शिष्य थे तथा नारायण प्रथम गुरु थे । शिष्य को मोक्षकी प्राप्ति करवाना ही गुरुका कार्य है । इसलिए कहा गया है कि ‘ज्ञानम् इच्छेत् सदाशिवात् मोक्षम् इच्छेत् जनार्दनात् ।’, अर्थात सदाशिव से ज्ञान की एवं जनार्दन अर्थात श्रीविष्णु से मोक्ष की इच्छा करें । (शैव संप्रदायानुसार गुरु-शिष्य परंपरा शिव से आरंभ हुई । शिव के प्रथम शिष्य श्रीविष्णु अथवा पार्वती हैं ।)

३ ए. घन एवं द्रव औषधियों का वायु-औषधि में रूपांतर करनेवाले

‘बृहद् निघंटु रत्नाकर’ ग्रंथमें आयुर्वेद विषयक जानकारी दी है । उसमें औषधियों के पांच प्रकार बताए गए हैं : १. तृणौषधि, २. वनौषधि, ३. जीवौषधि (प्राणिज, उदा. मूंगा), ४. जलौषधि एवं ५. भू-औषधि । श्रीविष्णु इन सर्व प्रकार की औषधियों का रूपांतर वायु-औषधि में करते हैं । इस कारण घन एवं द्रव औषधियां रक्त में शीघ्र मिश्रित हो जाती हैं तथा कोशिकाओं में शीघ्र प्रवेश कर सकती हैं । वायु-औषधि केवल सूंघने मात्र से शरीर द्वारा शोषित की जाती हैं ।

३ ऐ. शारीरिक विशेषताएं

१. वर्ण : नीला । ध्यान में दिखाई देनेवाली नीलबिंदु का एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म नीले जल का रंग विष्णु की नीली छटा का ही है ।

२. श्रीवत्सलांछन : श्रीविष्णुके हृदयपर जो श्वेत रंगका केशयुक्त भंवरा है, उसे ‘श्रीवत्सलांछन’ कहते हैं ।

३. कटिवस्त्र : पितांबर (पीत – पीले रंग का) ।

 

४. उपासनाविधि

वेदकाल से श्रीविष्णु की पूजा प्रचलित है । सबसे महान वैष्णव हैं शिव एवं सबसे महान शैव हैं विष्णु; क्योंकि वे एक-दूसरे की उपासना करते हैं ।

४ अ. वैष्णवतंत्र अनुशासनानुसार

‘अन्य देवताओं के समान ही श्रीविष्णु की भी षोडशोपचार पूजा की जाती है । विष्णुपूजा में तुलसीदल आवश्यक होते हैं; कमल मिल जाए तो अति उत्तम । खीर अथवा हलवा श्रीविष्णु का प्रिय नैवेद्य है । श्रीविष्णु का विशेष पूजाविधान इस प्रकार है – प्रत्येक माह विभिन्न नामों से वर्षभर पूजा करें । पूजा की तिथि द्वादशी हो । मार्गशीर्षादि गणना अनुसार मार्गशीर्ष में केशव, पौष में नारायण, माघ में माधव, फाल्गुन में गोविंद, चैत्र में श्रीविष्णु, वैशाख में मधुसूदन, ज्येष्ठ में त्रिविक्रम, आषाढ में वामन, श्रावण में श्रीधर, भाद्रपद में हृषिकेश, आश्विन मास में पद्मनाभ एवं कार्तिक मास में दामोदर के नामों से श्रीविष्णु को पूजें ।

स्वर्ण की मूर्ति बनाकर, उसे श्वेत वस्त्र में लपेटकर कलश पर स्थापित करें । ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’ के द्वादशाक्षरी मंत्र से उपचार (शृंगार) समर्पित करें ।’ प्रत्येक माह पुष्प एवं फल भिन्न हों ।’

तुलसीदल के बिना श्रीविष्णु की पूजा व्यर्थ सिद्ध होती है । तुलसीपत्र रखे बिना या तुलसीपत्र से प्रोक्षण किए बिना विष्णु नैवेद्य ग्रहण नहीं करते ।

१. यथा हरिस्तथा हरः ।

अर्थ : जैसे विष्णु वैसे शिव ।

पूजा के संदर्भ में यह साम्य इस प्रकार है : कालानुसार वस्तु के गुणधर्म भी परिवर्तित होते हैं । कार्तिकी एकादशी पर तुलसी में शिव के पवित्रक एवं बेल में श्रीविष्णु के पवित्रक आकर्षित करने की क्षमता निर्माण होती है, इसी कारण उस दिन शिव को तुलसी एवं श्रीविष्णु को बेल अर्पित करते हैं । मानसशास्त्रीय भाषा में इसका विवरण है – हरिहर के अद्वैत को दर्शाना ।

४ आ. एकादशी व्रत

एकादशी श्रीविष्णु की तिथि है । इसे ‘हरिदिनी’ भी कहते हैं । जब पंद्रह दिनों में दो दिन एकादशी आती हैं, तब पहली एकादशी शैव सांप्रदायिक स्मार्त एकादशी एवं दूसरी एकादशी वैष्णव सांप्रदायिक ‘भागवत एकादशी’ समझी जाती है । प्रत्येक माहमें दो एकादशी; वर्षमें चौबीस एकादशियां आती हैं । एकादशीका व्रत, अन्य व्रतोंके अनुसार संकल्पद्वारा विधिपूर्वक आरंभ करना आवश्यक नहीं । इस व्रतके अत्यधिक महत्त्वका कारण आगे दिए अनुसार है – एकादशीपर सर्व प्राणिमात्रकी सात्त्विकता सर्वाधिक होती है । एकादशीपर बिना कुछ खाए केवल पानी एवं सोंठ-चीनी ग्रहण करना सर्वोत्तम है । यह संभव न हो, तो उपवासके पदार्थ खाएं । एकादशीपर उपवास रख, अगले दिन पारण करते हैं ।

१. आषाढ माह की एकादशी

आषाढ माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी (देवताओं की निद्रा की) एवं कृष्ण पक्ष की एकादशी को कामिका एकादशी कहते हैं । इन दोनों तिथियों पर ‘श्रीधर’ के नामसे श्रीविष्णु की पूजा कर, दिन-रात घी का दीप जलाने की विधि की जाती है ।

१ अ. पंढरपुर की नियमित यात्रा (वारी)

यह व्रत आषाढ शुक्ल एकादशी से रखा जाता है । वैष्णवों में ‘वारकरी’ एक प्रमुख संप्रदाय है । इस संप्रदाय में वार्षिक, छः मास की दीक्षा ली गई हो, तो उसके अनुसार नियमित यात्रा भी करते हैं । ऐसी मान्यता है कि इस पैदल यात्रासे शारीरिक तप होता है ।

४ ई. श्रीसत्यनारायण पूजा

यह एक प्रचलित काम्य व्रत है । बताया गया है, ‘मन में भक्ति और श्रद्धा हो, तो किसी भी दिन श्रीसत्यनारायण की पूजा कर सकते हैं ।’ पूर्णिमा, अमावस्या एवं संक्रांति की तिथियां इस व्रत के लिए अधिक इष्ट हैं । पूजा का समय मुख्यतः सूर्यास्तके समय, अर्थात गोरज मुहूर्तपर हो, तो अधिक श्रेयस्कर; तथापि प्रातःकालीन पूजा भी उचित ही है । पूजा सायंकाल में हो, तो उस दिन पूजक उपवास करें । पूजा के पूर्व स्नान कर कुमकुमतिलक लगाएं । संभवतः पूजा के दौरान, पूर्व दिशा के सम्मुख बैठें; दक्षिण दिशा के सम्मुख न बैठें । पूजा के दौरान विष्णुसहस्रनाम का प्रत्येक नाम लेते समय श्रीविष्णु को एक-एक तुलसीपत्र अर्पित करें । १००० तुलसीपत्र उपलब्ध न हों, तो १०८ अर्पित करते हैं ।

४ उ. विष्णुयाग

‘श्रीविष्णु जगत को धारण करनेवाले देवता हैं । पापक्षय एवं कामनापूर्ति के लिए विष्णुयाग का विधान बताया गया है । ऋग्विधान में इसका विधान बताया गया है । इसमें श्रीविष्णु के लिए आहुतियों का हवन करते समय, पुरुषसूक्त की प्रत्येक ऋचा के अंत में ‘नारायणाय स्वाहाः’ कहे ।

४ ऊ. विष्णुसहस्रनाम का पाठ

एक सौ सात श्लोकों का ‘विष्णुसहस्रनामस्तोत्र’ महाभारत के अनुशासनपर्व में समाविष्ट है तथा उसमें श्रीविष्णु के एक सहस्र नाम दिए गए हैं । इसका नित्य पाठ करनेवालों को धर्म, अर्थ और काम के तीन पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं, ऐसा आश्वासन महाभारत में दिया गया है । (महाभारत, पर्व १३, अध्याय १३५, श्‍लोक १२४)’

४ ए. कुछ मंत्र

४ ऐ १. ‘हरे राम हरे राम…. हरे हरे ।’ जप

कलिसंतरणोपनिषद् कृष्णयजुर्वेद में है तथा इसे ‘हरिनामोपनिषद्’ भी कहते हैं । यह उपनिषद् द्वापरयुग के अंत में ब्रह्मदेव ने नारद को सुनाया । इसका सारांश यह है कि नारायण के नाममात्र से कलिदोष नष्ट होते हैं । यह नाम सोलह शब्दों से बना है –

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥

ये सोलह शब्द जीव के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सोलह कलाओं से (अवस्थाओं से) संबंधित हैं एवं यह मंत्र आत्मा के आसपास के माया के आवरण का अर्थात जीव के आवरण का नाश करता है । कुछ कृष्णसंप्रदायी मंत्र के दूसरे चरण का उच्चारण प्रथम करते हैं एवं तत्पश्चात पहले चरण का करते हैं ।

४ ऐ २. ‘ॐ नमो नारायणाय’, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ एरां ‘ॐ नमो रामाय’

ये ‘क्रियायोगसार’ वैष्णव उपपुराण में से हैं । ‘ॐ नमा नारायणाय’ के अष्टाक्षरी मंत्र को ‘नारायणमंत्र’ कहा गया है । इसे मंत्रराज भी कहते हैं । नारायणमंत्र को श्रीविष्णु के आठ दृश्यरूपों का अर्थात पंचमहाभूत, सूर्य, चंद्र एवं यज्ञकर्ता यजमान का; साथ ही ओंकार की आठ मात्राओं का भी प्रतीक मानते हैं । वैष्णव संत रामानुजाचार्य ने इसी मंत्र की दीक्षा ली थी ।’

४ ऐ ३. विष्णुगायत्री

नारायणाय विद्महे । वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

अर्थ : हम नारायण को जानते हैं । वासुदेव का ध्यान करते हैं । वे विष्णु हमारी बुद्धि को सत्प्रेरणा दें ।

४ ओ. गंध (चंदन)

ईश्वरसे (ऊपरी दिशा से) आनेवाली १०८ (नारायण) तरंगों के प्रतीकरूप, वैष्णव शीर्षाभिमुख (खडा) गंध तिलक लगाते हैं ।

 

५. दशावतार

अवतारों के कार्य अथवा कारण, अवतारों के प्रकार, विशेषताएं इत्यादि की सर्व जानकारी सनातन के अन्य ग्रंथ में दी गई है । यहां केवल श्रीविष्णु के अवतारों में से प्रमुख दशावतारों की जानकारी दी है ।

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६. कालानुसार आवश्यक उपासना

आध्यात्मिक उन्नति हेतु स्वयं उपासना एवं धर्माचरण करना ‘व्यष्टि साधना’ है । वर्तमान कलियुग में समाज की सात्त्विकता बढाने हेतु स्वयं साधना एवं धर्माचरण करने के साथ समाज को भी साधना एवं धर्माचरण करने हेतु प्रोत्साहित करना अनिवार्य हो जाता है । इसी को ‘समष्टि साधना’ कहते हैं । श्रीविष्णु की उपासना को पूर्णत्व प्राप्त होने के लिए विष्णुभक्तों द्वारा व्यष्टि एवं समष्टि, ऐसे दोनों स्तरोंपर साधना करना आवश्यक है ।

६ अ. श्रीविष्णु की उपासना के विषय में समाज को धर्मशिक्षा देना

अधिकांश हिंदुओं को अपने देवता, आचार, संस्कार, त्यौहार आदि विषयों के प्रति आदर एवं श्रद्धा होती है; परंतु उन्हें उपासना का अध्यात्मशास्त्रीय आधार ज्ञात नहीं होता । अध्यात्मशास्त्रीय आधार समझकर उचित धर्माचरण करने से फलप्राप्ति अधिक होती है । इसलिए श्रीविष्णु की उपासना में समाविष्ट विभिन्न कृत्य करने की उचित विधियां तथा उनके अध्यात्मशास्त्रीय आधारके संदर्भ में समाज को धर्मशिक्षा देने का यथाशक्ति प्रयास करना, विष्णुभक्तों के लिए कालानुसार आवश्यक श्रेष्ठ स्तर की समष्टि साधना है ।

६ आ. देवताओं का अनादर रोकना

आजकल विविध प्रकारों से देवताओं का अपमान किया जाता है, उदा. हिंदूद्वेषी चित्रकार म.फि. हुसेन कृत हिंदु देवताओं के नग्न चित्रों की सार्वजनिक बिक्री; व्याख्यान, पुस्तक इत्यादि के माध्यम से देवताओं पर टीका-टिप्पणी; देवताओं की वेशभूषा में भीख मांगना, व्यावसायिक हेतु से विज्ञापनों के लिए देवताओं का उपयोग ‘मौडेल’ के रूप में करना; नाटक-चलचित्रों में भी अत्यधिक (खुलेआम) अनादर करना । श्रद्धा, देवताओं की उपासना की नींव है । देवताओं का किसी भी प्रकार से अपमान श्रद्धा को प्रभावित करता है । इसलिए यह धर्महानि ही है । धर्महानि रोकना कालानुसार आवश्यक धर्मपालन ही है; वह देवता की समष्टि स्तर की उपासना ही है । इस उपासना के बिना देवता की उपासना पूर्ण हो ही नहीं सकती । अतः विष्णुभक्त भी देवताओं के अनादर के प्रति जागरूक होकर धर्महानि रोकें । ‘सनातन संस्था’ इस संदर्भ में वैधानिक मार्ग से कार्यरत है । आप सनातन के कार्य में सहभागी भी हो सकते हैं ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण’

॥ श्री विष्णवे नमः ॥

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