गुजरात के संत पू. वसंतराव जोशी का परिचय एवं उनका जीवनकार्य !

 

पू. वसंतराव जोशी

 

१. परिचय

१. पूरा नाम : पू. वसंतराव शंकरराव जोशी (सनातन की ६५ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त साधिका श्रीमती अनुपमा जोशी के मामा)

१ अ. देहत्याग : कार्तिकी एकादशी, १९.११.१९९९

१ आ. जन्मगांव : जळगाव (महाराष्ट्र) के निकट नांद्रे (एक गांव) में हुआ । आगे जाकर वे जळगाव तथा उसके पश्‍चात गुजरात में स्थायिक हुए ।

१ इ. शिक्षा : स्नातक, अंग्रेजी माध्यम हाईस्कूल में शिक्षक के रूप में नौकरी की ।

१ ई. अवगत कलाएं : शास्त्रीय गायन, नृत्य, बांसुरी वादन, तबला, हार्मोनियम, कविता लेखन  इत्यादि

१ उ. भाषा : उनका गुजराती तथा अंग्रेजी इन भाषाआेंपर प्रभुता थी ।

१ ऊ. गुरु का नाम : सद्गुरु दिनकरदास भगवानदास ठक्कर (मोडासा, गुजरात)

 

२. पू. वसंतराव जोशी द्वारा शिष्यावस्थान में की गई साधना

मेरे मामाजी पू. वसंतराव जोशी को बचपन से ही साधना में रूचि थी । वे ब्रह्मचारी थे । वे सदैव साधना के लिए घर से पहाडीपर भाग जाते थे । उनकी साधना गुरुकृपायोग के अनुसार थी । वे सद्गुुरु दिनकरदास भगवानदास ठक्कर के प्रिय शिष्य थे । सद्गुुरु दिनकरदास महाराज पू. वसंतराव जोशी को ‘बहादूर’ नाम से बुलाते थे ।

आरंभ में मामाजी ने नौकरी की । वे नौकरी के समय में भी साधना के लिए किसी को न बोलते हुए हिमालय, गिरनार, त्र्यंबकेश्‍वर (जनपद नासिक) अथवा पाकिस्तान की सीमापर जाकर बैठते थे; परंतु उन्हें सभी अध्यात्मिक दृष्टि से मानते थे; इसलिए उन्हें कुछ नहीं बोलते थे । आगे जाकर मामाजी ने उनकी माता के जीवित होनेतक ही नौकरी की । कुछ समय पश्‍चात उन्होंने नौकरी छोड दी ।

 

३. अध्यात्म के विषय में लेखन

अ. उनके अधिकतर भजन हिन्दी तथा गुजराती इन भाषाआें में हैं ।

आ. उन्होंने मुझे (श्रीमती अनुपमा जोशी को) तथा मेरी मां को (६४ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त सनातन की साधिका श्रीमती शांताबाई भालेराव, जळगाव (देहांत : वर्ष २०१२) को उन्होंने उनकी साधना के लिए स्वयं के हस्ताक्षर में निदिध्यासन पोथी लिखकर दी । उसके अनुसार पहले हम पोथीवाचन करते थे ।

 

४. दर्शन

‘दर्शन’ बहुत पुराना शब्द है ।

४ अ. कुछ अर्थ

१. जो साधारण दृष्टि से समझ नहीं सकता, उसे समझाकर लेने का अर्थ दर्शन करना

ऋग्वेद मे दीर्घतमा ऋषी का पुत्र कक्षीवान ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है । ऋग्वेद, मंडल १, सूक्त ११६ में की २३वीं ऋचा निम्नानुसार है । ‘पशुं न नष्टमिव दर्शनाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्‍वकाय । (अर्थ : जैसे सत्यस्वरूप देवताएं किसी खोए हुए पशु को उसके स्वामी के सामने खडे करेंगे, उस प्रकार से विष्णापु नामक लडके को उसके पिता विश्‍वक के सामने लाकर खडा किया । इस ऋचापर किए गए भाष्य में सायणाचार्यजी ने दर्शनाय का अर्थ दृष्टि से पीछे होनेवाले (पशु को) दिखाएं, उस प्रकार से, ऐसा किया है । इसके अनुसार जो सामान्य दृष्टि से समझ नहीं सकता, उसको समझाकर लेना (दर्शन करना), यह दर्शन शब्द का अर्थ निकलता है ।

२. दर्शन का अर्थ ब्रह्मसाक्षात्कार !

मनु कहते हैं,

सम्यग् दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।

दश-नेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥   

मनुस्मृति, अध्याय ६, श्‍लोक ७४

अर्थ : योग्य दर्शन से युक्त मनुष्य कर्मों से बंधा नहीं जाता । इसके विपरीत दर्शनविहीन मनुष्य संसार-सागर में डुबकियां लगाता रहता है ।

इसपर भाष्य करते हुए कुल्लूकभट्ट कहते हैं, ‘‘दर्शन का अर्थ ब्रह्मसाक्षात्कार ही है; इसलिए मेरे मत से तो षड्दर्शन ही ब्रह्मसाक्षात्कार के लिए कारणभूत शास्त्र हैं ।’’ – पू. वसंतराव शंकरराव जोशी (श्रीमती अनुपमा जोशी के मामाजी),

हस्तलिखित, ‘निदिध्यासन पोथी’ – अक्टूबर १९७३ (देहत्याग : कार्तिकी एकादशी, १९.११.१९९९)
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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