‘ॐ नमः शिवाय ।’ नामजप करते समय एवं करने के उपरांत हुई विशेष अनुभूति

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अनुक्रमणिका

 

१. संतों का मिला अविस्मरणीय सत्संग !

‘एक बार मुझे संत का सत्संग मिला । उस समय मैंने जो कुछ भी संत को बताया, वह उन्होंने मुझे तुरंत ही लिख कर देने के लिए कहा । अत: मैं उसे लिखकर दे रही हूं । यह सत्संग अविस्मरणीय था । मैं उनसे बोलते समय इतनी तन्मय हो गई थी कि ‘मैं कैसे बोल रही हूं ? वे शब्द मेरे मुख से कैसे बाहर निकल रहे थे ?’, मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा । मुझे अपने अस्तित्व का भी भान नहीं था । मैं सब अत्यंत सहजता से बोल पाई ।

कु. स्मितल भुजले

२. साधिका को स्वप्न में निरंतर भगवान शिव
एवं शिवपिंडी दिखाई देने का कारण उसकी गत जन्मों की
साधना होने से संत द्वारा उसे शिव की उपासना के लिए कहना

जनवरी २०१५ को मैं अपनी मां के साथ पहली बार रामनाथी आश्रम में आई । तब मैंने संत को बताया कि ‘‘मुझे स्वप्न में निरंतर भगवान शिव एवं शिवपिंडी दिखाई देती है । अब तक मैंने शिव से संबंधित कुछ भी उपासना नहीं की थी; तब भी ‘मुझे यह क्यों दिखाई दे रही है ?’, यह मुझे समझ में नहीं आ रहा ।’’ तब वे मुझसे बोले, ‘‘तुम्हारी यह गत जन्म की साधना है । तुम वही करो । जो तुम्हारे अंतर्मन में है, वही तुम्हें दिखाई दे रहा है ।’’ तब से वे शब्द मेरे मन पर अंकित हो गए ।

 

३. संतों क आज्ञानुसार ‘ॐ नमः शिवाय ।’ यह नामजप आरंभ करना

उस दिन से मैंने ‘ॐ नमः शिवाय ।’ यह नामजप करना आरंभ कर दिया । इससे मेरी भगवान शिव पर भक्ति में काफी वृद्धि हुई । उससे मुझे स्वयं में प्रतीत हुआ परिवर्तन और मुझे हुई अनुभूति यहां दे रहे हैं ।

३ अ. नामजप के संदर्भ में हुई अनुभूति

३ अ १. नामजप अपनेआप होकर श्वास से जोडा जाना, चलने की गति के साथ नामजप की गति में परिवर्तन एवं ‘अंदर से कोई तो नामजप कर रहा है और कानों में नामजप गूंज रहा है, ऐसा प्रतीत होना

अब मेरा नामजप अपनेआप होता है । मुझे उसका अलग से स्मरण नहीं करना पडता । धीरे-धीरे मेरा नामजप श्वास के साथ जुड गया । मेरा नामजप श्वास अंदर लेते समय ‘ॐ नमः’ और श्वास बाहर छोडते समय ‘शिवाय’ ऐसे होता है । कभी-कभी मैं श्वास जलद गति से लेती हूं, तो श्वास अंदर लेते समय ‘नमः’ एवं बाहर छोडते समय ‘शिवाय’ इतना ही होता है । इसलिए अब चलते समय भी नाम लिया जाता है । पहला कदम रखते ही ‘ॐ’, दूुसरे कदम रखने पर ‘नमः’ और तीसरे कदम रखते समय ‘शिवाय’ इसप्रकार से नामजप मेरे कदमों से जुड गया है । धीरे चलते समय नामजप अल्प गति से होता है और शीघ्र गति से चलते समय नामजप शीघ्र गति से होता है । जब मन में चल रहे विचार बंद हो जाएं अथवा बोलना रोक दिया जाए, तब तुरंत ही नामजप आरंभ हो जाता है । कभी-कभी तो ऐसी आवाज सुनाई देती है कि मानों अंदर से कोई नामजप कर रहा है’ अथवा ‘मेरे कानों में ही कोई नामजप बोल रहा है ।’

३ अ २. नींद में भी यह नामजप चलते रहना एवं मन निर्विचार होकर नामजप के अतिरिक्त अन्य किसी के भी अस्तित्व का भान न रहना

मैं जब सोती हूं, तब मुझे बहुत बार ऐसे लगता है जैसे ‘नींद में ही मेरे अंदर कोई नामजप कर रहा है ।’ नींद में नामजप चलते रहना । सवेरे उठने पर नाम अपनेआप मन में आता है । तब मुझे काफी निर्विचार लगता है । कभी-कभी यह नामजप बडे वेग से और मन:पूर्वक होता है । मुझे ऐसा लगता है जैसे ‘केवल उस नामजप के ६ अक्षर ही अस्तित्व में है और शेष किसी का भी अस्तित्व नहीं ।’ बिना कुछ बोले केवल ‘ॐ नमः शिवाय ।’ इतना ही शब्द उच्चारने का मन करता है । अनेक बार ऐसा भी लगता है कि , ‘श्वास बंद हो जाती है और केवल नामजप शुरू रहता है ।’ तब उस स्थिति से बाहर आने पर भान होता है कि ‘मैं श्वास नहीं ले रही थी ।’ ‘उस समय मैं श्वास के कारण नहीं, अपितु नामजप के कारण जीवित थी और अब प्रत्यक्ष में भी ऐसा ही है । नामजप रुक गया, तो मैं मर जाऊंगी’, ऐसे लगता है । मुझे लगता है जैसे ‘मेरे शरीर में सर्व अवयवों के स्थान पर नामजप ही है ।’

 

४. स्वभाव में हुआ परिवर्तन

४ अ. किसी प्रसंग में निराशा आने पर स्वयंसूचना देने पर
उस प्रसंग का विस्मरण होना एवं शिवजी के विचारों में खो जाने से निराशा दूर होना

मैं किसी भी प्रसंग में अधिक समय तक नहीं अटकती । पहले समान अब मुझे मानसिक कष्ट भी नहीं होता । किसी प्रसंग में यदि मुझे निराशा आ भी जाए, तो मैं उसे लिख लेती हूं । उस पर सूचना तैयार कर सत्र करती हूं । मैं आधुनिक वैद्या श्रीमती नंदिनी सामंत के बताए अनुसार प्रयत्न करती हूं और उस प्रसंग को भूल जाती हूं । उसके साथ ही मैं परात्पर गुरु डॉक्टरजी की शरण जाती हूं । तब मुझे आश्रम में आते-जाते कोई तो मुझे मिल जाता है और कहता है, ‘‘स्मितल, कल मुझे किसी ने शिवजी से संबंधित संदेश (मेसेज) भेजा तब मुझे तुम्हारी याद आई ।’’ मैंने बनाए शिव के चित्रों से संबंधित चित्र का कोई स्मरण करवाता है अथवा शिव से संबंधित कोई प्रश्न पूछता है । तब मुझे उस प्रसंग का विस्मरण होता है, निराशा दूर होती है और मैं पुन: शिवजी के विचारों में खो जाती हूं । तब ऐसा लगता है, ‘मैं शिवजी को भूल गई; तब भी वे मुझे नहीं भूले ।’ वे ही मुझे साधकों के माध्यम से उनका स्मरण करवा रहे हैं ।

४ आ. बुरा लग रहा हो, तो प्रार्थना करना कि
‘शिव के ‘वैराग्य’ गुण का थोडासा अंश मिले’, ऐसी प्रार्थना करना

अनेक बार ऐसा होता है कि कोई मुझसे नहीं बोलते । प्रतिसाद नहीं देते । मनमुक्तता से व्यवहार नहीं करते । तब पहले मुझे बहुत बुरा लगता था । शिवजी तो वैरागी हैं । कोई उनसे कैसा भी बर्ताव करे, तब भी उन्हें कुछ नहीं लगता । वे अपनी साधना करते ही रहते हैं । हम यदि उनका नामजप करते हैं, तो उनके ‘वैराग्य’ का थोडा-सा अंश भी यदि मिल जाए, तो मैं भी वैरागी हो जाऊंगी’,ऐसे मुझे लगता है । फिर वैसी उनसे प्रार्थना होती है । इसलिए बुरा नहीं लगता ।

४ इ. स्वयं में अहं बढने का भान होते ही
‘शिवजी को वह अच्छा नहीं लगेगा’, यह ध्यान में आना
और ‘अहं न बढने दें, केवल भक्ति दें’, ऐसी प्रार्थना करना

‘मुझमें बहुत भाव है । मैं अच्छी हूं । मैं सुंदर हूं । मैं अच्छी सेवा करती हूं । मैं बहुत कुछ करती हूं’, इसप्रकार के अहंयुक्त विचार कई बार मेरे मन में आते हैं । तब मुझे लगता है, ‘शिवजी मुझसे रुष्ट हो गए होंगे । उन्हें अहं कदापि अच्छा नहीं लगता । मुझे अहंकार अथवा गर्व हो गया, तो मुझे कैलास पर रहने नहीं मिलेगा और मैं उनसे दूर तो रह ही नहीं सकती । इसलिए मुझे किसी भी प्रकार का अहं न होने दें’, ऐसी मुझसे सतत प्रार्थना होती है । ‘मुझे किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं, कला नहीं, किसी भी प्रकार की प्रसिद्धी भी नहीं । मुझे केवल भक्ति दें और मुझे सतत नामजप करने आने दें’, ऐसी प्रार्थना मैं करती हूं । तब ऐसा लगता है कि वे ‘प्रत्येक क्षण वे मुझे आधार देते हैं । उनके आधार के बिना मैं जी ही नहीं सकती ।’

४ ई. पहले अन्यों पर बहुत क्रोध आना और अब वह न्यून होना

पहले मुझे दूसरों पर बहुत क्रोध आता था । इसलिए चिढकर बोलना, बात न करना, प्रतिक्रियात्मक बोलना’ जैसे दोष उभरकर आते थे । तदुपरांत यह सोचकर मुझे बुरा लगता था कि ‘मी इतनी क्यों चिढती हूं ?’ अनेक बार मुझे अकारण ही मां के प्रति क्रोध आता था अथ‌वा इससे पूर्व मेरे जीवन में आए लोगों को याद कर मुझे बहुत क्रोध आता था । अब मुझे वैसा क्रोध नहीं आता ।

४ उ. प्रेमभाव बढना

४ उ १. पहले आश्रम के साधकों के विषय में कुछ न लगना एवं अब साधक अपने ही परिवार के सदस्य हैं, ऐसा लगना और उनके प्रति प्रेम लगना

मुझे पहले आश्रम के साधकों के विषय में कुछ नहीं लगता था । अब ऐसा लगता है कि ‘सभी मेरे परिवार के सदस्य हैं ।’ हमारा बहुत अधिक सगे-संबंधी नहीं हैं; इसलिए अब मुझे साधक अपने परिवार के सदस्य लगते हैं । मुझे उनके प्रति प्रेम लगता है । कोई कैसे भी बर्ताव करे, तब भी मैं अब उसे भुला पाती हूं । बुरा नहीं लगता । कोई अच्छा बर्ताव करे, तो उसमें अटकना नहीं होता । ऐसा लगता है कि ‘अब स्वयं में परिवर्तन होना चाहिए’ । पहले मुझे वैसा नहीं लगता था । ‘मुझे एक अच्छा व्यक्ति बनाना है’, ऐसे विचार आते हैं । अब भी बहुत प्रयत्न करने हैं । अब ‘अन्यों का विचार करना, अन्यों के विषय में प्रेम लगना एवं सभी मेरे ही परिवार के हैं’, ऐसे विचार कुछ बढ गए हैं ।

४ उ २. प्रकृति की ओर देखकर प्रेम लगना एवं नामजप अपनेआप आरंभ होना

मुझे अब पक्षी, प्राणी, वृक्ष, फूल-पत्तों के विषय में प्रेम लगता है । वृक्ष पर लगे प‌‌त्तों को हिलते देख मेरा नामजप आरंभ हो जाता है । मन निर्विचार हो जाता है और ऐसा लगता है कि उसी स्थिति में रहूं । ‘कुछ करने की इच्छा नहीं होती । ऐसा लगता है कि बस, शांति अनुभव करती रहूं ।’ ऐसे विचार आते हैं कि प‌त्ते भी आनंदी हैं और वे भी नामजप कर रहे हैं । ‘किसी भी फूल को देखने पर ऐसा लगता है कि वह फूल शिवजी का है अथवा कैलास पर का है । फिर मुझे उस फूल एवं प‌त्ते से बोलने का मन करता है । उनसे ‘नामजप करो’, ऐसा कहने का मन करता है । मुझे प्रकृति के विषय में बहुत प्रेम लगने लगा है । ऐसा लगता है कि ‘कैलास के पत्थर भी कितने सुंदर होंगे ! वे भी नामजप करते होंगे ।’

४ उ ३. प्राणियों के विषय में भी अब बहुत प्रेम लगना एवं उनसे बोलने का मन करना

मुझे अब प्राणियों के प्रति भी बहुत प्रेम लगता है । उनका ध्यान रखने का मन करता है । हमारे घर के नीचे एक कु‌त्ता है । उसे जब मैंने पूछा, ‘तू ॐ नमः शिवाय ।’ कहता है न ? नामजप करता है न ?’, तब वह शांत हो जाता है । उसे सब समझ में आता है । उसीप्रकार एक बुलबुल भी हमारे घर आती है । मुझे उससे भी बातें करने की इच्छा होती है । उसे आलिंगन देने का मन करता है । अब मुझे गाय-बछडों के प्रति भी बहुत प्रेम लगता है । ऐसा लगता है कि ‘वे भी मेरे परिवार के ही हैं ।’ इससे पहले मुझे प्राणियों के प्रति इतना प्रेम कभी नहीं लगता था । यह भी नामजप के कारण हुआ होगा ।

 

५. सेवा करते समय हुआ परिवर्तन

५ अ. कला की सेवा करने का अवसर भगवान शिव ने ही दिया है और वे ही सब करवा रहे हैं, ऐसा लगना

मैं संत एवं साधकों के छायाचित्रों का संग्रह (फोटों का ‘अल्बम’) तैयार करने की सेवा करती हूं । ‘वह सेवा भी शिवजी ही मुझसे करवा ले रहे हैं’, ऐसा मुझे लगता है; कारण मुझमें इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं सर्व सेवा कर पाऊं; परंतु ‘उस समय शिवजी ही मुझे सेवा के कुछ विचार सुझाते हैं’, ऐसा मेरा भाव है । इससे मुझे बहुत सहायता मिली है । संत भगवान शिव के निकट होने से उनके लिए मुझे छायाचित्र करने का अवसर मुझे भगवान शिव ने दिया है । इन छायाचित्रों के माध्यम से संतों को गुरुदेवता की भेट का सतत स्मरण रहेगा ।

५ आ. उत्तरदायी साधिका के माध्यम से भगवान शिवजी ही सहायता कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होना

छायाचित्रों के संग्रह की सेवा वे ही करवा ले रहे हैं । यह उनकी ही कृपा है । मुझे उसमें कुछ भी नहीं आता । मैं असमर्थ हूं । छायाचित्रों के संग्रह की सेवा करते समय मुझसे अनेक बार चूकें होती हैं । उत्तरदायी साधिका मुझे वे चूकें एवं सेवा की बारीकियां दिखाकर मुझे परिपूर्ण सेवा करने में सहायता करती हैं । तब शिवजी ही उसके माध्यम से मेरी सहायता करते हैं, इसके लिए मुझे कृतज्ञता प्रतीत होती है ।

५ इ. आश्रमसेवा करते समय ‘आश्रम कैलास होने से सभी साधक
कैलास के निवासी हैं’, ऐसा लगने से प्रेम से सेवा होना एवं आश्रम में सभी सुविधाएं उपलब्ध
कर स्वयं शिव मात्र एक शिला पर बैठकर ध्यान लगाए सादा जीवनयापन कर रहे हैं, ऐसा लगना

आश्रमसेवा करते समय मेरे मन में ऐसा विचार आता है कि, ‘यह आश्रम कैलास है । मैं वहीं पर सर्व सेवाएं कर रही हूं । साधकों के लिए अल्पाहार की (चाय बनाने की) सेवा करते समय ‘सभी साधक कैलास के निवासी हैं और मुझे उनके लिए चाय बनाने का अवसर भगवान ने दिया है । वह चाय पीने से सभी का नामजप होनेवाला है और उनके कष्ट दूर होंगे’, ऐसा विचार मन में आता है । ‘भोजनकक्ष समेटने की सेवा’ करते समय मेरे मन में विचार आते हैं, ‘मैं कैलास पर समेटने की सेवा कर रही हूं । वहां के हस्तप्रक्षालनपात्र (सिंक) स्वच्छ कर रही हूं । यह सब भगवान शिव का है और मुझे उसे संभालकर उपयोग करना है; कारण शिवजी का उनके भक्तों पर इतना प्रेम है कि शिवजी ने वह सब साहित्य भक्तों के प्रति प्रेमवश उन्हें दिया है । हमें इतनी सारी सुविधाएं उपलब्ध करवाकर वे स्वयं एक शिला पर बैठकर ध्यान लगाते हैं । स्वयं सादा जीवन व्यतीत करते हैं ।

५ ई. ‘सर्व कुछ शिव का है’, ऐसा प्रतीत होने से आश्रमसेवा एवं घर के कामों में भेद न लगना

मुझे नामजप, भावप्रयोग, कला की सेवा, आश्रम सेवा एवं घर के कामों में अब कोई भेद नहीं लगता । ऐसा लगता है कि ‘सब कुछ शिवजी का है और कैलास पर ही हो रहा है ।’ प्रत्येक क्षण मन में केवल ‘ॐ नमः शिवाय ।’ ही होता है । छायाचित्रों की सेवा अथवा आश्रमसेवा रहने दें, घर के कुछ काम हों अथवा अधिकोष के काम हों, इन सभी से मुझे एक ही (समान) प्रकार का आनंद मिलता है । सभी समान लगते हैं । इसलिए मन अनेक बार आनंदी होता है और ‘प्रयत्न न करते हुए भी मेरे मुख पर हास्य होता है’, ऐसा मुझे अंदर से लगता है ।

 

६. ‘ॐ नमः शिवाय ।’ इस नामजप के कारण मन को शांति लगती है
और आसपास एक रिक्ती है, ऐसा प्रतीत होने के साथ ही स्वयं भी
रिक्ती होने से शिवजी ही सर्व कर रहे हैं, इसकी अनुभूति आना

‘ॐ नमः शिवाय ।’ इस नामजप के कारण मन में धीरे-धीरे शांति अनुभव होने लगी है । ऐसा प्रतीत होता है कि ‘मेरे सहस्रारचक्र के स्थान पर सिर खुला है ।’ कभी-कभी तो ऐसी भी अनुभूति होती है कि ‘आसपास कुछ भी नहीं है । यह जग ही नहीं है । मैं नहीं हूं । भगवान नहीं है । कुछ भी नहीं है । सब कुछ खाली है । केवल एक रिक्ती है । तब भी मुझे अच्छा लग रहा है । मैं भी उस रिक्ती समान ही रिक्त हूं और मैं जो कुछ भी कर रही हूं, वह शिवजी ही कर रहे हैं । यह देह भी उन्हीं की है । विचार भी उन्हीं के हैं । नामजप भी वे ही कर रहे हैं और इन सभी में मैं कहीं भी नहीं हूं ।’’

 

७. कृतज्ञता

परात्पर गुरु डॉक्टर, यह सब लिखने के पश्चात भी मुझे ऐसा लग रहा है कि ‘मैंने नहीं लिखा है अथवा जो लिखा है, वह भी मुझे याद नहीं । यह लिखते समय मुझे ऐसी अनुभूति हो रही है कि, ‘मेरा यहां अस्तित्व ही नहीं ।’ ‘भगवान की महिमा का गुणगान करने में मेरा जीवन भी कम पडेगा ।’

परात्पर गुरु डॉक्टर, यह सब मुझे सूझना संभव नहीं । यह सब आपकी कृपा के कारण संभव है । वर्ष २०१५ में हम यहां न आए होते, तो यह सब घडा न होता । आपकी इच्छा से ही सब हो रहा है । यह सर्व लिखान मैं आपके श्रीचरणों में अर्पण कर रही हूं । आप ही मेरे भोलेनाथ हैं । मैं आपके श्रीचरणों में कृतज्ञता व्यक्त करती हूं ।’

‘ॐ नमः शिवाय ।’
– कु. स्मितल भुजले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१.१०.२०२०)
यहां प्रकाशित की गई अनुभूतियां ‘भाव वहां देव’ इस उक्तिनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूति है । वैसी अनुभूति सभी को होगी, ऐसा नहीं है । – संपादक

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