थाईलैंड का प्राचीन नगर – अयुद्धया

सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के नेतृत्व में महर्षि
अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के समूह का दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अध्ययनयात्रा

 

सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी

प्राचीन काल में जिसे श्याम देश कहा जाता था, वह भूभाग है, आज का थाईलैंड देश ! इस भूभागपर अभीतक अनेक हिन्दू तथा बौद्ध राजाआें ने राज्य किया । यहां की संस्कृति हिन्दू धर्मपर आधारित थी; परंतु कालांतर से बौद्धों के सांस्कृतिक आक्रमण के कारण इस स्थानपर बौद्ध धर्म प्रचालित हुआ । यहां के राजाआें को प्रभु श्रीराम का रूप माना गए तथा उनकी राजधानी को अयोध्या की श्रेणी प्रदान की गई । यहां रामायण को राष्ट्रीय साहित्य माना गया है । महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की ओर से सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी तथा ४ छात्र-साधकों ने ३ से ७ अप्रैल २०१८ की अवधि में थाईलैंड देश की यात्रा की । आज हम प्राचीन नगरी अयुद्धया के विषय में जान लेते हैं ।

श्री. विनायक शानभाग

 

१. द्वारावती साम्राज्य (६वीं से ११वीं शताब्दी)

वाट महाथाट

१. अयुद्धया नगर के वाट महाथाट नामक बौद्ध मंदिर के अवशेष !

श्याम देश के राजा ने अपने देश को सर्वोच्च स्थानतक ले
जाने के कारण इस देश को सुवर्णभूमि के नाम से जाना जाना

श्याम देश को ६वीं शताब्दी से लेकर ११वीं शताब्दीतक द्वारावती साम्राज्य था । भारत की द्वारका नामक श्रीकृष्णजी के नगरी से प्रेरणा लेकर तात्कालिन राजाआें ने अपने साम्राज्य का नाम द्वारावती रखा होगा । इसी काल में राजा सूर्यविक्रम, हरिविक्रम तथा सिंहविक्रम ने श्याम देश को सर्वोच्च स्थानतक ले जाया । अतः वहां की प्रजा देश को सुवर्णभुमि नाम से पहचानने लगी । आज भी थाईलैंड के लोग अपने देश को सुवर्णभुमि नाम से ही जानते हैं । थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक नगर के आंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को आज भी सुवर्णभुमि हवाई अड्डा कहा जाता है ।

 

२. खमेर साम्राज्य (११ से १४वीं शताब्दी)

वाट महाथाट २. मंदिर परिसर में स्थित एक बोधी वृक्ष के तने में रखा गया बौद्ध के मुखमंडल का शिल्प !

११वीं शताब्दी से लेकर १४वीं शताब्दीतक खमेर साम्राज्य के सूर्यवर्मन (द्वितीय) ने आक्रमण कर श्याम देश के कुछ भूगाभ को अपने खमेर साम्राज्य में अंतर्भूत कर लिया ।

 

३. अयुद्धया साम्राज्य (१४ वीं से १८वीं शताब्दी)

बांग-पा-इन

सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के पीछे चाओ फ्राय नदी के तटपर स्थित बांग-पा-इन राजमहल दिखाई दे रहा है ।

श्याम देश को अयुद्धया नाम से जाना जाना, अयुद्धया का अयुथाई तथा
आगे जाकर केवल थाई का अपभ्रंश होकर ब्रिटीशों द्वारा उसका थाईलैंड नामकरण किया जाना

वर्ष १३५१ से लेकर वर्ष १७६७ तक श्याम देश अयुद्धया साम्राज्य ने राज्य किया । थाईलैंड के मध्य में स्थित चाओ फ्राया नदी के तटपर अयुद्धया नामक प्राचीन नगर था । अयुद्धया साम्राज्य से संबंध रखनेवाले अन्य देश उसे श्याम देश ही कहते थें, तो स्थानीय लोक अयुथाय कहते थे । आगे जाकर उसका अपभ्रंश होकर उसे थाई कहा जाने लगा तथा ब्रिटीशों ने इस श्याम देश को थाईलैंड कहना आरंभ कर दिया । वर्ष १७६७ में बर्मा द्वारा किए गए आक्रमण में संपूर्ण अयुद्धया नगर को जला दिया गया तथा वहां के अनेक मंदिर, बौद्ध मंदिर तथा ग्रंथालय तोडे गए । अब केवल उन सभी वास्तुआें के अवशेष ही दिखाई देते हैं । (छायाचित्र क्र. ४ देखें ।) युनेस्को द्वारा इस नगी को वैश्‍विक धरोहर की श्रेणी प्रदान की गई है ।

 

४. वाट महाथाट

प्राचीन नगरी : अयुद्धया थाईलैंड की प्राचीन नगरी अयुद्धया में स्थित राजमहल के अवशेष !

अयुद्धया नगरी के राजा द्वारा इस बौद्ध मंदिर का निर्माण किया जाना तथा एक
समय में इस मंदिर में अनेक अमूल्य रत्न, आभूषण तथा नवरत्नों की मूर्तियां का होना

अयुद्धया नगरी के मध्यभाग में वाट महाथाट नामक एक बडे बौद्ध मंदिर के अवशेष हैं । (वाट का अर्थ है मंदिर !) वर्ष १३७४ में राजा बोरोमर का १ द्वारा इस मंदिर का निर्माण किया गया तथा आगे जाकर राजा रामेसुआन् ने इस मंदिर का विस्तार किया । ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर में अनेक अमूल्य रत्न, आभूषण तथा नवरत्नों की मूर्तियां थीं । इस मंदिर परिसर में स्थित एक बोधी वृक्ष के तने में एक शिल्पकार द्वारा बुद्ध के मुखवाला एक शिल्प रखा गया है । उसे देखने के लिए अनेक पर्यटक आते हैं । (छायाचित्र क्र. २ देखें ।)

 

५. वाट रच्चबुराना

वाट चायवत्तनारम् मंदिर, अयुद्धया के राजा द्वारा निर्मित चायवत्तनारम् मंदिर

राजा बोरोमर द्वितीय ने वर्ष १४२४ ने वाट महाथाट की उत्तर में एक बौद्ध मंदिर का निर्माण किया । उसका नाम है वाट रच्चबुराना । इस मंदिर की दीवार की बाहरी बाजू में अनेक स्थानोंपर नागोंपर आक्रमण कर रहे विष्णुवाहन गरुड के शिल्प हैं ।

 

६. बांग-पा-इन राजमहल

अयुद्धया के राजा द्वारा ४६ एकड के परिसर में निर्मित राजमहल का होना तथा १९वीं शताब्दी में थाईलैंड के चक्री साम्राज्य के राजा द्वारा इस राजमहल का पुनर्जीवन किया जाना : अयुद्धया साम्राज्य के राजा प्रसाद थोंग ने वर्ष १६३२ में अयुद्धया से २० कि.मी. दूरीपर चाओ फ्राया नदी के तटपर स्थित बांग-पा-इन नामक गांव में एक राजमहल का निर्माण किया । उसका नाम है बांग-पा-इन राजमहल । इस राजमहल का परिसर ४६ एकड का है । इस परिसर में राजवंश के सदस्यों के लिए निवास हैं । इस परिसर में राजमहल के अतिरिक्त ग्रंथालय, अतिथि कक्ष, पूर्वजों का समाधिस्थल, तालाब, उद्यान तथश राजवंश के सदस्यों के लिए निवास हैं । इस राजा की ४ रानियां थीं । उसने प्रत्येक रानी के लिए एक-एक सुंदर निवासों का निर्माण किया । १९ वीं शताब्दी में चीन तथा फ्रेंच शासन की सहायता से थाईलैंड के चक्री साम्राज्य के राजा राम ४ द्वारा इस परिसर का पुनर्जीवन किए जाने से अब इस परिसर को वैभव प्राप्त हो चुका है । आज भी इस राजमहल को देखते समय वह नया ही है, ऐसा लगता है । (छायाचित्र क्र. ३ देखें ।)

 

७. वाट चायवत्तनारम्

अयुद्धया के राजा द्वारा अंकोर वाट मंदिर से प्रेरणा लेकर मंदिर का निर्माण किया जाना तथा इस मंदिर को मेरू पर्वत की भांति ९ शिखरों का होना : अयुद्धया साम्राज्य का राजा प्रसाद थोंग ने वर्ष १६३० में खमेर हिन्दू साम्राज्य के अंकोर वाट मंदिर से प्रेरणश लेकर अयुद्धया नगर की दक्षिण-पूर्व दिशा में एक मंदिर का निर्माण किया । यह मंदिर कंबोडिया के अंकोर वाट की भांति मेरू पर्वतपर आधारित है । इस मंदिर को मेरू पर्वत की ९ शिखरों की भांति ९ शिखर बनाए गए हैं । इस मंदिर का निर्माण चाओ फ्राया नदी के तटपर किया गया है तथा हम मंदिर से नाव के माध्यम से नदी के मार्ग से अन्य प्रदेशों में जा सकते हैं । (छायाचित्र क्र. ५ देखें ।)

 

८. रोनेवाले बुद्ध का मंदिर

अयुद्धया के राजा द्वारा अपनी पत्नी के स्मरणार्थ बुद्ध के मंदिर का निर्माण किया जाना, इस मंदिर की मूर्ति के आंखों से आंसू आना तथा इन आसूआें के रुकने का अर्थ अनिष्ट समय के निकट आने की प्रतीक होने की मान्यता होना : अयुद्धया नगरी के निकट चाओ फ्राया निदी के तटपर बुद्ध का एक मंदिर है । इस मंदिर को रोनेवाले बुद्ध का मंदिर कहा जाता है । ऐसा कहा जाता है कि वर्ष १८८१ में अयुद्धया के राजा चुलालांगकार्न की रानी सुनंदाकुमारी रत्ना के चीन से वापस लौटने के पश्‍चात राजा से मिलने नदी के मार्ग से बांग-पा-इन राजमहल की ओर जा रही थी । मार्ग में ही रानी की नांव नदी में डूब गई । यह ज्ञात होनेपर राजा को बहुत दुख पहुंचा । उसने रानी के स्मरणार्थ नदी के तटपर बुद्ध के एक बडी मूर्ति की स्थापना की । बुद्ध की इस मूर्ति के आंखों से आंसू आते हुए राजा ने देखा । तब से लेकर लोक इस बुद्ध को रोनेवाला बुद्ध कहने लगे; परंतु विगत कुछ वर्षों से इस मूर्ति की आंखों से आंसू आना बंद हो गया है । हमारे मार्गदर्शक ने हमें बताया की बुद्ध की आंखों से आंसूआें का रुक जाना, आनेवाले अनिष्ट काल का दर्शक है ।

– श्री. विनायक शानभाग, थाईलैंड (अप्रैल २०१८)

स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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