कर्नाटक के श्रीसंस्थान हळदीपुर के मठाधिपती प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी की साधकों के ध्यान में आईं गुणविशेषताएं !

‘हळदीपुर (जनपद उत्तर कन्नड), कर्नाटक के श्रीसंस्थान हळदीपुर के मठाधिपती प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी ने १९.९.२०१९ को सनातन के रामनाथी आश्रम का अवलोकन किया । इस अवसरपर उन्हें सनातन का रामनाथी आश्रम दिखाते समय मेरे ध्यान में आईं उनकी स्थूल एवं आध्यात्मिक गुणविशेषताएं निम्नांकित प्रकार से हैं –

प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

 

१. सिखने की तीव्र लालसा रखनेवाले प.पू. वामनाश्रम स्वामीजी

आश्रमदर्शन के आरंभ में चित्रीकरण की दृष्टि से साधकों ने उन्हें ध्वनिक्षेपक (माईक) लगाने की प्रार्थना की । तब प.पू. स्वामीजी ने बहुत नम्रता एवं प्रेमपूर्वक कहा, ‘‘मैं यहां मार्गदर्शन करने नहीं, अपितु सिखने हेतु आया हूं । मुझे आप सभी साधकों से बहुत कुछ सिखना है । उनका यह कहना केवल उपरी अथवा शब्दजन्य नहीं था । निम्नांकित प्रसंगों से उसकी प्रतीति होती है ।

अ. आश्रम का अवलोकन करते समय उन्होंने यु.ए.एस्. (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) उपकरण कैसे कार्य करता है ?, उससे शोधकार्य कैसे किया जाता है ? दैवीय बालकों को कैसे पहचाने ?, ऐसे जिज्ञासापूर्वक कई प्रश्‍न पूछकर उनकी जानकारी ली ।

(टीप : ‘यु.टी.एस्. (युनिवर्सल थर्मो स्कैनर) उपकरण के शोधकर्ता डॉ. मन्नम् मूर्ति ने अपने जालस्थलपर इस उपकरण का नाम बदलकर यु.ए.एस्. (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) किया है ।)

आ. आश्रम में अपनेआप अंकित ॐ रूपी दैवीय चिन्होंपर अज्ञानवश साधकों के पैर न पडें; इसके लिए उन्हें रिंग लगाई गई है, साथ ही ‘जहां धार्मिक विधि किए गए हैं, उस स्थानपर कृपया पैर न रखें)’, यह सूचना लिखी गई है । प.पू. स्वामीजी ने इसका स्मरणपूर्वक कारण पूछा ।

इ. आश्रम के विविध स्थानोंपर लगाए गए फलक और अन्य सूचनाओं को उन्होंने ध्यानपूर्वक पढा । वे मूलतः केरल के होने से उन्हें हिन्दी भाषा को पढने में कठिनाई हो रही थी; परंतु उन्होंने फलकों को पढकर उन्हें ज्ञात न हुए शब्दों का जिज्ञासा के साथ अर्थ समझ लिया ।

ई. अपने सभी भक्तों को यह जानकारी समझ में आए; इसलिए उन्होंने आरंभ में मराठी भाषा में आश्रमदर्शन कराने के लिए कहा । मैं मूलतः भोपाल, मध्य प्रदेश अर्थात हिन्दी भाषी क्षेत्र से हूं, यह ज्ञात होनेपर उन्होंने स्वयं को हिन्दी सिखना संभव हो; इसके लिए उन्होंने मुझे हिन्दी भाषा में आश्रमदर्शन कराने के लिए कहा ।

 

२. प्रेमपूर्वक तथा अपनेपन से साधकों की पूछताछ करनेवाले
तथा उनका ध्यान रखनेवाले प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

श्री. निषाद देशमुख

प.पू. स्वामीजी ने आश्रमदर्शन करते समय साधकों का प्रेमपूर्वक एवं अपनेपन से हाल पूछ लिया । आश्रमदर्शन के समय भी उनका ध्यान साधकों की ओर ही था । इस संदर्भ में कुछ प्रसंग आगे दिए गए हैं ।

अ. कुछ वर्ष पूर्व प.पू. स्वामीजी ने रामनाथी आश्रम का अवलोकन किया था । उस समय वे जिन साधकों से मिले थे, उनसे पुनः भेंट होनेपर उन्होंने बहुत प्रेमपूर्वक और अपनेपन से उनका हाल पूछा । इससे प्रेमभाव के कारण ही उन्होंने कुछ वर्ष मिले साधकों का स्मरण रखा है, यह बात ध्यान में आई ।

आ. सूक्ष्म-ज्ञानप्राप्तकर्ता साधक एवं महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के संगीत विभाग के साधकों से मिलनेपर उन्होंने उन साधकों का गांव कौनसा है, वे कितने वर्षों से साधना में हैं और उनके परिवार में कौन-कौन रहते हैं, यह बहुत आस्थापूर्वक पूछ लिया ।

इ. आश्रम में बडी संख्या में साधक होने का ज्ञात होनेपर उन्होंने ‘आपको निवास अथवा भोजन के संदर्भ में कोई समस्याएं तो नहीं हैं न ?’, यह भी पूछा ।

ई. कुछ कारणवश भावसत्संग के लिए विलंब हो रहा था, तब उन्होंने चित्रीकरण हेतु खडे साधकों को बहुत ही प्रेमपूर्वक बैठने के लिए कहते हुए कहा, ‘‘आपको सेवा के समय खडे रहना ही है; किंतु अब आपके पास समय है । अतः आप बैठिए । हम सभी एक ही है; इसलिए किसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है ।’’ तब साधक उनकी आज्ञापालन करते हुए नीचे बैठ गए ।

 

३. परेच्छा से आचरण करनेवाले प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

आश्रमदर्शन करते समय प.पू. स्वामीजी परेच्छा से आचरण कर रहे थे । हम उनसे जो प्रार्थना कर रहे थे, वे उसके अनुसार आचरण कर रहे थे । उन्हें दूसरे कार्यक्रम हेतु जाने की शीघ्रता थी; परंतु तब भी वे शांति एवं जिज्ञासा से आश्रमदर्शन किया और साधकों से वार्तालाप भी किया । आश्रमदर्शन करनेपर उन्होंने कहा, ‘‘साधक संतुष्ट हों, यही मेरी इच्छा थी ।’’ उससे उनमें स्वेच्छा नहीं, अपितु उनका संपूर्ण आचरण परेच्छा से था, यह ध्यान में आया ।

 

४. क्षमाशील प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

एक प्रसंग में हम साधकों से उन्हें संदेश पहुंचाने में चूक हुई, तब उन्होंने बहुत ही संयमित पद्धति से हमें हमारी चूक का भान कराया । साधकों ने उनसे हुई चूक के संदर्भ में जब क्षमयाचना की, तब उन्होंने हंसकर उसका प्रत्युत्तर किया और उसके आगे भी उन्होंने कहीं भी साधकों को अलगपन प्रतीत नहीं होने दिया ।

 

५. स्वयं सिखने की स्थिति में होते हुए उसके साथ ही
अपने भक्तों को भी सिखने की स्थिति में रखनेवाले प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

संपूर्ण आश्रमदर्शन की कालावधि में प.पू. वामनाश्रम स्वामीजी स्वयं सिख रहे थे । उसके साथ ही वे उनके अन्य भक्त भी सिख रहे हैं न ?, इसकी ओर भी ध्यान दे रहे थे । इसके कुछ उदाहरण आगे दिए गए हैं ।

अ. मैं जब जानकारी दे रहा था, तब वे उनके साथ आश्रमदर्शन करने आए भक्तों में से कोई वहां अनुपस्थित तो नहीं है न ?, इसकी ओर ध्यान देते थे । सेवा के कारण कुछ भक्त वहां नहीं होते, तो भी उनके आ जानेपर वे पुनः मुझे जानकारी बताने के लिए कहते थे ।

आ. मुझसे जानकारी बताए जाने के पश्‍चात वे सभी भक्तों को ‘‘आप के ध्यान में आया न ?’’, ऐसा स्वयं पूछते थे । भक्तों को यदि जानकारी ध्यान में न आई हो, तो तब वे स्वयं ही उन्हें जानकारी देते थे ।

इ. आश्रम के भोजनकक्ष में स्थित चूकों के फलकपर एक साधिका ने संतसेवा में उससे हुई चूक लिखी थी । स्वामीजी ने उस चूक को संपूर्णरूप से पढा और उनके भक्तों को भी उनके द्वारा इसी प्रकार की चूक होने का भान दिलाया और उसके साथ ही उन्होंने चूकें टालने हेतु अध्ययन कर स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया अपनाने के लिए कहा ।

ई. जन्म से ही संत पू. (कु.) भार्गवराम एवं पू. (कु.) वामन राजंदेकर के संदर्भ में जानकारी लेते समय उन्होंने उनके संपर्क में भी इसी प्रकार का एक दैवीय बालक के होने की बात बताकर उसकी गुणविशेषताओं की जानकारी बताई ।

इससे वे स्वयं भी सिखने की स्थिति में हैं और अपने भक्तों को भी सिखने की स्थिति में रखते हैं, यह ध्यान में आया ।

 

६. भक्तों को मानसिक स्तरपर न रखकर
आध्यात्मिक स्तरपर रखनेवाले प.पू. वामनाश्रम स्वामीजी

प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामी जी की एक अलग विशेषता यह है कि वे अपने भक्तों के साथ मानसिक स्तरपर न रखकर आध्यात्मिक स्तरपर व्यवहार कर रहे थे । इस संदर्भ में ध्यान में आए कुछ प्रसंग आगे दिए गए हैं ।

अ. कुछ वर्ष पूर्व आश्रम के अवलोकन के पश्‍चात प.पू. स्वामीजी ने अपने भक्तों को आश्रम आकर सिखने के लिए कहा था; किंतु उनके भक्तों को वह संभव नहीं हुआ । तब स्वामीजी ने अन्य एक संतों के सामने अपने भक्तों को उसका भान दिलाया । इससे उनमें विद्यमान ‘मन का खुलापन’ यह गुण ध्यान में आया ।

आ. प.पू. स्वामीजी के भक्तों ने आश्रम में उनके ध्यान में आई एक चूक बताई । साधकों ने उस चूक का स्वीकार कर उसका भान दिलाने के लिए भक्तों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की । तब स्वामीजी ने अपने भक्तों से स्थूल में हुई चूक की ओर ध्यान देने की अपेक्षा साधक किस प्रकार से नम्रता के साथ अपनी चूक का स्वीकार करते हैं, यह सिखने के लिए कहा ।

 

७. अल्प अहंभाव के कारण गुरुस्वरूप होते हुए भी
शिष्यत्व से आचरण करनेवाले प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी उनके कई भक्तों के लिए गुरुस्वरूप हैं । सामान्यरूप से जब संत गुरुस्वरूप होते हैं, तो शिष्यों को सिखाते समय उनमें विद्यमान अहं जागृत होता है और उससे उन्हें शिष्यभाव में बने रहने में अहं के कारण बाधा उत्पन्न होती है । बहुत ही अत्यल्प संत इस अहंपर विजय प्राप्त कर शिष्यभाव से आचरण कर सकते हैं ।

प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी इसका मूर्तिमंत उदाहरण हैं । अपनी कठोर व्यष्टि साधना से उन्होंने अपने अहंपर विजय प्राप्त की है । उनमें विद्यमान अल्प और सात्त्विक अहंभाव के कारण उन्हें शिष्यभाव से आचरण करना और अन्यों से सिखना उन्हें संभव होता है ।

 

९. प.पू. वामनाश्रम स्वामीजी की सूक्ष्म स्तर की गुणविशेषताएं

अ. प.पू. स्वामीजी में विद्यमान ब्राह्मतेज के प्रकटीकरण के कारण उनके मुखमंडल के इर्द-गिर्द सूक्ष्म से पीले रंग का एक बडा प्रभामंडल सदैव कार्यरत होता है ।

आ. प.पू. स्वामीजी का मुखमंडल बहुत ही ओजस्वी है । इसका कारण यह है कि सूक्ष्म से उनके मुखमंडलपर कार्यरत तेजोमय प्रकाश है और उसके स्रोत उनके अनाहतचक्र के स्थानपर हैं । धर्म एवं गुरुपरंपरा के प्रति निष्ठा तथा ईश्‍वर के साथ आंतरिक अनुसंधान के कारण उनका अनाहतचक्र जागृत है, साथ ही उसके ओज के कारण उनका मुखमंडल ओजस्वी दिखाई देता है ।

इ. प.पू. स्वामीजी द्वारा सूक्ष्म से ७-१० फीट की दूरीतक केसरिया रंग की शक्ति निरंतर प्रक्षेपित होती रहती है । उनके द्वारा की गई त्यागपूर्ण व्यष्टि साधना के कारण उनके द्वारा प्रक्षेपित होनेवाली धर्मशक्ति का यह प्रतीक है ।

ई. प.पू. स्वामीजी से बडी मात्रा में चैतन्य एवं आनंद का प्रक्षेपण होता है । इसलिए उनके निकट जानेपर मन निर्विचार होकर आनंद की अनुभूति होती है ।

उ. प.पू. स्वामीजी में विद्यमान परेच्छा एवं शिष्यत्व के कारण उन्हें विश्‍वमन से विचार ग्रहण कर उसके अनुसार आचरण करना संभव होता है ।

ऊ. प.पू. स्वामीजी जब साधक अथवा भक्तों को आशीर्वाद देने हेतु हाथ उपर उठाते हैं, तब उनके हाथ से तेजतत्त्वप्रधान शक्ति का प्रक्षेपण होता है । उससे साधकों को सगुण एवं निर्गुण इन दोनों स्तरोंपर उनके आशीर्वाद का लाभ मिलता है ।

ए. प.पू. स्वामीजी में बडी मात्रा में विद्यमान प्रेमभाव के कारण अन्य संतों की अपेक्षा उनकी आंखों से १० प्रतिशत अधिक मात्रा में शक्ति प्रक्षेपित होती है ।

– निषाद देशमुख, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा

 

सूक्ष्म के ज्ञान से युक्त प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी

‘प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी को सूक्ष्म का ज्ञान भी है । निम्नांकित प्रसंगों से उसकी प्रतीति हुई

१. आश्रम के स्वागतकक्ष में साधकों के उत्कट भाव के कारण जीवंत हुए श्रीकृष्णजी के छायाचित्र की ओर देखकर उन्होंने कहा, ‘‘धर्मसंस्थापना हेतु यहां प्रत्यक्ष श्रीकृष्णजी ही अवतरित हुए हैं ।’’

२. आश्रम के यज्ञकुंड के स्थानपर एक संतजी के द्वारा नियमितरूप से पूजा एवं हवन किया जा रहा है । प.पू. स्वामीजी के आगमन के कारण यज्ञकुण्ड की रचना में बदलाव किया गया था । उससे वहां पूजन होता है, यह स्थूल से ज्ञात होना कठिन था और तब हवन होकर भी ३-४ घंटे बीत गए थे । ऐसा होते हुए भी प.पू. श्री श्री वामनाश्रम स्वामीजी जब पूजा एवं हवन के स्थानपर खडे रहे, तब उन्हें वह स्थान गर्म प्रतीत हुआ ।’

– श्री. निषाद देशमुख
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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