पाप का फल (कर्मविपाक)

१. अपने आपको अत्यंत कुशाग्रबुद्धि समझनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवियों,
सत्ताधारियों, राज्यकर्ताओं एवं अधिकारियोंको चेतावनी – निःस्वार्थ बुद्धि से एवं
सज्जनता से कार्य करो, अन्यथा सहस्रों वर्षोंतक नरकयातना जैसे दंड भोगने पडेंगे !

एक उच्च कोटीके योगी थे । अपने अनुयायियोंसे बातें करते समय प्रसंगानुरूप वे अपने आध्यात्मिक जीवनके कुछ प्रसंग अथवा घटनाएं कभीकभी बताते थे । उनके ध्यानमें आया कि उनके एक अनुयायीसे गंभीर चूक हो रही है । उसे उसकी चूकका भान कराकर, पापाचारसे निवृत्त करने हेतु एवं अन्य अनुयायियोंको भी उससे बोध मिले, इस हेतु उन्होंने मार्गदर्शन किया । उसका विवरण इस सूत्रके अंतर्गत किया है।

कुछ व्यक्तियों का सतत दूसरेपर अधिकार जमाने का स्वभाव होता है । अन्यों के हाथ सत्ता जाना उन्हें तनिक भी सहन नहीं होता । येन-केन-प्रकारेण सत्ता अपने ही हाथ में कैसे आएगी, इसके लिए वे अथक प्रयास करते हैं । इसके लिए दूसरों की हत्या करने से भी वे नहीं चूकते । ऐसे मत्सरी एवं स्वार्थांध लोगों के हाथों सत्ता होना, यही चित्र सर्वत्र दिखाई देता है । ऐसे पापाचार करनेवाले अधिकारी, नेतागण एवं सत्ताधारियोंको सुख में देखकर सर्वसामान्य व्यक्तिको यद्यपि लग सकता है कि ‘उन्हें दंड हो’; परंतु वह कुछ भी नहीं कर सकता । सर्वसामान्य व्यक्तिको लगता है कि ‘ईश्‍वर ऐसे व्यक्तियोंको दंड क्यों नहीं देते ?’

यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे दुर्जनोंको केवल उनके पूर्वपुण्य के कारण इस जन्म में सुख एवं सत्ता प्राप्त हुई है । जबतक उनका पुण्य-संचय है, तबतक ईश्‍वर भी उनका कुछ नहीं करते । पूर्वपुण्य हो, फिर भी उनकी प्रवृत्ति विकारी होने के कारण अनिष्ट शक्तियां उनके मन एवं बुद्धिपर नियंत्रण प्राप्त करती हैं । उनके विकारोंको प्रबल बनाती हैं । परिणामस्वरूप उनके हाथों अधिक पाप होते हैं । और उनका पुण्य शीघ्र नष्ट होता है । पुण्य नष्ट होनेपर अनिष्ट शक्तियां उन्हें चारों ओर से घेर लेती हैं, उन्हें अपने नियंत्रण में लेकर अनेक प्रकार की यातनाएं देती हैं । मृत्यु के उपरांत भी ऐसे जीव अनेक वर्षोंतक नरक में यातनाएं भोगते हैं ।

 

२. ‘पाप से उत्पन्न विकृति नरको असुरत्व की ओर ले जाती है

पापकृत्य से उत्पन्न होनेवाला कर्मसंचय तमोगुणी होता है । इसलिए वायुमंडलपर उसका प्रभाव दिखाई देता है और समाज का जीवन संकट में पड जाता है । ऐसा कर्म समष्टि पाप का मूल होता है । ऐसे कर्म का प्रायश्‍चित नहीं करनेपर इससे उत्पन्न और संचित तमोगुण देहको भूतयोनि की ओर, अर्थात पाताल की ओर ले जाता है । कलियुग में पापी जीव बहुत होते हैं । इनके संपर्क में आने से प्रत्येक जीव का विचार तमोगुणी स्पंदनों से भर जाता है ।’ – (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ ‘एक विद्वान’ इस नाम से लेखन करती हैं । (२६.२.२००९, रात्रि ८.४३)

 

३. पाप-पुण्य का जोड-घटाना संभव नहीं

‘पहले पाप कर पश्‍चात बडी मात्रा में पुण्य करने से, पाप समाप्त नहीं होता । प्रत्येकको पुण्य का सुखद फल और पाप का दुःखद फल भोगना ही पडता है ।’ – (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले, चेंबूर, मुंबई (वर्ष १९९०)

 

४. पाप का सर्वसामान्य फल

अ. उपहास होना

आ.सरकार की ओर से दंड होना

इ.धन का नाश, चाकरी (नौकरी) गंवाना, व्यापार में हानि

ई. तिरस्कार, अपकीर्ति (बदनामी) होना

उ. रोग होना अथवा मानसिक तनाव होना

ऊ. मनोकामनाएं पूरी न होना

ए. संकट, गंडांतर, दुर्भाग्य और दुःख होना

ऐ. आध्यात्मिक पतन होना, जैसे स्वर्गप्राप्ति में बाधा आना, पुण्यकार्य करना भी कठिन होना, आध्यात्मिक प्रगति में बाधाएं आना, मोक्षप्राप्ति अत्यंत दूर रहना

– (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले, चेंबूर, मुंबई (वर्ष १९९०)
संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पुण्य-पाप के प्रकार एवं उनके परिणाम’

 

५. मृत्यु के पश्‍चात दंड भोगने के उपरांत आगे की यात्रा

अनुयायियों के ऐसा प्रश्‍न करनेपर कि ‘नरक में पापाचारी लोगयातनाएं भोगकर समाप्त होने के पश्‍चात्, क्या ऐसे लोगों के भोग समाप्त हो जाते हैं ?’, एक योगीने बताया कि निम्नांकित दो प्रकार से ऐसे जीवों की यात्रा होती है ।

अ. पाप अल्प हो तो,

१.पापी जीवों द्वारा नरक का दंड भोगकर समाप्त होने के उपरांत, उन्हें जंगल में रहनेवाले आदिवासी परिवार में जन्म प्राप्त होता है । वहां भी उन्हें आवश्यक अन्न एवं वस्त्र नहीं मिलता । अतएव उन्हें अत्यंत कष्ट एवं यातनाएं सहन करनी पडती हैं ।

२.अनेक वर्ष कष्ट एवं दरिद्रता भोगने के उपरांत उन पापी जीवों की वृत्ति में सुधार होता है । उनके मन में निर्धनों के प्रति दया उत्पन्न होती है । उनके अंतःकरण में करुणा व प्रेम उत्पन्न होने लगता है । अनेक जन्मों के उपरांत उनका स्वार्थ नष्ट होकर उन में परोपकारी वृत्ति पनपती है । इससे ऐसे जीव यथार्थ स्वरूपमेें सज्जनता एवं मानवता के गुणों की सहायता से उन्नत होने लगते हैं ।

आ. पाप अधिक हो तो,

मनुष्यजन्म का दुरुपयोग करनेवाले अत्यंत पापी जीवोंको कुछ सहस्र वर्षोंतक पुनः मनुष्यजन्म नहीं मिलता । नरक का दंड भोगनेपर कुछ लिंगदेहोंको आगे दिए जन्म मिलते हैं ।

१.वृक्ष एवं पत्थर बनकर रहने के लिए बाध्य होना

२.कीट का जन्म प्राप्त होना

३.मछलियां, गिद्ध, चमगादड समान योनि में जन्म मिलना

४.बोझा ढोनेवाले जानवरों का जन्म मिलना (पाप की मात्रा अधिक हो, तो ३० से ४० बार ऐसे जानवरों का जन्म लेना पडना एवं तत्पश्‍चात उन्हें दरिद्र तथा मेहनत मजदूरी करनेवाले व्यक्तियों के कुल में जन्म मिलना)

५.जन्म से ही कुरूप, अपंग एवं रोगग्रस्त होना

६.जन्म के पश्‍चात महारोग जैसे असाध्य एवं भयंकर रोग होना

७.भिखारी बनना

तात्पर्य

मनुष्यजन्म में अधर्माचरण एवं पापाचार कर मनुष्यजन्म का अनुचित उपयोग करने का अर्थ है, ईश्‍वरीय नियमों के विपरीत व्यवहार करना । जिसका जैसा कर्म होगा, उसके अनुसार ईश्‍वर उसे न्याय देते हैं; अतः मानव द्वारा होनेवाले अपराध के अनुसार उसे दंड मिलता ही है एवं उसे वह भोगकर ही समाप्त करना पडता है । अर्थात जैसी करनी वैसी भरनी ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पुण्य-पाप के प्रकार एवं उनके परिणाम’

Leave a Comment