पुण्य की व्याख्या एवं मिलने के कारण

जीवन कर्ममय है । कर्मफल अटल है । अच्छे कर्म का फल पुण्य है तथा उससे सुख प्राप्त होता है, जबकि बुरे कर्म का फल पाप है और उससे दुःख प्राप्त होता है । हम देखते हैं कि अनेक बार ‘सदाचरणी होकर भी सज्जन जीवन में दुःख भोगते हैं, जबकि गुंडे, भ्रष्टाचारी इत्यादि दुर्जन अनेक दुष्कृत्य करने के उपरांत भी ऐश्‍वर्यादि सुख का उपभोग करते हैं ।’ तब ‘दुर्जनों को उनके पापों का फल क्यों नहीं मिलता ?’, यह प्रश्‍न किसीके भी मन में उत्पन्न हो सकता है । पूर्वजन्मोंके पुण्य-संचयके कारण दुर्जनोंको सुख प्राप्त होता है; परंतु पुण्य का भंडार समाप्त होनेपर उनके पापकर्मों का फल, अर्थात् रोग, दरिद्रतादि दुःख एवं मृत्युके उपरांत नरकवासादि दुःख उन्हें भोगने ही पडते हैं; इससे कोई छूट नहीं सकता । अतएव पापों का परिमार्जन करना अत्यावश्यक है । दैनिक व्यवहार में मनुष्य से अनजाने में पापकर्म निरंतर होते ही रहते हैं उदा. झाडू से घर बुहारते समय कीडे-मकोडों की हत्या होना, दूसरों से कठोर बोलना, अन्यों से द्वेष करना इत्यादि । संक्षेप में, मनुष्यके लिए पाप से बचना असंभव है । स्वयं द्वारा किए गए पापों का पश्‍चाताप कर उन पापों का परिमार्जन करने के लिए धर्म द्वारा बताए गए दंड स्वीकारना, ‘प्रायश्‍चित’ कहलाता है ।

‘सृष्टि के प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य की ठीक-ठीक गणना (लेखा) ब्रह्मांड का कामकाज चलानेवाली महान ईश्‍वरीय ऊर्जा ही कर सकती है; परंतु क्रियमाणकर्म करते समय उचित-अनुचित का विचार मानव ही कर सकता है । इस मानवाधीन कर्मको ही ‘क्रियमाणकर्म’ तथा दैवाधीन (भाग्य के अधीन) कर्मको ‘प्रारब्धकर्म’ कहते हैं ।’

– एक विद्वान  [(सद्गुरु) श्रीमती अंजलीगाडगीळ के माध्यम से, २६.२.२००९, रात्रि ८.४३]

 

१. पुण्य

पुण्य की व्याख्या

धर्मशास्त्रकारोंने जो आचारसंबंधी नियम बनाए हैं, उन नियमों के यथायोग्य पालनसे जो एक विशेष शक्ति अथवा सामर्थ्य प्राप्त होता है, उसे ‘पुण्य’ कहते हैं । पुण्य अर्थात परउपकार, दूसरे का हित करना ।

 

२. पुण्य मिलने के कारण

१. धर्मशास्त्रनियमों का पालन करना

२. विशिष्ट काल में विशिष्ट बातों से निकटता अथवा साहचर्य करना अथवा विशिष्ट कृति करना

अ. पर्वकाल में तीर्थस्नान एवं देवदर्शन करना, उदा. मकरसंक्रांति के काल में तीर्थक्षेत्र में स्नान करने से महापुण्य मिलना

आ. गायको स्पर्श करना

इ. गोमय एवं गोमूत्र लगाकर स्नान करना

ई. संत एवं देवता का तीर्थप्रसाद सेवन करना

उ. तीर्थक्षेत्र में धर्मशाला की निर्मिति करना, अन्नक्षेत्र का प्रबंध करना, विद्यादान, भूमिदान इत्यादि करना; विविध व्रत एवं उपवास करना

३. दूसरे की साधना के लिए त्याग

सास तीर्थयात्रा के लिए जा सकें, इसलिए बहू कार्यालय से छुट्टी लेकर घर संभाले, तो बहू को सास की तीर्थयात्रा का आधा पुण्य मिलता है । ऐसे में भी संभवतः, अन्यों की सहायता से साधना न करें ।

४. पति का आधा पुण्य पत्नीको

जिसप्रकार पति दानधर्मादि करता है, वैसे स्वयं की आय न होने से पत्नी नहीं कर सकती । ऐसी दशा में दान का पुण्य पत्नी को मिले, इस हेतु धर्म में सुविधा है कि पति का आधा पुण्य पत्नीको मिले ।

५. पुण्य दूसरेको देना

अपना पुण्य अन्योंको अर्पण करने से पुण्य बढता है; परंतु इससे देनेवाला अधिक समयतक स्वर्ग में अटका रहता है । ‘मैं पुण्य अर्पण करता हूं’, ऐसा कहनेपर, उसमें भी ‘मैं ’पन आता ही है ।

पुण्य के बल से ही समाज सुखी हो पाना 

‘क्रियमाणकर्म से साधना के स्तरपर सात्त्विक कर्म करते रहने से प्रारब्ध घटता है, अर्थात प्रारब्ध भोगने की शक्ति ईश्‍वर से प्राप्त होनेपर वह अल्प प्रतीत होता है । क्योंकि, उसका ध्यान भगवान में लगा रहता है, प्रारब्धभोग की ओर नहीं । इससे जीव सात्त्विक बनता है और भोगयोनि में रहकर भी आनंदपूर्वक जीवनयापन कर सकता है । इस प्रक्रिया में उसका पुण्यसंग्रह बढते-बढते वह देवत्वको प्राप्त करता है तथा ऐसे जीव की केवल उपस्थिति से समाज सुखी होता है । पुण्य से मिला कर्म करने का अधिकार व्यक्तिको संन्यास की ओर ले जाता है ।’ – एक विद्वान [सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २६.२.२००९, रात्रि ८.४३]

 

३. पुण्य न मिलना

कर्तव्यकर्म करने से पुण्य नहीं मिलता, उदा. पत्नी-बच्चों का पालन-पोषण करना, दूसरों के धन से परोपकार करना ।

 

४. पूर्वजन्म के पुण्य के कारण प्राप्त होनेवाली बातें

मानुष्यं वरवंशजन्मविभवः दीर्घायुरारोग्यता
सन्मित्रं सुसुतः सती प्रियतमा भक्तिश्‍च नारायणे ।
विद्वत्त्वं सुजनत्वमिंद्रियजयः सत्पात्रदाने रतिः ।
ते पुण्येन विना त्रयोदशगुणाः संसारिणां दुर्लभाः ॥

– प्रवृत्तिमार्ग (जेरेस्वामी शंकराचार्य)

अर्थ : मनुष्य का जन्म एवं उसमें भी श्रेष्ठ कुल में जन्म, वैभव, दीर्घायु, निरोगी शरीर, अच्छा मित्र, उत्तम पुत्र, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी, परमेश्‍वर की भक्ति, विद्वत्ता, सौजन्य, इंद्रियोंपर अर्थात विषयवासनाओंपर विजय एवं सत्पात्रको दान देने में रुचि, ये तेरह बातें पूर्वपुण्य के बिना पूर्णतः दुर्लभ हैं ।

पूर्वपुण्य के कारण ये सब मिलने के पश्‍चात उसका लाभ लेकर जो साधना करता है, उसकी ही आध्यात्मिक उन्नति होती है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पुण्य-पाप के प्रकार एवं उनके परिणाम’

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