गुरु समर्थ रामदास स्वामी के प्राण बचाने के लिए बाघिन का दूध दूहकर लानेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज !

बालकों के लिए परिपाठ !

शिवाजी महाराज प्रत्येक गुरुवार के दिन अपने गुरु समर्थ रामदासस्वामी के दर्शन कर ही भोजन करते थे । ऐसे ही एक गुरुवार को शिवाजी महाराज समर्थ रामदास स्वामी के दर्शन हेतु राजमहल से निकले, तब उन्हें उनके सैनिक ने बताया कि समर्थ रामदास स्वामी महाबलेश्‍वर के वन में गए हैं । गुरु के दर्शन में कितनी भी बाधाएं आती, तब भी वे दुखी नहीं होते ।

उन्होंने गुरु रामदास स्वामी को बहुत ढूंढा । ढूंढते-ढूंढते सूर्यास्त हो गया । फिर भी, उनका कोर्इ पता नहीं चला । अंत में कुछ सेवकों के साथ, हाथ में मशाल लेकर, वे गुरु को ढूंढने निकल पडें । वन घना होने के कारण वे कुछ समय पश्‍चात सेवकों से बिछड गए और अकेले ही गुरु समर्थ रामदास स्वामी को ढूंढने लगे । इतने में, एक गुफा के भीतर से जोर-जोर से कराहने का आवाज सुनाई देने लगी । वह स्वर उन्हें समर्थ रामदास स्वामी जैसा लग रहा था; इसलिए वे उस गुफा के अंदर गए ।

शिवाजी (समर्थ को वंदन कर) : महाराज, आपको क्या हो रहा है ? आप क्यों कराह रहे हैं ?

समर्थ : शिवा, क्या बताऊं तुझे ? मेरे पेट में इतना भीषण कष्ट हो रहा है कि अब मैं संभवतः नहीं बच पाऊंगा ।

शिवाजी : गुरुदेव, आप ऐसा न कहिए । आपसे ही तो हमें धैर्य मिलता है । आप आज्ञा कीजिए, मैं कोई अच्छा वैद्य लेकर आता हूं । औषध से आप ठीक हो जाएंगे ।

समर्थ : शिवा, यह कष्ट साधारण नहीं, असाध्य है । इसे बडा-से-बडा वैद्य भी नहीं ठीक कर सकता । यह ठीक होगा, तो केवल बाघिन के दूध से । परंतु, अपने प्राण संकट में डालकर कौन मुझे बाघिन का दूध लाकर देगा ?

शिवाजी : आपके आशीर्वाद से मैं यह कार्य अवश्य कर पाऊंगा । (इतना कहकर शिवाजी समर्थ का लोटा लेकर बाघिन ढूंढने चल पडे ।)

समर्थ : शिवा, यह क्या ? तू चला ? नहीं, तू मत जा । मैं जोगी ठहरा । मुझे न पत्नी है और न बच्चे । मैं मर गया, तो मेरे लिए कोई रोनेवाला नहीं है । तू सहस्रोें लोगों का आधार है । तुझे कुछ नहीं होना चाहिए । इसलिए, यह काम तू मत कर ।

शिवाजी : गुरुदेव, यह शरीर कभी-न-कभी मरनेवाला है न ! आज आपकी सेवा में यह नष्ट हो गया, तो मेरा जीवन सफल हो जाएगा ।

शिवाजी जब वन में चल रहे थे, तब सामने से बाघ के दो शावक जाली से बाहर निकलते हुए उन्हें दिखाई दिए । उन शावकों को देखते ही, अपनी इच्छा अवश्य सफल होगी, यह सोचकर शिवाजी बहुत प्रसन्न हुए । वे वहां बैठकर बाघिन की प्रतीक्षा करने लगे । कुछ समय पश्‍चात उन्हें दूर से एक बाघिन आती दिखाई दी । उन्हें लग रहा था कि आज अपना काम अवश्य सफल होगा । राजा को देखकर बाघिन को भी बहुत आनंद हुआ कि आज शिकार उसके घर स्वयं चलकर आया है । इसलिए, वह तेजी से दौडते हुए आई । शिवाजी ने उसे प्रणाम कर प्रार्थना की कि मेरे गुरु बहुत अस्वस्थ हैं । उनके प्राण संकट में हैं । उन्हें बचाने के लिए कृपा कर अपना दूध मुझे दीजिए । यदि आप मुझे खाना चाहती हैं, तो कोई बात नहीं । मैं अपने गुरु को आपका दूध देकर तुरंत तुम्हारे पास तुरंत लौट आऊंगा । तब मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लेना । यह सुनकर, बाघिन का क्रूर स्वभाव शांत हो गया । वह सभ्य गाय की भांति खडी रही और शिवाजी ने तुरंत उसके थन से दूध दूहा । अब वे दूध लेकर गुरु की ओर जाने के लिए मुडे ही थे कि जय जय रघुवीर समर्थ कहते हुए समर्थ उनके पास पहुंचे । पालकी से उतरकर गुरु समर्थ ने शिवाजी की पीठ थपथपाते हुए कहा, शिवा, तू सचमुच धन्य है !

(अधिक जानकारी के लिए पढिए सनातन का ग्रंथ, बोधकथा)

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