महान योगी परम तपस्वी अग्निस्वरूप संत प.पू. रामभाऊस्वामी !

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प.पू. रामभाऊस्वामी

तंजावूर (तंजौर), तमिलनाडु के श्री गणेश उपासक एवं समर्थ रामदासस्वामी की परंपरा के महान योगी प.पू. रामभाऊस्वामी ! ईश्वरीय संकेतानुसार वे विविध स्थानों पर यज्ञयाग करते हैं । गत ४० वर्षों से उनका आहार केवल २ केले एवं १ कप दूध है । प.पू. रामभाऊस्वामी की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी अखंड योगसाधना से तेजतत्त्व पर प्रभुत्व पा लेने के कारण वे प्रज्ज्वलित यज्ञकुंड में १० से १५ मिनटों तक सहजता से बैठ सकते हैं । साधकाें की रक्षा एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में आनेवाली बाधाएं दूर हों, इसके लिए प.पू. रामभाऊस्वामी ने जनवरी २०१६ में सनातन के रामनाथी, गोवा के आश्रम में उच्छिष्ट गणपति यज्ञ किया था । प.पू. रामभाऊस्वामी की साधना, उनकी गुरुसेवा, उनके द्वारा हुए हवन, उनका अग्निप्रवेश इत्यादि विषयाें के संदर्भ में सनातन की सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ द्वारा उनसे साधे गए संवाद के सूत्र प्रकाशित कर रहे हैं ।

 

१. प.पू. रामभाऊस्वामी ने की माता-पिता की सेवा

१ अ. माता-पिता की ८ वर्ष भावपूर्ण सेवा करने से उनकी कृपा होना

श्री. रामचंद्र गोस्वामी ने मुझे दत्तक लिया था । वे प्रकांड पंडित थे । उन्होंने मुझे मराठी एवं संस्कृत सिखाई । गुरु की सेवा बहुत महत्त्वपूर्ण है । गुरु पाने के लिए प्रथम माता-पिता की सेवा करना महत्त्वपूुर्ण होता है । सेवा करने के लिए हमें सवेरे से रात तक उनके समीप ही रहना चाहिए । माता-पिता में भगवान का रूप देखकर उनका अभिषेक कर रहा हूं, इस भाव से मैं उन्हें स्नान करवाता । रुद्र, पुरुषसूक्त इत्यादि कहते हुए मैं उनका अभिषेक करता । इसप्रकार मैंने ८ वर्ष माता-पिता की बहुत सेवा की । पिता के ८४ वें वर्ष तक मैंने उनकी सेवा की । सेवा करते-करते उनकी कृपा हो गई ।

१ आ. माता-पिता को अच्छा लगे इसलिए गुरुचरित्र का
पारायण करना एवं तदुपरांत वंशावली द्वारा दत्तात्रेय की उपासना ज्ञात होना

मुझे बचपन से ही भगवान की ओर रुझान था । माता-पिता को अच्छा लगे, इसलिए मैंने गुरुचरित्र का पारायण आरंभ किया । तत्पश्चात मुझे भगवान दत्तात्रेय का महत्त्व समझ में आया; इसलिए फिर अब मैं नियमितरूप से गुरुचरित्र का सप्ताह करता हूं । तदुपरांत समझ में आया कि हमारी वंशावली में दत्तात्रेय की उपासना थी ।

१ इ. प्रतिदिन मन का श्लोक एवं दासबोध पढना एवं मनन करना

समर्थ रामदास मठ ने मुझे स्वीकारा है; इसलिए मुझे दत्तक लिया है । मैं उनका दत्तकपुत्र हूं । मेरी विद्यालयीन शिक्षा मठ द्वारा ही हुई थी । मुझे पिता ने समर्थविषयी उपदेश दिया । उनके अनुग्रह के कारण ही मैं मन का श्लोक एवं दासबोध पढता हूं । पढा हुआ मनन करता हूं । मैं समर्थ मठ में प्रतिदिन एक मन का श्लोक सीखता था । तमिल भाषा में किसी-किसी विषय का दोहरा अर्थ होता है, ऐसे मेरे पिता कहते थे । हम एक-एक विषय पर चर्चा करते थे । मेरे और पिताजी में चर्चा के समय वे जो बोलते थे, उसका भावार्थ (गर्भितार्थ) भिन्न होता था । इससे मुझे सीखने का आनंद एवं उत्साह मिलता था । पडोस में खडे व्यक्ति की समझ में कुछ नहीं आता था ।

 

२. गुरुभेट

२ अ. भेट की पृष्ठभूमि

पिता के देहत्याग के पश्चात वहां आई सौभाग्यवती का (देवी का) गुरु के पास ले जाना, माता-पिता की सेवा में हुए पापों के कारण रोना आने पर गुरु का उनके गुरुदेव का चरित्र पढने के लिए देना । मेरे गुरु अर्थात प.पू. राम नंदेन्द्र सरस्वती । उनके पूर्वाश्रम का नाम महाकवि सुंदरेश शर्मा । वे मन्नारगुडी पर थे । तदुपरांत वे तंजावूर आए । मैं गुरु के पास गया ।

मेरे पिता के देहत्याग का समय आने पर उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘मेरे जाने का समय आ गया है ।’’ तदुपरांत मुझे उनकी याद आने लगी । मैंने उनका ध्यान किया । इसलिए अपनेआप अन्न एवं पानी वर्ज्य करने के कुछ-कुछ प्रयत्न हुए । तदुपरांत एक सौभाग्यवती (देवी) प्रत्यक्ष में आई और बोली, ‘‘गुरु के पास जाकर उनके आशीर्वाद लो । तुम्हारे गुरु संस्कृत के पंडित हैं । ज्ञानी हैं । देवी मुझे गुरु के पास ले गई । तदुपरांत मैंने फिर कभी भी उसे नहीं देखा । वहां जाने पर प्रथम गुरु बोले, ‘‘आओ कण्णा वाळा कण्णा ।’’ द्रविड भाषा में ‘कण्णा वाळा कण्णा’ अर्थात ‘आओ बच्चा आओ’ । जैसे बच्चो को बुलाते हैं, वैसे उन्होंने मुझे बुलाया । वे मुझे कण्णा नाम से ही बुलाते थे । घर में भी मुझे इसी नाम से बुलाया जाता था । इसलिए मेरा अंतःकरण भर आया । मेरी आंखों सजल हो गईं । उन्होंने वह देखा और पूछा, “अरे ! क्या हुआ ?’’ मैंने कहा, ‘‘मुझसे बहुत पाप हुए हैं । माता-पिता की सेवा करनी चाहिए । उन्हें संतुष्ट रखना चाहिए; परंतु मैंने वैसा नहीं किया; इसलिए ये अश्रु बह रहे हैं । इससे पाप बढता है ना ?’’ इस पर वे बोले, ‘‘हां‘‘ ! तदुपरांत उन्होंने मुझे स्वयं द्वारा लिखित अपने गुरु का (त्यागराजस्वामी का) चरित्र मुझे पढने के लिए कहा और बोले, ‘‘इससे तुम्हें अच्छा लगेगा ।’’

२ आ. गुरु द्वारा लिखे गए त्यागराजस्वामी के चरित्र में
शांतानिकेतनवंदनम् अर्थात राम के लोक का वर्णन होना

मेरे गुरु ने त्यागराजस्वामी का चरित्र वाल्मीकि रामायण समान लिखा है । उसके अध्याय मैंने पूर्णरूप से पढे । सभी शांता निकेतनवंदनम् है; अर्थात वह राम का लोक है । प्रत्येक देवता का एक लोक होता है । शांतानिकेतन अर्थात राम का लोक । इसलिए उसका उल्लेख शांता निकेतनवंदनम् किया जाता है । त्यागराजस्वामी, वाल्मीकि समान अवतार हैं, ऐसा गुरु ने उसमें लिखा है । यह सब पढते-पढते उत्साह बढ जाने से मैंने त्यागराजस्वामी का संपूर्ण चरित्र पढ डाला ।

 

३. गुरु द्वारा ली गई परीक्षा

३ अ. पाप का क्षालन होने के लिए गुरु द्वारा गंगास्नान करने हेतु कहना

त्यागराजस्वामी का संपूर्ण चरित्र पढकर पूर्ण होने के अगले दिन गुरु मुझसे बोले, तुम्हें लग रहा है न कि तुमसे पाप हुआ है ? ठीक है । अब मैं तुम्हें गंगा के पास ले जाऊंगा । गंगा में स्नान करने से अपने पाप धुल जाते हैं । मैंने काशी नहीं देखी थी और गंगा के भी दर्शन कभी नहीं हुए थे । उस विषय में केवल पुस्तकाें में पढा था ।

३ अ १. बडे भाई को माता-पिता की सेवा करने के लिए कहना

फिर अगले दिन निकलना तय हुआ; परंतु पैसों की व्यवस्था ? माता-पिता का कैसे करें ? उनकी सेवा कैसे करनी है ?, इन बातों का मुझे तनाव आया । पिताजी बोले, ‘‘अब मेरी आयु हो गई है ।’’ मैंने पहले ही तय किया था कि पिताजी जो भी कहेंगे वह मन पर नहीं लूंगा । टिकट का आरक्षण करते समय मन में आया, अब मैं पिताजी को छोडकर कैसे जाऊं ? गुरु द्वारा ली गई यह पहली परीक्षा थी ! तब मेरे बडे भाई अलग रहते थे । उन्हें बुलाया और समझाया कि अब माता-पिता की देखभाल तुम करो । फिर गुरु ने भी बडे भाई से माता-पिता की सेवा उत्साह से करने के लिए कहा ।

३ अ २. गुरु द्वारा बनारस में गणपति का गुरुमंत्र देकर उसका १ लाख जप करने के लिए कहना एवं १८ दिनों में जप पूर्ण होने पर १८ दिन हवन करने के लिए कहना

तदुपरांत गुरु मुझे प्रथम चेन्नई (मद्रास) ले गए । मैंने मद्रास पहले देखा नहीं था । वहां से हम कोलकाता गए । कोलकाता में एक बडे कारखानेदार थे । हम उनके घर गए । हम देख रहे थे कि क्या हमारी वहां निवासव्यवस्था हो सकती है ? मैंने देखा कि सभी गुरु को कितना मानते हैं; इससे मन बहुत उत्साही एवं आनंदी हुआ । वहां से गुरु मुझे बनारस ले गए । बनारस में हनुमानघाट पर उन्होंने मुझे उपासना मंत्रोपदेश दिया । उन्होंने मुझे गुरुमंत्र दिया । गणपति का गुरुमंत्र देकर मुझे उसका १ लाख जप करने के लिए कहा । मैंने वह जप १८ दिनों में पूर्ण किया । तदुपरांत उन्होंने मुझे १८ दिन हवन करने के लिए कहा । वह था मेरा पहला हवन ! वे मेरी कितनी परीक्षाएं लेंगे ?

३ अ ३. गुरु का बहुत बीमार होना और उनके पैसों का उपयोग करने की आज्ञा न होने से एक बंगाली आधुनिक वैद्य के पैर पकडकर उसे गुरु को देखने के लिए बुलाना

गुरु के पास जो भी था, वह सब उन्होंने मुझे सौंपा था । इसी बीच एकबार वे बहुत बीमार हो गए । दोपहर तक उनका कष्ट बहुत बढ गया था । तब बनारस में मेरा परिचित ऐसा कोई आधुनिक वैद्य (डॉक्टर) नहीं था । तब मुझे चिंता हुई कि गुरु का क्या होगा । उनकी आज्ञा न होने से मैंने उनके पैसों को हाथ नहीं लगाया । मैंने एक बंगाली आधुनिक वैद्य के पैर पकड लिए । वे वैद्य अच्छे थे । मेरे लिए उन्होंने वहां आकर गुरु को जांचा और बोले, ‘‘मुझे क्षमा करो । ईश्वर महान है ।’’ यह थी दूसरी परीक्षा !

३ अ ४. ‘गुरु की बीमारी के विषय में क्या करना है ?, इस उधेडबुन में अश्रुपूर्ण नेत्रों से पूरी रात भगवान से प्रार्थना करना

तब गंगा में बाढ आई थी । वर्षा भी हो रही थी । एकाएक बिजली चली गई थी । मैंने तंजावूर तार (टेलिग्राम) भेजा । भगवान के समीप लगाए दीपक के प्रकाश में मैंने गुरु का सिर अपनी गोद में लिया । तंजावूर तार पहुंचने में ४ दिन लगनेवाले थे । तब तक ‘कैसे करना है ?’, इसी चिंता में मैंने अश्रु गिराते पूरी रात भगवान से प्रार्थना की । हनुमानघाट एवं मणिकर्णिका घाट में महास्मशान था । मैंने ऐसा कभी देखा ही नहीं था । मुझे किसी का आधार नहीं था ।

३ अ ५. घरमालिक का गुरु को धर्मशाला में ले जाने के लिए कहना

‘गुरु के सब पैसे मेरे पास हैं । उन्हें कुछ हो गया, तो मुझे पूछनेवाला कौन है ?’, ऐसा भी मेरे मन में आया । अब किसके पास जाना है ? किसे पूछना है ?’, ऐसे लगा । कुछ ही देर में घरमालिक आए । वे बोले, ‘‘तुम इन्हें (गुरु को) धर्मशाला में लेकर जाओ ।’’ मैंने तुरंत ही उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया । ‘‘गुरु कल उठेंगे । आप उनसे बात कीजिए’’, ऐसा कहते हुए मैंने दरवाजा बंद कर लिया ।

३ अ ६. गुरु द्वारा कहने पर कि केवल भस्मप्रसाद का उपयोग होगा, हवन की भस्म उन्हें लगाना

उसी समय गुरु को ज्वर के कारण उनके सर्व वस्त्र भीग गए थे । उन्हें पहनाने के लिए भी वस्त्र शेष नहीं थे । मैंने सर्व वस्त्र धोकर डाल दिए थे । उनके शरीर पर केवल कौपीन (लंगोटी) थी । मैं उन्हें गोद में लेकर प्रार्थना कर रहा था । तब उनका स्वर मेरे कानों पर पडा, ‘‘अरे, कितनी बार तुम्हें बताना है ? केवल भस्मप्रसाद का उपयोग होनेवाला है । अन्य किसी का भी नहीं ।’’ तदुपरांत किए हवन का प्रसाद (भस्म) निकालकर उन्हें लगाया ।

३ अ ७. सवेरे गुरु के आंखें खोलने पर आनंद होना एवं ‘भगवान ने कृपा की’, ऐसा लगना

सवेरे सूर्योदय होने पर मेरे आंखों के अश्रु गुरु की आंखों पर गिरे और उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं । मुझे बहुत आनंद हुआ । ‘भगवान ने कृपा की’, ऐसा प्रतीत होकर मन को प्रसन्नता हुई ।

३ अ ८. गुरुसेवा करनेवाले शिष्य को कष्ट देने से घरमालिक को कष्ट होगा और वह उसके पैर पकडेगा, ऐसा गुरु का कहना

५ – १० मिनट में गुरु उठकर बैठ गए । मैंने उनसे कहा, ‘कल आप इस स्थिति में नहीं थे । मेरा मन इतना विचलित हो गया । कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि कल क्या होगा । घरमालिक सवेरे-सवेरे आकर ‘हिन्दू दैनिक’ पढ रहे थे । फिर कल जाे भी हुआ था, वह सब मैंने गुरु को बताया । घरमालिक को तमिल भाषा नहीं आती थी; परंतु समझ लेते थे ।’’ गुरु बोले, ‘‘तू इतना दुःखी था । इतनी गुरुसेवा कर रहा था, तब भी इसने तुम्हें इतना कष्ट दिया ! वह अपनेआप तेरे चरण पकडेगा !’’ मैंने इसपर अधिक ध्यान नहीं दिया ।

३ अ ९. घरमालिक का अपघात होकर बचाने की विनती करते हुए पैर पकडना

थोडी ही देर में मैं काशी विश्‍वनाथ मंदिर गया । घंटा बजाया । तब मेरे कानों पर आवाज पडी, ‘कृपा करके मेरी रक्षा कीजिए ! कल्याणजी, कृपा करके मेरी रक्षा कीजिए !’ क्या हुआ है, यह मुडकर देखा तो घरमालिक को स्ट्रेचर द्वारा लाया जा रहा था । रास्ते से जाते समय घरमालिक को एक रिक्शाचालक ने टक्कर मार दी थी । वे अंत:करणपूर्वक मुझसे बोले, ‘‘यह पैर ठीक होने तक तुम यहीं रहो । मैं तुम्हारे पैर नहीं छोडूंगा ।’’ ऐसा कहते हुए उन्होंने मेरे पैर पकड लिए । मैं उन्हें गुरु के पास ले गया ।

गुरु बोले, ‘‘अरे, यह मैंने कहा इसलिए हुआ क्या ? यह उसका प्रारब्ध था !’’ उन्होंने घरमालिक के पैर को भस्म लगाई । घरमालिक ने कहा, ‘‘मेरा यह पैर ठीक होने तक आप कहीं भी न जाएं । यह सब आपका ही है ।’’ तदुपरांत हम हरिद्वार एवं हृषिकेश गए । ऐसी परीक्षा लेकर मुझे गुरुदेवजी ने भगवान का प्रभाव दिखा दिया । इससे मुझे दैवीय सान्निध्य प्राप्त हुआ ।

३ आ. गुरुद्रोह करनेवाले की पत्नी की हृदय शस्त्रक्रिया के लिए गुरु ने प्रार्थना करने के लिए कहना

३ आ १. ‘गुरुद्रोह करनेवाले की पत्नी की हृदय शस्त्रक्रिया के लिए प्रार्थना कैसे करनी है, ऐसे लगना एवं ‘तुम्हें सब कुछ दिया है, अत: तुम ही प्रार्थना करो’, ऐसा गुरु द्वारा बताना

मैं समर्थ रामदासस्वामींजी के मठ में रहता था । गुरु ने कैसे परीक्षा ली, उसका एक उदाहरण बताता हूं । हमारे समीप रहनेवालों को गुरु के प्रति प्रेम नहीं था । उसकी पत्नी की हृदय शस्त्रक्रिया होनेवाली थी; इसलिए पत्नी ने आश्रम में आकर १०० रुपये देकर मेरे पैर स्पर्श किए । तब मुझे वह संकट लगा; कारण जिसने गुरुद्रोह किया है, उसके लिए मैं प्रार्थना कैसे करूंगा ? फिर मैंने स्वामीजी से पूछा, ‘‘मुझे क्या करना चाहिए ?’’ वे बोले, उसने तुम्हारे पास आकर कुछ मांगा है, तो उनके लिए तुम्हें ही प्रार्थना करनी है; क्योंकि मैंने तुम्हें सर्व दिया है !’’

३ आ २. गुरु के कहने पर भी प्रार्थना करने के विषय में आशंकित होना एवं ‘महिला को कुछ हो जाने पर तुम्हारा चेहरा नहीं देखूंगा’, ऐसा गुरु के कहने पर प्रार्थना कर रातभर हवन करना

मुझे लगा, ‘अब क्या करना है ? मुझसे यह नहीं होगा । मेरा कोई द्रोह करे, तो चलेगा; परंतु मेरे गुरु का द्रोह करने पर मैं कैसे प्रार्थना करूं ?’ तब गुरु बोले, ‘‘आगे कभी आश्रम में ऐसा कुछ हुआ, तो मैं तुम्हें मुक्त कऱ दूंगा; परंतु अभी नहीं । अब यदि उस महिला को कुछ हो गया, तो वह तुम्हारे कारण होगा ! फिर तो मैं तुम्हारा चेहरा नहीं देखूंगा ।’’ तत्पश्चात मेरी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी । गुरु नहीं, ताे मैं क्या करूंगा ? किसके चरण पकडूंगा ? कौन मेरी रक्षा करेंगे ? फिर मैंने प्रार्थना की । रातभर बैठकर हवन किया । जो भी संभव था, उस सामग्री से मैंने हवन किया ।

३ आ ३. सवेरे महिला की शस्त्रक्रिया सफल होने का समाचार मिलते ही आंखों से अश्रुधारा बहने लगी

सवेरे-सवेरे पडोसी का दूरभाष आया, ‘‘शस्त्रक्रिया सफल हुई ।’’ जहां मैं हवन कर रहा था वहां गुरुदेव आए और बोले, ‘‘शस्त्रक्रिया कैसे सफल की ?’’ मेरी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी । मेरे मन में विचार आया, ‘आपका कार्य हो गया ना ? अब मैं आपके मुख का अवलोकन नहीं करूंगा (चेहरा नहीं देखूंगा) ।’ तब मैं गुरु की ओर पीठ करके बैठ गया । तब गुरु सूक्ष्म से मुझसे बोले, ‘अरे, तू ऐसे करेगा, यह मुझे पता था; इसीलिए मैंने ऐसा किया । मुझसे कुछ मत बोलना ।’ उन्होंने थोडा हास्यविनोद कर मेरे अंतःकरण में प्रेम उत्पन्न किया । फिर सब ठीक हो गया । इसप्रकार वे एक-एक विषय में ऐसी परीक्षा लेते थे ।

३ इ. गुरु द्वारा एक प्रसंग से दैवीय सान्निध्य का महत्त्व ध्यान में लाकर देना

३ इ १. केवल १०० रुपये दक्षिणा मिलने से कर्ज चुकाना कठिन होना एवं दक्षिणा अधिक लेने पर उसका फल नहीं मिलेगा, ऐसा गुरु का बताना

मैं जब गुरु के साथ आश्रम में था, तब मुझ पर बहुत कर्ज था । मेरी इच्छा थी कि गुरु के होते हुए (गुरु के देहत्याग के पूर्व) कर्ज चुकता हो जाए । एक बार मुझे लोककल्याण के लिए हवन करने बुलाया था । मैं हवन के लिए गया । उन्होंने मुझे केवल १०० रुपये दक्षिणा दी; परंतु उतनी दक्षिणा मिलने से कर्ज चुकाना असंभव हो गया । उस समय मेरे मन में आया कि मैंने दिनभर हवन किया; परंतु मुझे १०० रुपये ही दक्षिणा मिली । इससे कर्ज कैसे चुकाऊंगा ? गुरु ने मुझसे पूछा, ‘‘तुमने हवन किसके लिए किया ? उनके लिए अथवा स्वयं अपने लिए ?’’ मैंने कहा, मुझे कर्ज चुकाना था एवं लोककल्याण भी करना था, इसलिए किया ! इस पर वे बोले, दक्षिणा अधिक लोगे, तो तुम्हें उसका फल नहीं मिलेगा । मैंने मन ही मन स्वामीजी से कहा कि आप ऐसा कहते हैं तब मेरा इतना कर्ज कब चुकता होगा ? इस पर स्वामीजी बोले, ‘‘मैं अभी तुमसे कुछ नहीं कहूंगा । जब प्रसंग आएगा, तभी मैं बोलूंगा ।’’ गुरु जो कहते हैं, वह सुनना ही चाहिए, इस विचार से मैंने हवन पूर्ण किया ।

३ इ २. प्रार्थना करते समय मिलने आए व्यक्ति द्वारा पैरों के निकट थाली रखना और उसमें कर्ज का राशि जितने ही पैसे होना एवं दैवीय सान्निध्य होने पर अडचन नहीं आती, यह ध्यान में आना

तदुपरांत मैं मद्रास (चेन्नई) आया । एक स्थान पर मैं जब प्रार्थना कर रहा था, तब मुझे मिलने के लिए एक व्यक्ति आया । उसके हाथ में एक थाली थी, जो एक रेशमी वस्त्र से ढकी थी । उसने मेरे पैरों के पास वह थाली रख दी और मुझे प्रणाम किया । उस थाली में क्या था, यह मुझे दिखाई नहीं दिया । थाली में बिस्किट अथवा फल होंगे, ऐसा मुझे लगा और मैंने वह थाली गुरु के सामने जाकर रख दी । गुरु मुझसे बोले, थाली पर से वस्त्र हटाकर देखो । मैंने खोलकर देखा, तो मुझ पर जितना कर्ज था, उतने पैसे उसमें थे । गुरु ने मुझसे पूछा, पिछली बार किसी का कष्ट दूर करने के लिए तुमने प्रार्थना की थी । तब उसके १०० रुपये देने पर तुम्हें बुरा लगा था । अब यह धन मिला, तब तुम किसके लिए प्रार्थना कर रहे थे ? उस दिन से मैंने पैसों का विचार ही करना छोड दिया । कितनी भी अडचनें आईं, तब भी दैवीय सान्निध्य होने से हमें कुछ भी नहीं होता । प्रसंग क्या था, इस ओर ध्यान न देते हुए प्रसंग घडते समय उपासना करनी है, यह ध्यान में रख ऐसा करने लगा ।

३ ई. गुरु के अनुग्रह के कारण साधना की परीक्षा उत्तीर्ण होना एवं पवित्रता बढने से कोई भी अडचन न आना

वर्ष १९७९ में मैं संन्यास लेनेवाला था । संन्यास लेना हो, तो उतना पवित्र होना चाहिए । मैं यदि पवित्र हूं, तब ही गुरु की सेवा कर सकूंगा । गुरु एक बार घर आए, तो मुझे दो बार उनके पास जाना चाहिए । गुरु यदि एक बार का भोजन छोडते हैं, तो हमें दो बार का भोजन छोडना चाहिए, तब ही हम पवित्र होते हैं । मैंने उनसे कहा, ‘‘आप एक बार का आहार छोडेंगे, तो मैं दो बार का आहार छोडूंगा ।’’ वे यदि आहार छोडते हैं, तो मुझे पानी भी छोडना चाहिए । इसलिए वास्तविकता क्या है, यह देखने के लिए गुरु परीक्षा लेते हैं । गुरु के अनुग्रह के कारण मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया । इसप्रकार हमारी पवित्रता बढती गई । कभी कोई अडचन नहीं आई ।

 

४. गुरुसेवा के लिए पत्नी की अनुकूलता

४ अ. पत्नी की अनुमति मिलने से गुरु की सेवा कर पाना

गुरु ने ही मेरा विवाह करवाया । विवाह के उपरांत मैंने गुरु से कहा, ‘‘मुझे सेवा करनी है ।’’ वे बोले, ‘‘तुम जाकर सेवा करो ।’’ पत्नी बोली, ‘‘मैं पत्नी हूं । मुझसे सेवा नहीं होगी । आप सेवा करें ।’’ मैं सेवा करने लगा । पत्नी की अनुकूलता के कारण ही मैं सेवा कर पाया ।

– प.पू. रामभाऊस्वामी, तंजावुर, तमिलनाडु.

४ आ. पिताजी की साधना के लिए मां की अनुकूलता

उन्हें पता ही था कि ये (पति) विश्‍वकार्य के लिए बाहर जानेवाले हैं । आखिर में थीं ही पतिव्रता ! पिताजी गुरु के पास रहते और मां दूसरे स्थान पर !

– श्री. गणेश गोस्वामी (प.पू. रामभाऊस्वामी के सुपुत्र एवं शिष्य)

 

५. गुरु के अनुग्रह का महत्त्व

५ अ. ‘वाचन से अल्प अनुभव आता है; परंतु गुरु का अनुग्रह होने से सर्व अवगत हो जाता है ।

५ आ. लोकसेवा करने के लिए गुरु का अनुग्रह लेकर समर्पण भाव से सर्व करना आवश्यक !

लोगों के कल्याण के लिए लोगों की सेवा करनी चाहिए । लोकसेवा के लिए प्रथम गुरु का अनुग्रह लेना चाहिए । तन, मन एवं धन, यह सब भावपूर्ण अर्पण करना चाहिए । समर्पणभाव से सर्व करना चाहिए । उसमें कोई स्वार्थ नहीं हो ।

 

६. गुरुबल का महत्त्व

६ अ. गुरुबल नहीं, तो कुछ भी नहीं !

गुरु के कारण मुझे अन्न-पानी वर्ज्य करना संभव हुआ । गुरु ने मुझसे कभी कहा नहीं कि ‘अन्न-पानी वर्ज्य करो !’ केवल गुरुबल के कारण संभव हुआ । यदि गुरुबल नहीं, तो कुछ भी नहीं । समर्थ कहते हैं,

गुरु पाहता पाहता लक्ष कोटी । बहूसाल मंत्रावळी शक्ति मोठी ।

मनीं कामना चेतके धातमाता । जनीं व्यर्थ रें तो नव्हे मुक्तिदाता ॥

– समर्थ रामदासस्वामी

६ आ. गुरुबल के कारण गुरु की समाधि के अंदर बैठकर जप करने की सिद्धि प्राप्त होना

स्वामीजी को मुझे सिद्धी देने का प्रसंग आया, तब मैं उनकी समाधि के अंदर बैठकर जप कर रहा था । मैं दिनभर में ८ से १० घंटे अंदर रहता था । वहां मन को भानेवाली गरमाहट रहती थी । हवा अंदर प्रवेश नहीं कर पाती थी । दीप लगाने पर, वह बुझ जाता था । २७ दिनों के हवन करते समय यज्ञकुंड से अग्नि निकालकर उसे अंदर ले जाकर रातभर वहां बैठकर जप करता था । यह केवल गुरुबल के कारण संभव हुआ ।

 

७. प.पू. रामभाऊस्वामी का अग्निप्रवेश

७ अ. मां की गोद में निश्चिंत सोए बालक समान अपनेआप ही अग्नि में प्रवेश होना

अग्नि में प्रवेश करना, यह अपनेआप ही होता था । मां पर विश्ववास होने से बच्चा उसकी गोद में सो जाता है । बच्चे को पता होता है कि मां उसे कोई हानि नहीं पहुंचाएगी । ‘मां हमें अंतःकरण से ममता बरसानेवाली है’, यह बच्चे को ध्यान में आता है । इसलिए वह अपनेआप ही उसकी गोद में सो जाता है । ऐसा होने पर बालक आक्रोश कैसे करेगा ? किसी के कहने पर मैं कुछ नहीं करता । सब अपनेआप होता है ।’

– प.पू. रामभाऊस्वामी, तंजावुर, तमिलनाडु.

७ आ. गुरु का स्वयंप्रेरणा से अग्निप्रवेश करने कहना

‘उन्हें गुरु ने स्वयंप्रेरणा से अग्निप्रवेश करने के लिए कहा । प्रारंभ में प.पू.रामभाऊस्वामी ने अग्निप्रवेश किया । तब हम सभी को थोडा भय लगा । मेरी जानकारी के अनुसार १९८७ – १९८८ में कोलकाता में थोडा-थोडा अग्निप्रवेश करना प्रारंभ हुआ था ।’

– श्री. गणेश गोस्वामी (प.पू. रामभाऊस्वामी के सुपुत्र एवं शिष्य)

७ इ. अग्निस्पर्श के समय प्रार्थना एवं मंत्रजप करने से दैवीय सान्निध्य में जाने से भय न लगना

‘यह हाथ अंदर अग्नि में होता है । अंदर जाते समय अग्नि का प्रभाव मेरे अंदर जाता है । अग्निस्पर्श के समय मैं प्रार्थना करता हूं । मंत्र कहता था । मैं दैवीय सान्निध्य में जाता था । इसलिए मुझे ज्वालाएं क्या करेंगी ? अग्नि कुछ नहीं करती । मुझ भय भी नहीं लगता ।

७ ई. मंत्रजप से देह में भारी मात्रा में ऊर्जा निर्माण होने से यज्ञकुंड की अग्नि का देह को जला न पाना

मंत्रजप से मेरी देह में भारी मात्रा में ऊर्जा निर्माण होती है । इसलिए यज्ञकुंड की साक्षात अग्नि भी मुझे जला नहीं सकती ।

७ उ. पंचमहाभूताें की अग्नि का थोडा अंश स्वीकारने पर अन्य चार महाभूत अपने होना

अग्नि अत्यंत प्रभावी है । अग्नि की दाह कोई सहन नहीं कर पाता; परंतु अग्नि का अंतःकरण इतना उदार है कि जितना तुम स्वयं को देकर उनकी सेवा करते हो, उतना ही प्रेम तुममें उत्पन्न होता है । पंचमहाभूतों में अग्नि का थोडा अंश हमने यदि स्वीकार लिया, तो अन्य चार महाभूत हमारे हो जाते हैं । यह बीज है । उसे ‘योग’ कहते हैं ।

७ ऊ. प.पू. रामभाऊस्वामी का यज्ञ के समय शाल ओढने का कारण

१. शाल ओढने से शरीर का तापमान संतुलित रहना

यज्ञ करते समय मंत्र कहने से ऊर्जा निर्माण होती है । हवा लगने पर ऊर्जा कम होती है । हवा न लगे, इसके लिए मैं शाल ओढता हूं । शाल ओढने से शरीर का तापमान संतुलित रहता है ।’

– प.पू. रामभाऊस्वामी, तंजावुर, तमिलनाडु.
२. शाल के कारण शरीर गरम रहना

‘शाल के कारण शरीर गरम रहता है । यह शाल मोटी होने से इसे ओढने पर बहुत गरमाहट होती है ।

७ ए. प.पू. रामभाऊस्वामी की आयु ७५ वर्ष होते हुए भी उनके रक्तभिसरण संस्था में कोई बाधा न होना

प.पू. रामभाऊस्वामी की रक्त की जांच की । बढती आयु के अनुसार मनुष्य की रक्ताभिसरण संस्था में बाधाएं उत्पन्न होती हैं; परंतु प.पू. रामभाऊस्वामीजी की आयु ७५ वर्ष के होते हुए भी उनकी रक्ताभिसरण संस्था में कोई बाधा नहीं ।’ – श्री. गणेश गोस्वामी

७ ऐ. ‘स्वामीजी अग्निप्रवेश करते समय क्या युक्ति करते हैं,
यह देखना है’, ऐसे अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्यकर्तााओं का
कहना एवं स्वामीजी के किए अग्निप्रवेश पर उनका लेख लिखना

प.पू. रामभाऊस्वामीजी : अग्निप्रवेश करते समय अग्नि का प्रभाव होता है । अपनी भक्ति के अनुसार अग्नि का अनुभव आता है । भक्ति के कारण हमें सभी लाभ होते हैं ।

श्री. गणेश गोस्वामी : वर्ष १९९७ – १९९८ में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्यकर्ता आए थे । वे बोले, ‘‘स्वामीजी जो कर रहे हैं, वह सब हमें निकट से देखना है । क्या ट्रिक करते हैं, वह देखना है ।’’ हमने उनसे कहा, ‘‘बैठकर ध्यानपूर्वक देखिए ।’’ उन लोगों ने स्वामीजी द्वारा किया अग्निप्रवेश देखकर लेख (आर्टिकल्स) लिखा ।

 

८. गत ४० वर्षों से प.पू. रामभाऊस्वामी का आहार केवल २ केले और १ गिलास दूध !

‘मेरे पिता ३५ वर्ष स्वामीजी के पास थे । उनके आहार के कडे नियम थे । पिताजी पहले लाही (खीलें) और दूध लेते थे । उन्होंने वैसा ५ – ६ वर्ष तक किया । तदुपरांत उन्होंने लाही लेना बंद कर दिया । अब गत ४० वर्षों से उन्होंने संपूर्ण आहार छोड दिया है । अब उनका आहार केवल २ केले और १ गिलास दूध । उन्होंने पानी पीना भी छोड दिया है । वह कहते हैं कि अब उनका यह जीवन तपस्या के लिए अत्यंत उपयुक्त है ।’ – श्री. गणेश गोस्वामी

 

९. गुरु द्वारा मिली संगीत की सीख

९ अ. स्वरज्ञान युक्त एवं ज्ञानवंत गुरु का संगीत का सबकुछ देना

‘गुरु के कारण मेरे संगीत का अभ्यास हुआ । बीजाक्षर एकत्र कर गायत्रीमंत्र, सरस्वतीमंत्र, गणपतिमंत्र सिद्ध कर ऋषियों ने उसे हमें अनुभव करने दिया । सा, रे, ग, म, प, ध एवं नि, इन सप्त स्वराें में सभी शब्द समाए होने से संगीत पूर्ण है । सभी राग सप्त स्वराें में समाए हैं । गुरु ने मुझे संगीत का सर्व ज्ञान दिया । गुरु के पास स्वरज्ञान था । वे अधिक ज्ञानी थे । उस समय मैं अर्धज्ञानी था ।

९ आ. उत्सव के समय संगीत का ज्ञान रखनेवाले
ढोल बजानेवाले को बुलाना तथा उनसे अपस्वर उत्पन्न
होने से गुरु द्वारा सामान्य बजानेवाले को बुलाने के लिए कहना

एक बार एक उत्सव के समय गुरु ने मुझे एक ढोल बजानेवाले को बुलाकर लाने के लिए कहा । मैं संगीत का ज्ञान रखनेवाले ढोल बजानेवाले को बुलाकर लाया । स्वामी पूजा प्रारंभ करेंगे कि इतने में ही उसने ढोल बजाया । स्वामीजी मुझे बुलाकर बोले, ‘‘अरे कण्णा (बेटा), मुझ पर एक उपकार करोगे ?’’ गुरु के ऐसा कहने पर ‘मुझसे क्या गलत हुआ होगा ? मुझसे उन्हें कोई कष्ट हुआ होगा ? वे ऐसे क्यों कह रहे हैं ?’, ऐसे विचार मेरे मन में आए । वे बोले, ‘‘तुम जिस ढोल बजानेवाले को लेकर आए, उसे कितने पैसे देने हैं, उसे दे दो । मैं दीपाराधना एवं कर्पूरारती करूंगा । उस समय किसी भी सामान्य बजानेवाले को बजाने के लिए कहाे । आरती करते समय ढन-ढन-ढन बजाते हैं । उतना भी चलेगा ।’’ मैं जिसे जानकार समझकर लाया था, उससे ढोल बजाते समय थोडे अपस्वर उत्पन्न हो गए थे ।

 

१०. गुरु का देहत्याग

१० अ. जीवन का अंत समीप है, ऐसा गुरु का बताना
एवं गुरु को रुग्णालय से आश्रम में लाकर रातभर प्रार्थना
कर दीप सहित पूजा करने पर उनका देहत्याग करना

अंतिम दिनों में गुरु ने मुझसे कहा, ‘‘वैद्यकीय क्षेत्र के लोग मेरी जांच करेंगे । परिस्थिति ऐसी होगी कि यह मेरी अंतिम श्वास होगी । तब सर्व तैयारी होनी चाहिए; इसलिए तुम्हें बताता हूं ।’’ तब मुझे बहुत चिंता हुई । मैं जब रुग्णालय में गया तब वे मुझसे बोले, ‘‘मैं १०० वर्ष जीवित रहा, तब भी तुम्हें लगेगा कि ‘मैं रहूं’ ! मैंने कहा, ‘‘आप नहीं जाओगे । मैं आपको नहीं छोडूंगा ।’’ उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा । हाथ रखते ही मेरा मन स्थिर हो गया । तदुपरांत मैं आश्रम में आया । मुझमें धैर्य उत्पन्न हुआ । मैं आधुनिक वैद्य को गुरु की स्थिति बताई । ‘‘उन्हें आश्रम में ले जाने की अनुमति दें’’, ऐसा कहकर उनकी अनुमति से गुरु को आश्रम में लाया । रात भर प्रार्थना कर, उनकी दीप से पूजा की । अंत में उन्होंने सहजता से प्राण त्याग दिए । उन्होंने रामनवमी के दिन देहत्याग किया ।

 

११. प.पू. रामभाऊस्वामी ने किया हवन

११ अ. किसी स्थान पर यज्ञ के लिए जाएं अथवा न जाएं, इस विषय में ईश्वरीय संकेत मिलना

अंत:करण में दैवीय सान्निध्यत्व आता है । भगवान से आज्ञा मिलने पर ही संकेत मिलते हैं । प्रथमत: हमें संकेत आता है, ‘जाओ अथवा न जाओ ।’ मन को स्पष्ट संकेत आता है । पहले मुझे सनातन के रामनाथी, गोवा के आश्रम में आने के लिए एक दिनांक दिया था । उस समय इतनी अडचन आई कि हम आ नहीं सके । मैंने स्वामीजी से (मन से) पूछा, ‘ऐसा कुछ हो सकता है क्या ? इतनी अडचनें ! हमारा निर्धारित कार्यक्रम कभी रहित नहीं हुआ । इसका कारण क्या है ?’ एक माह के उपरांत स्वामीजी (अंदर से) बोले, ‘अब वातावरण अच्छा है । अब निकल सकते हैं ।’

११ आ. गांव के व्यक्ति द्वारा मंदिर अशुद्ध करने से
१४ वर्ष गांव में पानी न बरसना एवं स्वामीजी के हवन करने के उपरांत ३ घंटे वर्षा होना

११ आ १. गांव के व्यक्तिद्वारा मंदिर अशुद्ध होना ज्ञात होने पर वहां वर्षा होने की मन में शंका आना, फिर गांववासियों द्वारा पुष्टि होना कि वहां १४ वर्ष वर्षा न होना, अत: वर्षा हेतु हवन आरंभ करना

मद्रास (चेन्नई) से १०० किलोमीटर की दूरी पर कांचीपूरम के निकट ‘दामल’ नामक एक गांव है । उस गांव में एक मंदिर है । उसे लोगों ने अशुद्ध किया था । मैंने विचार किया, ‘मंदिर अशुद्ध किया है, तो वार्षिक वृष्टि (वर्षा) कैसे होगी ?’ मेरे पूछने पर वहां के लोगों ने बताया, ‘‘गत १४ वर्षों से उस गांव में वर्षा नहीं हुई है ।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘वृक्ष के मूल में पानी देने से वृक्ष में परिवर्तन होता है । वृक्ष पर पानी डालने से क्या लाभ ? वृक्ष का मूल गांव का मंदिर है । वह मंदिर तुम प्रेमभाव से शुद्ध करो । उसी दिन मैं तुम्हें वर्षा करके दिखाउंगा ।’’ उस समय मैं हैद्राबाद (भाग्यनगर) हवन के लिए गया था । मैंने उन्हें बताया, ‘‘यहां एक यज्ञ संपन्न कर लौटते समय मैं वहां आऊंगा । तुम तैयारी करके रखो । वर्षा अवश्य होगी । मैं दिखाऊंगा ।’’ उस गांव में वर्षा न होने से मुझे बहुत बुरा लग रहा था; इसलिए मैंने प्रार्थना की । वहां के लोग निर्धन होने से मैंने अपने चेन्नई के भक्ताें से कहा, ‘‘तुभ सब तैयारी करो । मैं हवन करता हूं ।’’ अगले ९ घंटों में मैंने उस मंदिर में हवन आरंभ किया । गांववासियों ने मेरा उत्साह बढाया । उनके मन में ईश्वरीयसान्निध्य (भाव) न होते हुए भी उन्होंने मेरे लिए छत्र, चामर आदि उपचार किए । अंत में मुझे ज्ञात हुआ कि उन्होंने ये उपचार वर्षा के लिए किए ।

११ आ २. यज्ञ आरंभ होने के उपरांत ३ घंटे पश्चात भी वर्षा न होने से अग्नि में विलीन होना तय करना

यज्ञ के आरंभ के ३ घंटे रेगिस्तान समान वातावरण था । यदि वर्षा नहीं हुई, तो मेरा मान ही चला जाएगा । भगवान का सान्निध्यत्व चला जाएगा; इसलिए मैंने अग्नि में ही विलीन होना तय किया । अग्नि को बताया, ‘मैं आपके चरणों से दूर नहीं जाऊंगा । ये लोग फिर किसे पूछेंगे ? मैं वहां से लौट आया, तभी तो पूछेंगे ना ?’ तदुपरांत मैं यज्ञ में उतर गया । तब मुझे इन लोगों का कष्ट हुआ । कष्ट अर्थात किसी ने मेरा हाथ खींचा, तो किसी ने पैर खींचे ।‘ मैं भावपूर्ण प्रार्थना कर रहा था’, यह उन्हें पता नहीं था ।

११ आ ३. यज्ञ की पूर्णाहुति होने पर स्वामीजी बेसुध होना, तदुपरांत वर्षा का वातावरण निर्माण होने से एकत्र हुए लोग स्वामीजी के पास आना आरंभ होना, भीड में कुचल न जाएं इसलिए स्वामीजी को एक गुफा में ले जाना तथा ३ घंटे वर्षा होना

‘हमारे लिए स्वामी अग्नि में प्रवेश कर रहे हैं’, यह देख लोगों ने अश्रुभरे नेत्रों से प्रार्थना की । कोई कितना भी नास्तिक हो, तब भी ‘किसी जीव को कष्ट हो रहा हो’, तो उसकी करुणा जागृत हो ही जाती है । यज्ञ की पूर्णाहुति होने पर मैं बहुत थक गया । मैं बेसुध हो गया । जब मेरी सुध लौटी तो मैंने स्वयं को एक गुफा में पाया । मेरा सिर मेरी बहू की गोद में था और उसने मुझे इलेक्ट्रॉल का पानी पीने के लिए दिया । मैंने उससे पूछा, ‘‘मैं वहां कैसे आया ?’’ उसने कहा, ‘‘आप बेसुध थे । वातावरण में एकदम परिवर्तन हो गया और ठंडी हवाएं चलने लगीं । वर्षा का वातावरण हो गया था । इसलिए लोगों की भीड आपके पास आने लगी; इसलिए हम आपको यहां ले आए ।’’ मैंने वहां जाकर देखा, तो वास्तव में वहां बहुत भीड थी । वर्षा ३ घंटे हुई ।

११ इ. पूर्ण फलश्रुति मिलने तक उपासना करना आवश्यक !

जब मुझे लोककल्याणार्थ के लिए बुलाते हैं, तब मुझे जाना ही पडता है । मैंने किसी व्यक्ति के लिए कभी भी यज्ञ नहीं किया । केवल वातावरण की अनिष्ट शक्तियों का निवारण करने तक ही नहीं, अपितु पूर्ण फलश्रुति मिलने तक उपासना करनी चाहिए । फलश्रुति प्राप्त होने का हमें दूरभाष आना चाहिए ना ? इसीलिए मैंने बेंगळूरू में सलग २७ दिन यज्ञ किया । यज्ञ के उपरांत कावेरी का पानी तमिलनाडु में आया ।

 

१२. प.पू. रामभाऊस्वामी द्वारा विविध विषयों पर मार्गदर्शन

१२ अ. पंचमहाभूत एवं शरीर का संबंध

१२ अ १. पंचभूतात्मक सूक्ष्म शक्ति के सान्निध्यत्व मन में एकत्र होने से षड्रसों का स्वाद समझ में आना

अनेक लोगों ने मुझे पूछा, ‘‘आप ऐसे हवन करते हैं । मोदक इत्यादि अग्नि में डालते हैं । उससे क्या होनेवाला है ? इसके स्थान पर किसी को खाने के लिए क्यों नहीं देते ? जिसे जो अच्छा लगता है, उसे वह देने से उनका पेट भरेगा । आप यह अग्नि में क्यों डालते हैं ? हवन में इतना घी डालना होता है क्या ?’’ तब मैंने उन्हें बताया, ‘‘पृथ्वी, आप, तेज, वाय एवं आकाश, इन पंचमहाभूतों से देह उत्पन्न हुई है । देह को खाद्य चाहिए; इसलिए हम खाते हैं । उसकी शक्ति कहां मिलती है ? पंचभूतात्मक सूक्ष्म शक्ति का सान्निध्यत्व मन में एकत्र हुआ है । इसलिए जो खाते हैं, उसके रस के कारण षड्रस ‘यह मीठा’, ‘यह नमकीन’, ‘यह खट्टा’ समझ में आता है । सूक्ष्म रूप से इसमें जो अंश हममें अधिक होता है, वह पदार्थ हमें अधिक अच्छा लगता है; इसलिए किसी को मीठा अधिक अच्छा लगता हैै । किसी को नमकीन अच्छा लगता है तो किसी को खट्टा ? किसी को तीखा क्यों अच्छा लगता है ?, वह इसलिए कि उसमें अग्नि का सान्निध्यत्व अधिक है ! मछली में जलांश अधिक होता है; इसलिए वह पानी में रहती है । हममें पृथ्वीतत्त्व का अंश अधिक है; इसलिए हम पृथ्वी पर रहते हैं । हम जल में रही ही नहीं सकते । इसलिए जिस पंचभूत का अंश अधिक होता है । उसके कारण उसका प्रभाव दिखाई देता है ।’’

१२ अ २. अग्निउपासना द्वारा एक-एक पंचभूत के अंश का थोडा-थोडा त्याग करने के उपरांत ही उसका अनुग्रह मिलना एवं इससे कठिन प्रारब्ध से बाहर आना संभव होना

जिस पृथ्वीअंश से प्रार्थना करने से शरीर बढता है, वैसे शक्ति भी (पावर भी) बढती है । कृतज्ञताभाव से अग्नि से प्रार्थना कर हवन करने से उसकी शक्ति मिलती है । अग्नि के सान्निध्य के कारण उसका अनुग्रह मिलता है । अग्नि में कुछ अर्पण करने पर वह भस्म हो जाती है । ऐसे प्रत्येक पंचभूत के अंश का थोडा-थोडा त्याग करने के पश्चात ही उसका अनुग्रह मिलता है । इसीलिए एक-एक अंश की पूजा इत्यादि कर अग्नि को आहुति देते हैं । पृथ्वी फसल देती है । दैवीय सान्निध्य के कारण भरपूर मात्रा में फसल होती है । भूमि अनाज देती है; इसलिए जो उत्पन्न मिलती है, वह पूरी नहीं खाते । उसमें का एक अंश भूमि में बोते हैं । जितना बोते हैं, उतना अंश बढता जाता है । हमें भूमि में क्यों बोना है ? हमें भूमि को क्यों देना है ? हम ही सब खाएंगे तो आगे कैसे उत्पन्न होगी ? दैवीय सान्निध्य में पंचभूतों का अंश है । इसलिए प्रत्येक को प्रत्येक अंश से प्रार्थना कर उसका सान्निध्यत्व प्राप्त करना चाहिए । इसीलिए यह अग्निउपासना ! अग्निहोम के कारण एवं उसके सान्निध्य के कारण कठिन प्रारब्ध से बाहर आ जाते हैं ।

१२ आ. मन एवं आत्मा की एकरूपता

१२ आ १. शरीर त्यागने का समय आने पर भी मन एवं आत्मा की एकरूपता होना

शरीर पंचमहाभूतों से बना है । उसमें आत्मा एवं मन, ये दाेनों एकदूसरे में अटके हैं । उन्हें अलग करना बहुत कठिन हाेता है । शरीर का त्याग करने का समय आने पर भी मन एवं आत्मा एकरूप ही होते हैं । उन्हें अलग नहीं कर सकते । इसे शरीर से अनुभव कर सकते हैं ।

१२ आ २. मन को आत्मा से दूर करना कठिन होना

त्यागेनैकेन अमृतत्त्वमानशुः ।

अर्थ : त्याग के कारण अमृत की प्राप्ति होती है ।

शरीर का त्याग करने के पश्चात ही पाप दूर कर सकते हैं । शरीर नहीं, तो पाप का विमोचन कैसे करेंगे ? मन को आत्मा से दूर करना, इसे ‘मोक्ष’ कहते हैं । इन दोनों को अलग करना बहुत कठिन होता है । मन में सकारात्मक (पॉजिटिव) एवं नकारात्मक (निगेटिव) का जोर होता है । मन की नकारात्मकता पर जब सकारात्मक की विजय होती है, तब ही मोक्ष मिलता है ।

१२ इ. पाप-पुण्य

१२ इ १. हम पुण्य का अनुभव लेते हैं, तब संतोष (सुख) मिलता है । पाप का अनुभव लेते समय दुःख होता है ।
१२ इ २. पापों का नाश शरीर से करना आवश्यक !

चींटी के काटने पर हम कहते हैं, ‘पाप हो गया इसलिए चींटी ने काटा; परंतु बिच्छू के काटने पर हम ऐसा कह सकते हैं क्या ? कहना सरल होता है; परंतु उस दुख का प्रभाव कितना होता है, यह उसी से पूछो जिसे बिच्छूदंश हुआ है । तभी समझ में आएगा । अपने पापों का नाश हमें शरीर से ही करना होगा ।

१२ ई. श्राद्ध का महत्त्व

कर्म करने से अधिक प्राप्ति होती है; इसलिए अपने हिन्दू धर्म में जिन्होंने हमें जन्म दिया, जिन्होंने हमारा पालन-पोषण किया, उनके प्राण त्याग देने के पश्चात हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो उनका चिंतन एवं मन से प्रार्थना कर अश्रुपूर्ण नेत्रों से कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । इसीलिए पहले दिन हम उपवास करते हैं । उसके अगले दिन से अन्नदान एवं तिलदान करते हैं । गत तीन पीढियों का (पितृ, पितामह, प्रपितामह एवं मातृ, मातृक, मातामह) स्मरण कर उनका श्राद्ध करते हैं । उस रात फलाहार करते हैं ।

१२ ई १. पितरों को अन्न अर्पण करने पर वे तृप्त होकर उनका आशीर्वाद मिलना एवं उनके प्रति कृतज्ञ रहने पर भगवान का सान्निध्य अपनेआप मिलना

जब श्राद्धविधि करना संभव नहीं होता, तब पितरों का स्मरण कर जो अन्न हम खाते हैं, वह किसी को तो देते हैं । वे तृप्त होने से उनका आशीर्वाद हमें मिलता है । अब कोई ऐसे पूछेगा, ‘जिसकी मृत्यु हो चुकी है, जिसने अब दूसरा जन्म ले लिया होगा, तो उनका स्मरण कर उनकी प्रार्थना क्यों करनी है ?’ इसका उत्तर ऐसे है, ‘उन्होंने हमें जन्म दिया । हमारे लिए इतना सब किया । उसे कभी भी मिटा नहीं सकते । उनके कर्मों के अनुसार उन्हें अगला जन्म मिलता है; परंतु देह छोडकर जाते समय जीवन में जो-जो होता है, वे सर्व भगवान को अर्पण करके जाते हैं । तब भगवान क्या करता है ? प्रतिनिधि के रूप में माता-पिता को भेजता है । वे हमारा पालन-पोषण करके बडा करते हैं । जाते समय वे हमारे लिए संपत्ति इत्यादि सभी का त्याग करते हैं । यदि उनके प्रति हमने कृतज्ञता व्यक्त नहीं की, तो अदृश्य भगवान पर हमें कितना विश्वास होगा ? फिर भगवान को हम कैसे अनुभव करेंगे ? इसीलिए जो पितर हैं, उन्हें प्रार्थना करनी चाहिए । उनके विषय में कृतज्ञ रहना चाहिए । अर्थात अपनेआप भगवान का सान्निध्य मिलता है ।’

१२ ई २. भगवान जो हमें दे रहा है, उस विषय में मन में कृतज्ञता होना आवश्यक !

दैवीय सान्निध्य के कारण हमें भगवान लौकिक जीवन के लिए प्रतिदिन दे ही रहा है । भगवान ने जैसे द्रौपदी को वस्त्र आपूर्ति की, वैसे वह हमें भी सब कुछ दे ही रहा है । हम उसे उपभोग रहे हैं; परंतु हमें उसका रसास्वाद भी लेना चाहिए ना ! कितनी भी रसोई बनाएं, परंतु खानेवाले ने यदि उसका रसास्वाद नहीं लिया, तो उसका रसोई बनानेवाले को क्या लाभ होगा ? भगवान हमें जो जो दे रहे हैं, उस विषय में मन में कृतज्ञता होनी चाहिए । हम जो खाते हैं, उसमें से पहला निवाला उनके लिए रखना चाहिए । कॉफी, चाय जो कुछ भी हम लेते हैं, वह मन में कृतज्ञता रखकर किसी एक को तो देनी चाहिए । मन से स्मरण कर देने पर, वह उस जीवात्मातक पहुंचता है । इसमें प्रार्थना महत्त्वपूर्ण होती है । लोगों का त्याग बहुत कम पडता है; इसलिए मुझे दु:ख होता है । वैदिकों के केवल कृति करने से लाभ नहीं होगा; परंतु वे साधना करते हैं, वैसी प्रार्थना, नियम, आहार जैसे करेंगे, वैसे उनकी साधना होगी । फिर उनके मन का उद्देश्य पूर्ण करने के लिए भगवान का अनुग्रह होता है । यह मुझे स्पष्ट दिखाई देता है ।’

१२ उ. मूलाधार से सहस्रार तक जाने का महत्त्व

१२ उ १. मूलाधार से सहस्रार तक आनेपर जप का मह‍त्व समझ में आना

मूलाधारवरक्षेत्रनायकाय । (संदर्भ : अज्ञात)

अर्थ : ‘मूलाधार’ इस श्रेष्ठ स्थान के स्वामी (गणपति को मेरा नमस्कार है ।)
मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र में आने पर हमें जप का मह‍त्त्व समझ में आता है । स्विच दाबने पर ब‍त्ती जलती है, वैसे ही मूलाधार से सर्व उत्पन्न होता है । आप उनसे (परमेश्वर से) एकरूप होते हैं । एक तुम्हारा मन है, एक मेरा मन है और सभी का मन है । वर्तमान में एक सेल (बैटरी)का उदाहरण लीजिए । स्विच दाबने पर एक सेल से दूसरे सेल में जाते हैं । यदि सामान्य सेल में इतनी ऊर्जा है, तो मन में कितनी चुंबकीय ऊर्जा (मैग्नेटिक पॉवर) होनी चाहिए !

१२ उ २. मूलाधार से सहस्रार तक लीन होकर प्रार्थना करने पर, अपनेआप ही आंखों से अश्रुधारा आती है ।

१२ ऊ. उपासना का महत्त्व

१२ ऊ १. दैवीय सान्निध्यत्व की वृद्धि करने के लिए योग्य आहार एवं बडे-बूढों द्वारा बताए व्रत-कुलाचार करना आवश्यक

दैवीय सान्निध्यत्व का बहुत महत्त्व है । वे प्रारब्ध टाल सकते हैं । दैवीय सान्निध्यत्व को अपने मन में उत्पन्न कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए । इसे ‘मन नियंत्रण में रखनेवाली शक्ति’ (‘कंट्रोलिंग पॉवर ऑफ द माइंड’), कहते हैं । मन नियंत्रण में रखने के लिए आहार, घर के बडे-बूढों द्वारा बताए व्रत-कुलाचार करने चाहिए ।

१२ ऊ २. बताई गई पद्धति से पठन करने पर मंत्रों का लाभ होना एवं विष्णुसहस्रनाम कहते हुए प्रार्थना की जोड देने पर वह प्रभावी होना

मननात् त्रायते इति मन्त्रः ।

अर्थ : जिसका मनन करने पर रक्षा होती है, वह मंत्र ।

श्रीविष्णुसहस्रनाम की फलश्रृति में कहा है,

रोगार्तो मुच्यते रोगाद् बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।

भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥

अर्थ : विष्णुसहस्रनाम का पठन करने से रोगी रोगमुक्त होता है । बंदी बंधनमुक्त होता है । मन में भय उत्पन्न हुआ हो, तो वह भय से मुक्त होता है । बडी विप‍त्ति में फंसा हो, तो उससे बाहर आ जाता है ।

कोई विष्णुसहस्रनाम का पारायण करता है, तब भी उसे कुछ साध्य नहीं होता; परंतु विष्णुसहस्रनाम के रचयिता तो महर्षि व्यास हैं !

ऋषिनां पुनर्रादारं आचमनोंत्भावति ।

अर्थ : ऋषियों का कथन कभी असत्य नहीं हो सकता ।

अर्थात चूक अपनी ही है । पारायण करते हुए चूक होती है । हम मंत्र चिल्लाकर कहते हैं । भूमि पर बैठकर कहते हैं । हमारा मन बाहरी बातों में उलझा होता है । ऐसी स्थिति में किए गए पारायण का फल नहीं मिलता । एकाग्रता साधने के लिए जिस पद्धति से पारायण करने के लिए कहा गया है, उस पद्धति से ही उसे करना चाहिए । हमें एक बैठक डालकर उसपर आसन डालकर बैठें । तब उस मंत्र का प्रभाव मिलता है । विष्णुसहस्रनाम को प्रार्थना की जोड देने पर ही वह प्रभावी होता है ।

१२ ऊ ३. केवल वेदपठन करने से ईश्वर का सान्निध्य न मिलना अपितु केवल शब्दजाल होना, जबकि पठन करने के साथ ही नियमों का पालन करने से ज्ञान मिलना

लोग वैदिक संस्कृति की शिक्षा लेते हैं; परंतु उनसे नियमों का पालन नहीं होता । आहार में नियम हों, तब भी अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण आता है, उदा. हम कुछ गोलियां लेते हैं । कुछ लोग नींद की गोली लेते हैं; परंतु ‘नींद की गोली ली, तब भी मैं नहीं सोऊंगा’, ऐसा संभव है क्या ? इसी समान इंद्रियनिग्रह भी है । इसीलिए आहार में नियम होना चाहिए । उन नियमों का पालन कर प्रार्थना, मंत्र, नियम, आसन, ये सभी बातें करनी चाहिए । ऐसा करने पर ही वैदिक मंत्रों का पठन उपयुक्त होता है एवं एक अमूल्य शक्ति प्राप्त होती है; इसीलिए वैदिक उपासना करनेवालों को नमस्कार करना चाहिए । वेदमंत्रों के केवल शब्द हमें उपयोगी नहीं होंगे । वेदमंत्रों का पठन करनेवाले को नियमों का पालन करना होगा । जप, तप, नियम, आसन, श्रद्धा सभी कुछ होना ही चाहिए । इंद्रियनिग्रह करना आरंभ करने पर हमें ज्ञान मिलने लगता है । मन को नियंत्रण में रखनेवाली शक्ति महत्त्वपूर्ण है । केवल वेदपठन करने से हमें ईश्वर का सान्निध्य नहीं मिलता । वह केवल शब्दजाल होता है ।

१२ ऊ ४. दूसरों के लिए कुछ कार्य करने से तृप्ति मिलती है । उसके लिए ‘साधना करनी चाहिए’, ऐसा लगना चाहिए ।
१२ ऊ ५. संसार में पद्मपत्र (कमल के प‌त्ते) समान रहें और संसार में काम करना अनुकूल होने के लिए उपासना करें !

गुरु कहते हैं, ‘साधना के रूप में यह कार्य करें । शेष जो लगे वह करें ।’ गुरु संकल्प बताते हैं । उसे तो पूर्ण करना होता है । गुरु काल बताते हैं, ‘१८ दिन करो । १९ दिन करो ।’ पद्मपत्र पर (कमल के प‍त्ते पर) पानी डालने पर भी पानी प‍त्ते को नहीं लगता । वह अलिप्त रहता है । संसार में काम करना अनुकूल हो, इसलिए संत होना चाहिए । राम की उपासना करनी चाहिए । संसार नहीं किया, तो राम को अनुकूल नहीं होंगे । लौकिक सेवा नहीं होगी । लोककल्याण करना चाहिए । सर्व त्याग कर हम अकेले बेैठकर क्या करेंगे ? त्याग भी होना चाहिए; इसीलिए ऐसा कहा है,

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ॥ (संदर्भ : अज्ञात)

अर्थ : जिसप्रकार छोटी-बडी नदियां समुद्र में मिल जाने पर स्थिर हो जाती हैं, उसीप्रकार अन्य सर्व आश्रमवासी गृहस्थाश्रमी मनुष्य के पास जानेपर स्थिर हो जाते हैं । (अन्य आश्रमवासियों की स्थिति गृहस्थाश्रमी लोगों पर निर्भर होती है ।)

१२ ऊ ६. प्रार्थना का महत्त्व – गुरुसेवा में बाधा लानेवाले शनिदेव को हनुमान ने सबक सिखाया एवं आगे अपनी उपासना करनेवाले को कष्ट नहीं देना घोेषित करना

रामायणकाल में राम-रावण युद्ध के समय हनुमानजी को शनि की साढेसाती थी । शनिदेव हनुमानजी से बोले, ‘‘मुझे तुम्हारे सिर पर बैठना है ।’’ हनुमानजी ने शनिदेव से प्रार्थना करते हुए कहा, ‘‘मैं अभी श्रीरामजी की सेवा में हूं । तब तक तुम रुको । तदुपरांत तुम जो कहोगे, मैं सुनूंगा ।’’ शनिदेव सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे । वे बोले, ‘‘मैं तुम्हारे सिर पर बैठूंगा ही ।’’ वे हनुमान के सिर पर जाकर बैठ गए । तब हनुमानजी ने एक बडा पर्वत सिर पर ले लिया । इससे हनुमान के सिर और पर्वत के बीच शनिदेव दब गए । हनुमान उनसे बोले, ‘‘अरे, तुमने मुझे पकड ही लिया है ना ? फिर अब बैठो । ‘शनि ने पकड लिया तो क्या होता है’, यह लोगों को पता है; अब ‘हनुमान पकड ले तो क्या होता है’, तुम्हें पता चलेगा । मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा । तुमने यदि छोड दिया, तब भी मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा ।’’ तब पर्वत लेकर वे दोनों नरक में गए । हनुमान ने पर्वत को नीचे रखा । शनिदेव के नीचे गिरने से पैर में चोट आ गई । इसलिए हनुमान ने पुन: शनिदेव को सिर पर रख लिया । तब शनिदेव उनके पैरों पर गिर पडे और बोले, ‘‘मुझे छोड दो । मैं अब तुम्हें पुन: कष्ट नहीं दूंगा ।’’ इस पर हनुमानजी ने शनिदेव को आज्ञा दी, ‘‘अब से मुझे भी कष्ट नहीं देना है और मुझे कष्ट देनेवाले को भी नहीं देना है ।’’ शनिदेव बोले, ‘‘मुझे दो बातें प्रिय हैं । एक उडद और दूसरा तेल ।’’ तब हनुमानजी ने राम से प्रार्थना कर राम की आज्ञा मानकर शनिदेव को छोड दिया । प्रार्थना का इतना महत्त्व है; इसलिए हम मन से प्रार्थना करते हैं और शनिवार को शनि को उडद और तेल चढाते हैं । उन्हें जो चाहिए वह देते हैं ।

 

१३. प.पू. रामभाऊस्वामी एवं परात्पर गुरु डॉ. आठवले

१३ अ. प.पू. रामभाऊस्वामी ने उन्हें स्वयं को
एवं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को अध्यात्म की दृष्टि से
क्या संबोधित करना है, इस विषय में किया मार्गदर्शन

१. प.पू. रामभाऊस्वामी : आप अंतःकरण से जिस भाव से देखेंगे, वैसे हमें बताओ । मुझे योगी कहें, ऐसा मैंने कभी नहीं कहा ।

२. परात्पर गुरु डॉ. आठवले : लोककल्याण के लिए जो सिद्धपुरुष होते हैं उन्हें सिद्ध संबोधित करें !

लोककल्याण के लिए जो सिद्धपुरुष पृथ्वी पर आए हैं, उन्हें सिद्ध कहकर ही संबोधित करना है । वे लोककल्याण के लिए प्रयत्न करते हैं । साधना करते हैं । यह सब कुछ उनके त्याग के कारण ही होता है । इसलिए वे त्यागपुरुष ही होते हैं । उन्होंने यदि त्याग नहीं किया, तो आप सेवा कहां से करेंगे ? मैं भगवान की सेवा करने के लिए तैयार हूं; परंतु भगवान ही नहीं, तो सेवा किसकी करेंगे ? इसीलिए त्यागपुरुष होना ही चाहिए ना ! कुछ त्याग करने पर ही सेवा करने मिलेगी । इसलिए वे अंत में त्यागीपुरुष ही होते हैं । इसीलिए यह इतना बडा रामनाथी आश्रम, सब कुछ मन जैसा हुआ । प.पू. डॉक्टरजी को साधकों का कितना ध्यान रहता है ! वह सभी चिंता दूर कर वे समर्थ होते हैं ना !

१३ आ. प.पू. रामभाऊस्वामी की परात्पर गुरु
डॉ. आठवलेजी से भेंट एवं रामनाथी आश्रम के साधकों के विषय में गौरवोद्गार !

१३ आ १. परात्पर गुरु डॉ. आठवले से भेट होना, यह सौभाग्य की बात होना

प.पू. डॉक्टरजी की भेट का विशेष महत्त्व है । यह रहस्य अर्थात एकदूसरे के प्रति विश्वास होता है । वह मन से आना चाहिए ।

मनो हि जन्मान्तरसङ्गतिज्ञम् । – महाकवि कालिदास

अर्थ : जन्मांतर (सत्)संगत में हुआ, तो ऐसा सौभाग्य मिलता है ।

१३ आ २. रामनाथी आश्रम के साधकों की प्रत्येक कृृति, वृ‍त्ति एवं बुद्धि का त्याग दिखाई देना एवं उसमें आश्रम का विकास होना चाहिए, ऐसा विचार होना

प्रत्येक स्थान की (मृत्तिका का) मिट्टी का उस स्थान पर प्रभाव होता है । कश्मीर में सेब की फसल होती है, जो अन्यत्र नहीं होती । प्रदेशानुरूप उस भूमि की एक अनुकूल शक्ति होती है । रामनाथी आश्रम के साधकों की प्रत्येक कृृति, वृ‍त्ति एवं बुद्धि में त्याग दिखाई दिया । त्याग में आश्रमवृद्धि (आश्रम का विकास) होना चाहिए , ऐसे लगा । ऐसा लगा आपने सर्वांगीण त्याग कर आश्रम बनाया है ।

त्यागेनैकेन अमृतत्त्वमानशुः ।

अर्थ : त्याग के कारण अमृत की प्राप्ति होती है ।

 

१४. प.पू. रामभाऊस्वामी एवं अनिष्ट शक्ति

१४ अ. साधना करते समय अनिष्ट शक्तियों का कष्ट होता ही है !

हम साधना करते हैं, तब वहां अनिष्ट शक्तियां आती ही हैं । कोई तो ढकेलता है । कार्य आगे-आगे जा रहा है । साथ में आनेवाले लोगों को अडचनें आती हैं । जो काम करते हैं उसमें अडचनें आती हैं इत्यादि ।

१४ आ. रोगी ठीक होने के लिए भगवान से
प्रार्थना करने पर रोगी को दैवीय सान्निध्य प्राप्त होने से
उन्हें कष्ट देनेवाली अनिष्ट शक्ति सकारात्मक होने लगना

हमारे पास कितने ही रोगी ठीक हों, इसलिए हमारे पास आते हैं । मनोरोगी आते हैं । कर्करोगी, क्षयरोगी जांच की रिपोर्ट लेकर आते हैं । मैं उनकी ओर एवं भगवान की ओर देखकर प्रार्थना करता हूं । इसलिए उनकी शक्ति हमारे पास नहीं आती और उन्हें दैवीय सान्निध्य मिलता है । उनका कार्य पूर्ण होने लगता है । अनिष्ट शक्ति अच्छी सकारात्मक होने लगती है ।

 

१५. अन्य सूत्र

१५ अ. जलसाधना करनेवाले राजस्थान के सिद्धपुरुष !

राजस्थान में एक सिद्धपुरुष एक सरोवर के पानी में तप करते हैं, ऐसे मैंने सुना था । वे सिद्धपुरुष १ घंटा अथवा २ घंटे पानी में रहते हैं । पंचमहाभूतों में उनकी पानी की, अर्थात जलसाधना है । – प.पू. रामभाऊस्वामी, तंजावूर, तमिलनाडु.

१५ आ. चेन्नई में हुए वर्ल्ड योगी कॉन्फरन्स के
अध्यक्ष ने प.पू. रामभाऊस्वामीजी को देखने पश्चात उन्हें एकमेवाद्वितीय कहना

चेन्नई में वर्ल्ड योगी कॉन्फरन्स (जागतिक योगी सम्मेलन) हुई थी । उस समय सम्मेलन के अध्यक्ष बोले, हमने आजतक अनेकों के बारे में सुना था; परंतु स्वामीजी को (प.पू. रामभाऊस्वामी को) प्रत्यक्ष देखने मिला । वे एकमेवाद्वितीय हैं । – श्री. गणेश गोस्वामी (प.पू. रामभाऊस्वामी के सुपुत्र एवं शिष्य)

(सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने प.पू. रामभाऊस्वामी की ली भेंट के सूत्र)

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