दान और अर्पण का महत्त्व एवं उसमें भेद

१. प्राचीन काल के राजाओं द्वारा किया दानधर्म

‘पात्रे दानम् ।’ यह सुभाषित सर्वविदित है । दान का अर्थ है ‘किसी की आय और उसमें से होनेवाला व्यय घटाकर, शेष धनराशि से सामाजिक अथवा धार्मिक कार्य में योगदान ।’ धन के अतिरिक्त भूमि, आभूषण और कपडे (देवी के लिए चोली, साडी आदि) ऐसे अनेक माध्यम से दान किया जाता है । प्राचीन काल में राजा-महाराजा हिन्दू मंदिरों में बडे-बडे दान करते थे । भारत के केरल राज्य में स्थित श्री पद्मनाभ मंदिर की संपत्ति अब भी अगणित है । पुण्यश्‍लोक अहिल्यादेवी होल्कर जब रानीपद पर आसीन थीं, तब उन्होंने मिलनेवाले मानदेय से विविध मंदिरों का जीर्णोद्धार किया । इसकी साक्ष्य उत्तर में वाराणसी से लेकर दक्षिण में घृष्णेश्‍वर शिवमंदिर तक है ।

 

२. दान देनेवाले को इसकी निश्‍चिति करनी चाहिए कि
‘अपना पैसा योग्य कार्य के लिए और योग्य मार्ग से खर्च किया जा रहा है न ? ’

कई परोपकारी लोग सामाजिक कर्तव्य के भ्रम में रहने से वे कुछ स्वयंसेवी संगठनों को (एनजीओ को) दान करते हैं । दान करते समय, दानकर्ताओं को यह सुनिश्‍चित करना आवश्यक है कि उनका पैसा योग्य कार्य और योग्य ढंग से व्यय (खर्च) हो रहा है न ?’ अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं मिले हुए दान से पूर्णकालिक कर्मचारियों को वेतन देते हैं, उनके कार्यालयीन खर्च और वाहनों पर अनाप-शनाप खर्च करते हैं । मुंबई में एक स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) के लेखा परीक्षण में (एक ऑडिट) में पता चला है कि दान से प्राप्त धन एक पांच सितारा रेस्तरां (फाइव स्टार रेस्टॉरेंट) में निवास और मद्यपान पर खर्च किया गया था ।

 

३. दान ‘सत्पात्र’ होना आवश्यक !

‘सत्पात्र को दान’ यह संज्ञा महत्त्वपूर्ण है । हिन्दू धर्म, सनातन धर्म है । अतः इस धर्म का पालन करनेवाले को ही ईश्‍वरप्राप्ति और मोक्षप्राप्ति होती है । इसका लाभ अधिक से अधिक लोगों को हो इसलिए, ‘हिन्दू धर्म को प्रसार योग्य प्रकार करना’, यह प्रत्येक का कर्तव्य है । इसलिए दान देते समय सावधानी बरतना आवश्यक है । इसलिए, जो संगठन अथवा प्रतिष्ठान धर्मप्रसार और राष्ट्रकार्य में कार्यरत हैं, उनकी सहायता करना धर्मकार्य ही है ।

 

 

४. सनातन संस्था राष्ट्र और धर्म कार्य के लिए
कटिबद्ध है, इसलिए इसे दिया गया दान ‘सत्पात्र को दान’ है ।

 

५. दान और अर्पण में अंतर

अर्पण देना, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है । दान, यह दान देनेवाले की आय का एक भाग होता है; जबकि अर्पण अपने पास जो भी है वह संपूर्णरूप से अथवा उसके कुछ भाग का त्याग करना । गुरु के मार्गदर्शन में साधना करनेवाले साधक तन-मन-धन अर्पित करते हैं और जिन लोगों की ईश्‍वर पर दृढ श्रद्धा है वे इस श्रेणी में आते हैं । यद्यपि दान और अर्पण शब्द पर्यायवाची हैं, परंतु इसमें सूक्ष्म अंतर है । जो आगे दिया है ।

दान अर्पण
१. माध्यम धन, भूमि, आभूषण आदि स्थूल स्वरूप में तन, मन, बुद्धि और धन के स्थूल रूप में (जितना महत्त्वपूर्ण है मन और बुद्धि सूक्ष्म स्तर पर हैं)
२. दाता मध्यम वर्ग, धनवान, उद्योजक साधक, धार्मिक प्रवृत्ति के और वैराग्य प्राप्त तपस्वी ।
३. सहायता करनेवालों का भाव निरपेक्ष भाव
४. दाता में पाए जानेवाले त्रिगुण का अनुपात ३० प्रतिशत रजोगुण, ३० प्रतिशत तमोगुण और ४० प्रतिशत सत्त्वगुण ६५ प्रतिशत से अधिक सत्त्वगुण ।
५. अपेक्षा दान देनेवालों में लोकैषणा, ‘समाज को पूर्वजों का स्मरण हो’ इत्यादि अपेक्षा नहीं होती । (तिरुपति जैसे मंदिरों में गुप्त दान)
६. दाता को होनेवांली अनुभूतियां संपत्ति में वृद्धि और लाभ, कुछ अधूरी इच्छाओं की पूर्ति इत्यादि । ईश्‍वर से आंतरिक सान्निध्य बढना, आनंद एवं शांति की अनुभूति होना तथा वैराग्य में वृद्धि ।
७. कर्तापन का भाव होता है । नहीं होता ।
८. दूसरों को बताना होता है नहीं बताता । (वह किसी को बताना नहीं चाहता; क्योंकि उसका भाव होता है कि ‘मैंने कुछ नहीं किया ।’)
९. देनेवाले को आध्यात्मिक लाभ कुछ मात्रा में अमर्यादित लाभ होते हैं ।

‘ हे गुरुदेव, ‘आपने मुझे ये विचार व्यक्त करने की बुद्धि और अवसर दिया’, इसके लिए मैं आपके चरणों में कृतज्ञ हूं । ’

सनातन संस्था के राष्ट्र और धर्म कार्य के लिए अर्पण देने हेतु देखें । www.sanatan.org/en/donate

– श्री. शिरीष देशमुख, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (५.३.२०२०)

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