नमस्कार की योग्य पद्धति तथा उसका शास्त्र

दोनों हाथों के तलुवे एक-दूसरे के साथ जोडकर दोनों हाथों के अंगूठों का स्पर्श भ्रूमध्य के स्थान पर अर्थात दोनों भौवों के मध्य में करें । इस पद्धति से नमस्कार करते समय उंगलियों को ढीला छोडने से सत्त्वगुण कार्यरत होता है और जीव को बडी-बडी अनिष्ट शक्तियों से लडना संभव होता है । नमस्कार की मुद्रा से किसी एंटीना की भांति हमारी उंगलियों के माध्यम से देवता की शक्ति और चैतन्य ग्रहण होता है ।


नमस्कार करते समय हम हाथ जोडते हैं । ऐसा करने से पृथ्वी एवं आप तत्त्व का संयोग होने से भावजागृति होने में सहायता मिलती है ।

हाथ जोडकर पीठ से थोडा नीचे झुकने के कारण हमारे नाभिचक्रपर दबाव बनता है और उससे शरीर सात्त्विक तरंग ग्रहण करने हेतु संवेदनशील बनता है । नमस्कार से जीव की आत्मशक्ति भी जागृत होने में सहायता मिलती है । उसके कारण देवता से जो तत्त्व प्रक्षेपित होता है, तो उस चैतन्य को अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण करना संभव होता है ।

भ्रूमध्य के स्थान पर हाथों के अंगूठों का स्पर्श करने की मुद्रा के कारण जीव का शरणागत भाव जागृत होता है । ऐसा होने से ब्रह्मांड में जिस देवता का तत्त्व आवश्यक है, उस देवता की सूक्ष्म तरंग कार्यरत हो जाती हैं । इसके साथ ही ब्रह्मांड की वे सूक्ष्म तरंगें जीव के आज्ञाचक्र से अंदर जाती हैं । एक ही समय स्थूल और सूक्ष्म देहोेंं की शुद्धि होने में सहायता मिलती है ।

नमस्कार करने से देवता का चैतन्य, संपूर्ण शरीर में फैलने हेतु नमस्कार के पश्‍चात हाथों को सीधे नीचे न लाकर उन्हें हमारे अनाहतचक्र के पास अर्थात छाती के मध्य में लाएं । ऐसा करने से हमारा अनाहतचक्र जागृत होकर हमें सात्त्विकता ग्रहण करने में सहायता मिलती है ।

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