भारतियों का अत्यंत प्रगत प्राचीन जलव्यवस्थापन तथा पाश्चात्त्यों के अंधानुकरण के कारण निर्माण हुआ जल का दुर्भिक्ष्य !

‘जल का महत्त्व, उसका शोध तथा उसका नियोजन, इसका संपूर्ण विकसित तंत्रज्ञान हमारे देश में था । कुछ सहस्त्र वर्ष पूर्व हम वह प्रभावी पद्धति से उपयोग कर रहे थे तथा उसके कारण हमारा देश वास्तव में ‘सुजलाम् सुफलाम्’ था; किंतु हममेंसे अनेक लोगों के मनपर अंग्रेजों का इतना गहरा प्रभाव था कि, उन्हें प्रतीत होता था कि, ‘हमारे देश में जल का महत्त्व केवल अंग्रेजों ने ही पहचाना था । साथ ही हमें धरण का निर्माणकार्य करने के लिए सीखाया गया, वह भी केवल अंगेंजो ने ही इत्यादि ।’ दुर्दैव से हमें हमारे प्राचीन जलव्यवस्थापन का विस्मरण हुआ है तथा आज जल के लिए हम त्राही -त्राही मचा रहे हैं । समय आने पर धारा १४४ पारित कर युद्ध कर रहे हैं । यदि हमें हमारे समृद्ध ज्ञान, वारसा तथा तंत्रज्ञान का विस्मरण हुुआ, तो यह बात अनिवार्य है ।

१८०० वर्ष प्राचीन तथा आज भी उपयोग में आनेवाला तमिळनाडु का कल्लानाई बांध

 

१. प्राचीन भारत का जल का उत्कृष्ट
व्यवस्थापन तथा स्वतंत्रता के पश्चात् का ढिला नियोजन

बीच में अकाल के कारण पूरे देश को विशेष रूप से महाराष्ट्र को घेर रखा था। जल के लिए मनुष्य सर्वत्र घूम रहा था । इस बिकट परिस्थिती से यह ध्यान में आता है कि, स्वतंत्रता के पश्चात् जल का नियोजन ठीक तरह से हुआ ही नहीं था । ठीक तरह से बांध का निर्माणकार्य नहीं किया गया, कालवा का खोदकार्य हुआ नहीं तथा भूमि में अधिक मात्रा में पानी इकट्ठा करने का उपाय भी नहीं हुआ; इसीलिए देश के अधिक क्षेत्रों में जल का स्तर भूमि से अधिक गहराई तक गया है । इस प्रकार अकाल की छाया में रहनेवाले देश में ऐसी जानलेवा परिस्थिती इस से पूर्व कभी भी नहीं थी, अकाल पहले भी आता था; किंतु उस समय जल का नियोजन व्यवाqस्थत था । किंबहुना प्राचीन समय में हमारे देश में पानी का व्यवस्थापन उत्कृष्ट था; इसलिए ही हमारा देश ‘सुजलाम् सुफलाम्’ था !

 

२. भारत में चोल राजा करिकलन द्वारा इसवी सन दूसरे शतक में कावेरी नदी
के प्रमुख पात्र में निर्माणकार्य किया गया ‘कल्लानाई बांध’ ही सबसे प्राचीन धरण

विश्व का प्रथम ज्ञात तथा वर्तमान में उपयोग में आनेवाला बांध भारत में है, इस बात का पता हम मेंसे कितने लोगों को है ? इसवी सन दूसरे शतक में चोल राजा करिकलन द्वारा निर्माणकार्य किया गया ‘अनईकट्टू’ अथवा अंग्रेजी भाषा में ‘ग्रॅण्ड अनिकट’ (Grand Anicut) अथवा आज उपयोग की जानेवाली भाषा में ‘कल्लानाई बांध’ यह है । यह गत १८०० वर्षों से उपयोग में आ रहा है । वर्तमान समय में जहां धरणों को ३०-३५ वर्षों में भेगा पड जाती है, वहां १८०० वर्ष में कोई भी बांध निरंतर उपयोग में रहना, यह भी एक आश्चर्य की बात है । कावेरी नदी के मुख्य पात्र में निर्माणकार्य किए गए इस बांध की ३२९ मीटर लंबाई तथा २० मीटर चौडाई है । तमिळनाडु के तिरुचिरापल्ली से केवल १५ किलोमीटर दूरी पर होनेवाले इस बांध का निर्माणकार्य कावेरी नदी के ‘डेल्टा’ प्रदेश में किया है । अत्यंत अस्तव्यस्त खडकों से निर्माणकार्य किया गया, यह बांध देखकर निश्चित यह प्रतीत होता है कि, उस समय बांध का निर्माणकार्य करने का शास्त्र अच्छी तरह से प्रगत हुआ होगा । ऐसा नहीं प्रतीत होता कि, इस बांध का निर्माण कार्य प्रायोगिक तत्त्व पर किया गया है, तो कुशल एवं अनुभवी व्यक्ति ने नदी के मुख्य प्रवाह में इस का निर्माणकार्य किया गया है । यह अनुभवसिद्ध बांध प्रतीत होता है । अंग्रेजों ने इस बांध पर अंग्रेजी संस्कार करने का प्रयास किया था ।

इस का ही अर्थ यह है कि, हमारे देश में बांध का निर्माणकार्य करने का, अर्थात् ‘जल व्यवस्थापन का शास्त्र’ अत्यंत पुराना है । तत्पश्चात् विदेशी आक्रमणों के कारण इस प्राचीन शास्त्र के प्रमाण नष्ट हुए तथा इतिहास का दर्शन करनेवाले कल्लानाई कुंड केवल साक्षीदार के रूप में रहें ।

 

३. पूरे विश्व में निर्माणकार्य किए गए प्राचीन बांधे

अ. इजिप्त के नाईल नदी पर निर्माण कार्य किया गया प्राचीन बांध

विश्व के इतिहासों में अत्यंत प्राचीन बांध का निर्माणकार्य करने के उल्लेख पाएं जाते हैं । इजिप्त की नाईल नदी पर ‘कोशेश’ में इसवी सन पूर्व २९०० वर्ष पूर्व निर्माणकार्य किया गया १५ मीटर ऊंचाई का बांध विश्व का सबसे पुराना बांध माना गया है, किंतु आज वह अस्तित्व में नहीं है । किंबहुना अर्वाचीन इतिहासकारों ने वह बांध देखा ही नहीं है । केवल उसका उल्लेख पाया जाता है ।

इजिप्त में ही इसवी सन पूर्व २७०० वर्ष पूर्व नाईल नदी पर निर्माण कार्य किए गए बांध के कुछ अवशेष आज भी पाएं जाते हैं । पश्चात् उसका नामकरण ‘साद-अल्कफारा’ ऐसा किया गया । कैरो से ३० किलोमीटर दूरी पर इस बांध का निर्माणकार्य करने के पश्चात् कुछ दिनों में ही उस टूट गया । अतः पश्चात् अनेक शतकों तक इजिप्त के लोगों ने बांध का निर्माणकार्य करने का साहस ही नहीं किया ।

आ. चीन

चीन में भी इसवी सन पूर्व २२८० वर्ष पूर्व के बांधों के उल्लेख पाए जाते हैं; किंतु प्रत्यक्ष में उपयोग में आनेवाला एक भी इतना पुराना बांध विश्व में कहीं भी नहीं पाया जाता ।

इ. भारत

भारत में कल्लानाई बांध के पश्चात् निर्माणकार्य किए गए तथा उपयोग में आनेवाले बांध पाए जाते हैं । इसवी सन ५०० से १३०० में दक्षिण के पल्लव राजा द्वारा निर्माणकार्य किए गए अनेक मिठ्ठी के बांधों मेंसे कुछ बांधों का आज भी उपयोग किया जाता है । सन १०११ से १०३७ इस कालावधी में तमिळनाडु में निर्माण कार्य किया गया ‘वीरनाम’ नामक बांध भी उसी का ही एक उदाहरण है ।

 

४. जल व्यवस्थापन संबंधी निर्माणकार्य रचना में गुजरात के ‘रानी की बाव’
यह ७ स्तर की बाव ‘युनेस्को’ की संरक्षित स्मारकों की सूचि में प्रविष्ट

जल व्यवस्थापन संबंधी निर्माणकार्य की गई अनेक रचनाएं आज भी अस्तित्व में हैं । पहले गुजरात की राजधानी ‘पाटण’ में निर्माण कार्य की गई ‘रानी की बाव’ (राजेशाही बारव) अब ‘युनेस्को’ की सुरक्षा स्मारकों की सूचि में गई है । भूगर्भ के जल को ठीक तरह से क्रीडा करते हुए संचयित करना, इसका यह एक उत्तम उदाहरण है । इसवी सन १०२२ से १०६३ इस कालावधी में निर्माणकार्य की गई यह ७ स्तर की बाव आज भी सुाqस्थती में है । सोळंकी राजवंश की रानी उदयमती ने पति राजा भीमदेव के स्मरणार्थ इस बाव का निर्माणकार्य किया था । अतएवं बाव का नाम ‘रानी की बाव’ हुआ है । इसी कालावधी में सोरटी सोमनाथ मंदिर पर मोहम्मद गजनी ने आक्रमण किया था । बाव का निर्माणकार्य करने के कुछ वर्ष पश्चात् गुजरात पूरीतरह से मुसलमान शासकों के अधीन हुआ । अतः पश्चात् लगभग ७०० वर्ष यह राजेशाही बाव कीचड के कारण दुर्लक्षित हुई थी । इससे यह निश्चित होता है कि, भूगर्भ के जल व्यवस्थापन की जानकारी हमें अत्यंत प्राचीन समय से ही थी ।

 

५. ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में भी जल के नियोजन का सूत्र पाया जाता है । ‘स्थापत्यवेद’
इस अथर्ववेद का उपवेद होना तथा उसकी एक प्रति भी भारत में उपलब्ध न होना

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में जल के नियोजन संबंधी अनेक सूत्र पाए जाते हैं । धुळे के श्री. मुकुंद धाराशिवकर ने उस पर विपुल एवं अभ्यासपूर्ण लेखन किया है । श्री. धाराशिवकर द्वारा लिखे गए लेख में एक ग्रंथ का उल्लेख किया गया है; किंतु दुर्दैव से उसका नाम उपलब्ध नहीं है । ‘अथ जलाशयो प्रारम्यते’ इस पंक्ति से आरंभ होने वाले ग्रंथ में ‘दिवार का निर्माण कार्य कर जलाशय का निर्माण कार्य कैसे करें ?’, इसका सविस्तर विवरण है । यह ग्रंथ २८०० वर्ष पूर्व का है ।

‘स्थापत्यवेद’ को अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है । किंतु दुर्दैव से उसकी एक भी प्रति भारत में उपलब्ध नहीं है । युरोप के ग्रंथालय में उसकी कुछ प्रतियां पाई जाती हैं । उसके परिशिष्ट में ‘तडाग विधी’ की (जलाशय निर्मिति की) पूरी जानकारी प्रकाशित की गई है ।

 

६. अनेक प्राचीन ग्रंथों में जल का संचय, उसका वितरण,
बारिश का अनुमान तथा जलाशय निर्मिति पर सविस्तर जानकारी पाई जाती है ।

‘कृषि पराशर’, ‘कश्यपीयकृषिसूक्ति’ तथा ६ वे शतक में लिखे गए ‘सहदेव भाळकी’ इत्यादि ग्रंथों में जल का संचय, उसका वितरण, बारिश का अनुमान तथा जलाशय निर्मिति पर सविस्तर जानकारी पाई जाती है । ‘नारद शिल्पशास्त्र’ तथा ‘भृगु शिल्पशास्त्र’ में समुद्र तथा नदी में निर्माणकार्य किए जानेवाले गड इन विषयों से जल का संचय, उसका वितरण तथा जल के निचरे पर गहरा विवेचन पाया जाता है । ‘भृगु शिल्पशास्त्र’ ग्रंथ में पानी के १० गुणधर्म, तो पराशर मुनि ने पानी को १९ गुणधर्म होेने का प्रतिपादन किया है । जल के संदर्भ में वेद तथा पृथक पुराणों में अनके उल्लेख पाए जाते हैं । विशिष्ट परिस्थिती में जल का नियोजन कैसे करना, इस संदर्भ की जानकारी प्राप्त होती है ।

 

७. योजना आयोग के ‘ग्राऊंड वॉटर मॅनेजमेंट एॅण्ड ओनरशिप’
इस ब्यौरे में जल व्यवस्थापन शास्त्रशुद्ध एवं प्राचीन होने का विवेचन है ।

वर्ष २००७ में योजना आयोग ने ‘ग्राऊंड वॉटर मॅनेजमेंट एॅण्ड ओनरशिप’ यह ब्यौरा तज्ञों द्वारा लिखकर प्रकाशित किया । संकेतस्थल पर भी यह ब्यौरा उपलब्ध है । उसमें प्रारंभ में ही ऋग्वेद के जल के संबंधी की एक ऋचा का उल्लेख किया है । तत्पश्चात् भारतीय शास्त्रानुसार जलव्यवस्थापन कितना शास्त्रशुद्ध एवं प्राचीन है, इसका भी विवेचन किया है ।

 

८. दूसरे वराहमिहीर द्वारा लिखे गए ग्रंथ में भूगर्भ में जल संशोधन विषयक
श्लोक तथा निरीक्षणं के संदर्भ में वैज्ञानिकों के समान प्रविष्टी प्राप्त हुई है ।

जलव्यवस्थापन संबंधी अत्यंत विस्तृत विवेचन दूसरे वराहमिहीर द्वारा किया गया है । प्रथम वराहमिहीर उनके ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के कारण पहचाने जाते हैं । दूसरे वराहमिहीर अनेक कलाओं में निपुण थे । उनका वास्तव्य उज्जैन में था तथा उस समय उज्जैन का महाराजा सम्राट विक्रमादित्य था । वराहमिहीर ने सन ५०५ में विभिन्न विषयों का अभ्यास करना प्रारंभ किया । उन्होंने लगभग ८२ वर्ष ज्ञानसाधना की तथा उनका देहावसान सन ५८७ में हुआ ।

इस वराहमिहीर का प्रमुख कार्य अर्थात् उनके द्वारा लिखी गई ‘बृहत्संहिता’ नामक ज्ञानकोश । उसमें ‘उद्कार्गल’ (जल का संचय) नामक ५४ वा अध्याय है । इस अध्याय में भूगर्भ में जल का पता किस प्रकार कर सकते हैं, इस संबंधी के १२५ श्लोक है । उसमें दी गई जानकारी अदभुत् तथा आश्चर्यचकित करनेवाली है ।

वराहमिहीर ने भूगर्भ का पानी ढूंढते हुए प्रमुख ३ बातों के निरीक्षणों की ओर ध्यान दिया है । उनके मतानुसार ‘उस परिसर में उपलब्ध वृक्षं, वृक्षों के निकट वारूळं, उन वारुळों की दिशा, उसके रहनेवाले प्राणी, वहां के भूमि का रंग, उसका प्रकार (पोत) तथा उसका स्वाद’ ये बातें उनमें समाविष्ट हैं । ‘इस निरीक्षण के आधार पर भूगर्भ का जल का निश्चित रूप से ढूंढ सकते हैं ।’ विशेष बात यह है कि, ढेड सहस्त्र वर्षों से भी पूर्व कोई भी आधुनिक संसाधन ज्ञात न होते हुए भी वराहमिहीर ने जल के संदर्भ में दृढ मत प्रतिपादित किया है ।

इसके साथ-साथ वराहमिहीर ने उस समय वर्तमान के वैज्ञानिकों के समान महत्त्वपूर्ण प्रविष्टी की थी । उन्होंने ५५ वृक्ष, वनस्पतियों का अभ्यास, मिठ्ठी का वर्गीकरण तथा सर्व निरीक्षणों का निकष इनकी रचना विस्तार से की है । उनमें से कुछ निकष इस प्रकार हैं…….

अ. यदि अधिकांश शाखाएंवाला वृक्ष तथा तेलकट छिलका वाला छोटा वृक्ष होगा, तो जल पाया जाता है ।

आ. यदि धूप के समय भूमि से बाफ निकलते हुए दिखाई दी, तो पृष्ठभाग में जल पाया जाता है ।

इ. पेड की एक ही शाखा भूमि की ओर झुक गई है, तो उसके नीचे के क्षेत्र में जल पाया जाता है ।

ई. जब धरती अधिक गरम रहती है तथा किसी एक ही स्थान पर भूमि ठंड लगी, तो वहां जल पाया जाता है ।

उ. यदि कांटेवाले पेडों के कांटे नरम हुए हैं, तो वहां निाqश्चत ही जल पाया जाता है ।

इस प्रकार के अनेक निरीक्षणं वराहमिहीर ने प्रविष्ट किए हैं ।

 

९. वराहमिहीर के निरीक्षण के अनुसार जल प्राप्त
करने के स्थान चुनने के पश्चात् प्रत्यक्ष ९५ प्रतिशत जल
प्राप्त हुआ तथा दुर्दैव से वह प्रकल्प लालफिती में लटक गए हैं ।

वराहमिहीर का उपर्युक्त प्रतिपादन सत्य है या असत्य । इसकी जांच करने हेतु आंध्रप्रदेश के तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर (एस्.वी.) विद्यापीठ ने अनुमान से १५-१६ वर्ष पूर्व प्रत्यक्ष बाव का खोदाई कार्य करने का निश्चित किया । वराहमिहीर के निरीक्षणानुसार जल प्राप्त होने के लिए उचित सिद्ध होंगे, ऐसे स्थान उन्होंने चुने तथा अनुमान से ३०० बोअरवेल की खोदाई की । आश्चर्य की बात यह है कि, ९५ प्रतिशत स्थानों पर जल पाया गया । अर्थात् यह बात सिद्ध हुई कि, वराहमिहीर का निरीक्षण उचित था; किंतु तत्पश्चात् दुर्दैव से
सरकारी प्रकल्प लालफित में लटक गया तथा वह नागरिकों तक पहुंचने में असमर्थ रहा ।

 

१०. भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व जल व्यवस्थापन के अनेक उदाहरणं

भारत में अंग्रेजों के शासन से पूर्व जल व्यवस्थापन के अनेक उदाहरणं स्थान-स्थान पर पाए जाते हैं ।

अ. उत्तर पेशवाई में संभाजीनगर जनपद के गोगानाथनगर में निर्माणकार्य किया गया ‘थत्ते नहर’, पुणा में पेशवा की कालावधी में निर्माणकार्य की गई जलपूर्ति रचना, बुरहाणपूर में (मध्यप्रदेश) आज भी अस्तित्व में होनेवाली ५०० वर्ष पूर्व की जल बहाकर ले जाने की रचना, पंढरपुर-अकलूज मार्ग पर वेळापुर गांव में सातवाहन कालावधी में निर्माण कार्य की गई बारव, ‘समरांगण सूत्रधार’ इस ग्रंथ के आधार पर राजा भोज द्वारा निर्माणकार्य किया गया भोपाळ का बडा कुंड, इस प्रकार के अधिकांश उदाहरणं दे सकते हैं ।

राजा भोज द्वारा १ सहस्त्र वर्ष पूर्व निर्माणकार्य किया गया भोपाळ का यही वह महान कुंड ! कुंड में राजा भोज की प्रतिमा की स्थापना की गई है ।

आ. गोंडकालीन जल व्यवस्थापन – गढा-मंडला (जबलपुर) तथा चंद्रपुर इस क्षेत्र में प्राचीन कालावधी से गोंडों का राज्य था । मुघल, आदिलशाही अथवा कुतुबशाही को गोंडों को जीतना संभव नहीं हुआ; अपितु हमारे देश में यह प्रदेश अविकसित प्रदेश माना गया है । अर्थात् वास्तव में ऐसा नहीं था ।
‘गोंडकालीन जल व्यवस्थापन’, इस हिन्दी पुस्तक में अनुमान से ५०० से ८०० वर्ष पूर्व गोंड साम्राज्य में जल का नियोजन कितना उत्कृष्ट किया गया था, इस का विवरण है । इस नियोजन का लाभ इस रूप में किसी भी अकाल अथवा अवर्षण की धग इस ‘गोंड प्रदेश’ को कभी भी नहीं लगी थी ।

जबलपुर शहर में गोंड रानी दुर्गावती की कालावधी में (अर्थात् ५०० वर्ष पूर्व) ‘बावन ताल’ तथा ‘बहात्तर तलैय्या’ (तलैय्या अर्थात् छोटा कुंड) का निर्माणकार्य किया गया । यह कुंड केवल खोदाई कर नहीं किया गया था, तो भूमि की ‘कंटुर’ के अनुसार रचना की गई । कुछ कुंड अंदर से एक-दूसरे से जुडे हुए हैं । आज उनमेंसे अनेक कुंड बंद हुए हैं । अपितु शेष कुंडों के कारण जबलपुर में जल का स्तर अच्छा है । अतः वहां जल का दुर्भिक्ष प्रतीत नहीं होता । इससे यह स्पष्ट होता है कि, उस समय जल, खेती तथा प्राकृतिक की समृद्धि कितनी थी ? इसका अर्थ यह है कि, जल का महत्त्व, उसकी जांच तथा जल के नियोजन का संपूर्ण विकसित तंत्रज्ञान हमारे पास था ।’

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